Friday, 28 October 2016

~ पुष्कर की दीवाली ~

पुष्कर का परिवार सात लोगों का, पुष्कर के माता-पिता और उसकी दो छोटी बहनें और दो बड़ी दीदी..कुल मिला के चार लड़कियां और एक लड़का पुष्कर।
पुष्कर के पिता पहले गांव में सरपंच थे..ठीक-ठीक संपन्न परिवार..एक बोलेरो गाड़ी भी ले ली थी..फसल योग्य दो-तीन एकड़ जमीन भी थी..पर धीरे-धीरे सब लूटता गया..और सरपंचगिरी छूटी तो सपरिवार शहर में आकर बस गए।
पुष्कर 10th क्लास में है.उसकी दोनों बहने काफी छोटी हैं एक क्लास 6th में थी और सबसे छोटी बहन क्लास 2nd में।पुष्कर की छोटी दीदी दसवीं में फेल होने के बाद मां के साथ घर के ही काम संभालती।बड़ी दीदी ने स्नातक की पढ़ाई कर ली थी..अब वो एक स्कूल में पढ़ाने लगी..साथ ही कुछ बच्चों को कोचिंग पढ़ाती..इससे घर का कुछ खर्च निकल जाता।अब परिवार को शहर में रहने की ऐसी आदत लगी कि वे चाहकर भी वापस गांव को नहीं जा सकते थे।

अब मैं आपको गांव के बारे में कुछ बताता हूं।गांवों में ऐसा है कि अगर आपको आर्थिक सामाजिक हर तरीके से बर्बाद होना है तो एक दफा सरपंच बन जाइए...आज के समय ये बात लगभग 95% सच है जो 5% बच गये हैं वे तो स्वच्छता एवं उत्पादन की दृष्टि से मिसालें कायम कर ही रहे हैं।
एक बार आदर्श ग्राम निरीक्षण में कलेक्टर अपने क्षेत्र के एक गांव को गये..वहां का सरपंच अच्छा पढ़ा लिखा था..उसको कलेक्टर ने पास बुलाकर कहा- आप इस भारतभूमि की आत्मा के सामने रहते हैं, संस्कृति का द्योतक(means of culture) तो ये है ही साथ ही उत्पादन का मूल(means of production) भी यही है।इसलिए इसे जितना हो सके उतना सहेजें,संवारें,पल्लवित करें,उन्नत करें..मैं तो एक सेवक मात्र हूं लेकिन आपकी जिम्मेदारी मुझसे कहीं बड़ी है..मैं इस उम्मीद के साथ यहां से जा रहा हूं कि आप अपनी जिम्मेवारी समझें।

आज के परिदृश्य में लोकतंत्र में छात्र राजनीति के बाद कोई राजनीतिक तंत्र अगर सबसे विफल है तो वो है गांवों की राजनीति।
इसी राजनीति ने पुष्कर के परिवार को शहर आकर रहने पर विवश कर दिया।

शहर में आने के बाद पिता के सामने आय का साधन एक ही था वो थी उनकी गाड़ी। अब वे उसे किराए पर चढ़ाने लगे..अब पुष्कर के पिता गांवों में रहते..पैसे भेज दिया करते..महीने में एक दो बार आ भी जाते...धीरे-धीरे हालात ऐसे बने कि सरपंच साहब खुद ड्राइवर बन गये।अब वे महीनों तक गांवों में ही रहते।एक तो आय के सीमित साधन और इतना बड़ा परिवार, उनके लिए ये सब संभालना बड़ा मुश्किल जान पड़ रहा था।

पुष्कर की मां आये दिन मन ही मन अपने भाग्य को कोसती।काश वो थोड़ी पढ़ी लिखी होती तो आज उसे ये दिन देखने न पड़ते।सास-ससुर के दबाव, पुत्र-प्राप्ति की अभिलाषा और न जाने किन-किन कारणों से ये इतना बड़ा परिवार स्थापित हुआ।

इस बार ऐसा हुआ है कि पुष्कर के पिता पिछले तीन महीने से घर नहीं आये हैं न ही इन तीन महीनों के दौरान कभी फोन पर बात की है।अब तो मां के सामने सबसे बड़ी चिंता ये थी कि उन्होंने तीन महीने से घर का किराया नहीं दिया है।
अपने गले का हार बेचकर वो तीन महीने का बिजली बिल पहले चुका ली थी।मकान मालिक को आखिर कब तक टाले..मकान मालिक आये रोज आकर कहता कि कमरा खाली कर दो..मुझे भी इसका हर महीने लोन चुकाना होता है अब मैं कितनी बार समझाऊं।मकान मालिक भी अपने जगह सही था..अब इसके अलावा और वो क्या करता..उसकी भी विवशता थी। एक बार वो किराए लेने आया तो पुष्कर की मां कहने लगी कि इसके पिता ने हमें छोड़ दिया है..अब तो साफ मालूम हो रहा है..मकान मालिक ने कहा कि पुलिस में केस दायर करो.लेकिन मां पीछे हट जाती..आखिर अपने ही पति पर केस करे भी तो कैसे..एक उम्मीद एक आस हमेशा उसके साथ थी कि वापस आ जायेंगे।
अब जब आर्थिक स्थिति और खराब होने लगी तो वो आस पड़ोस के लोगों को कहने लगी कि मेरे लड़के के लिए कोई अच्छा काम ढूंढ देना।पुष्कर की छोटी दीदी जो दसवीं में फेल हो गई थी वो अब सिलाई का काम करने लगी।
अब मां की चिंता पुष्कर पर आकर टिक गयी।
एकलौता लड़का..और एक ऐसा लड़का जो अंतर्मुखी(introvert) सा था।
कभी-कभार हंसता या मुस्कुराता तो ऐसा लगता कि उसे बीच में रोककर ये कह दें कि यार तुम रहने दो..तुम्हारे बदले मैं हंस देता हूं।

एक दिन बाद दीवाली है।
सारे बच्चे मां के साथ घर की सफाई में लग गये।
सफाई के दौरान कुछ पुराने लोहे और प्लास्टिक के सामान मिले..साथ ही एक पुरानी जंग लगी हुई डंडी वाली सायकल थी..इन सबको कबाड़ वाले के पास बेच दिया।कुछ 300 रुपए मिल गये।
अब जो थोड़ी बहुत पिछले साल की रंगोली डब्बे में बची हुई थी..बहनों ने यही फैसला किया कि इस बार सिर्फ लक्ष्मीपूजा के दिन ही रंगोली बनायेंगे वैसे भी रोज जरूरी थोड़ी न है..दीवाली तो एक ही दिन होता है।इस एक बात पर सबकी सहमति हो गयी।
मां ने बेटी के साथ मिलकर पुराने दियों को धोकर साफ कर लिया था..थोड़े पैसों से कुछ नये दिये भी खरीद लिए..बाजार जाकर सबसे सस्ता तेल खरीद लाया।
नये कपड़े या पटाखे खरीदने का तो सोच भी नहीं सकते थे
बस दूसरों को देखकर खुश होने के इंतजार में हैं
और सबसे बड़ा इंतजार तो पिता के आने का भी है।
अब धनतेरस का जब पूरा दिन खत्म हो चुका है तो सबने उम्मीद छोड़ दी कि अब पापा शायद ही आयें।
इसी बीच एक घटना हो गई।पुष्कर की बहन का सैंडल थोड़ा टूट गया था..तो पुष्कर उसे चिपकाने फेवी क्विक लेकर आया,जल्दी-जल्दी में फेवी क्विक की एक बूंद पुष्कर के आंखों के किनारे लग गई..हालात ऐसे हुए कि डाक्टर के पास जाना पड़ा..लगभग 500 रुपए खर्च हो गये।मां अपनी सुधी खो बैठी और उसने बेटे को थप्पड़ भी लगा दिया..आज उसने कितने दिनों बाद बेटे को हाथ लगाया है।लगे हाथ बेटियों पर भी गुस्सा कर दिया कि ये रंगोली मेंहदी बनाना ये सब क्यों नहीं सीखते..देखो तुम्हारे साथ की लड़कियां कैसे कमा रही हैं।कुछ इस तरह मां थोड़े देर नाराजगी जताकर शांत हो गई।

पुष्कर भी एक मीठा हृदयघात समझकर सब भूल जाता।
पुष्कर एक शांत स्वभाव का लड़का,जिसके सीमित दोस्त हैं।
साल भर से चल रही आर्थिक टूटन के चलते लगभग सभी बच्चों की ख्वाहिशों ने मानो दम तोड़ दिया था।वो 2nd क्लास की बच्ची तो उम्र से पहले ही समझदार हो गयी..न किसी चीज के लिए जिद ना ही कोई चाह, लेकिन पुष्कर की एक चाह हमेशा बची रही।
जब जब दीवाली पास आती वो अपने दोस्तों से दूरी बना लेता।जिस तरह एक पढ़ने वाले का लगाव नये कापी किताब की खुशबू से होता है।पुष्कर का लगाव नये कपड़ों की खुशबू से था।इतना गहरा लगाव कि कहीं से उसके पास जेबखर्च को कुछ पैसे होते तो वो एक रूमाल ही खरीद लेता..कुछ इस तरह उसके इस शौक की भरपाई आसानी से हो जाती।

इस बार भी पुष्कर इसी कोशिश में है कि एक नया रूमाल ही  खरीद ले.....

Thursday, 20 October 2016

~ Les Miserables by Victor Hugo ~

एक ऐसा उपन्यास जिसमें छिपा है फ्रांसिसी क्रांति के समय का फ्रांस और जिसे उन्नीसवीं सदी में सबसे ज्यादा ख्याति मिली।
आज से लगभग 150 साल पहले ये नावेल आई थी, लेकिन आज भी इस नावेल पर फिल्में बन रही है, अब तक लगभग 13 फिल्में बन चुकी हैं।
उपन्यासकार विक्टर ह्यूगो को इस नावेल को लिखने में लगभग 17 साल लगे..1845 में उन्होंने लिखना शुरू किया..और 1862 में उनकी ये नावेल प्रकाशित हुई।उस समय प्रचलित लगभग सभी भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया।

मैंने कुछ महीने पहले जब ये नावेल पढ़ा था तो ऐसा लगा कि मैं किसी दूसरी दुनिया में हूं, इस नावेल का 2350 पेज का इंग्लिश वर्जन जो मेरे फोन में पीडीएफ में था...मैंने 3 दिन में खत्म कर दिया।
सच कहता हूं मैंने इससे पहले कभी किसी किताब को इतनी शिद्दत से नहीं पढ़ा है।
आप यकीन नहीं करेंगे, मैं कुछ दिन तो ढंग से सो भी नहीं पाया..एक अलग ही स्टेट आफ माइंड, मेरी हालत तो ठीक कुछ वैसी थी जैसी हिमाचल के कौलंतक पीठ के कौलाचारी लोगों की होती है, कहा जाता है कि वे दो-दो दिन तक लगातार ध्यान में लीन रहते हैं।

अब मैं आपको नावेल के बारे में कुछ बताता हूं जो आपको हिन्दी में कहीं और शायद ही मिले।
नावेल पर सबसे पहली फिल्म 1908 में बनकर आई, उसके बाद से इस नावेल की विषयवस्तु पर फिल्में बनती गई। मेरी नजर में तो ये एक ऐसा बेजोड़ नावेल है जो सबके पढ़ने लायक चीज है। अच्छा इस पर एक फिल्म बनी है 1957 में और एक दूसरी 1978 में, ये दोनों फिल्में यूट्यूब में है।अभी हाल ही में 2012 में इस पर जो फिल्म बनी है वो तो आपको आसानी से मिल जायेगी। लेकिन बात वही है मैंने जब पूरी नावेल पढ़ने के बाद इन फिल्मों को देखा तो ऐसा लगा कि शहद पहले पी लिया हो और अब शक्कर का स्वाद लेने बैठा हूं।

1862 में जब ये नावेल प्रकाशित हुई थी तो पहले ही दिन इसकी 48000 कापियां बिक गई, लोग घंटों तक लाइन में लगे रहते, इस किताब की वजह से आए दिन ट्रैफिक जाम होता।किताब के कापीराइट एवं किताब बेचने को लेकर दुकानदारों के बीच मारपीट,झगड़े होना आम बात हो गई थी।
इस उपन्यास को "सामाजिक अन्याय का महाकाव्य" कहा गया।
उन्नीसवीं सदी में किसी और नावेल ने इतनी प्रसिद्धि नहीं पाई, संपूर्ण यूरोप में इस किताब ने धूम मचा दी।अमेरिका में जब ये नावेल पहुंची उस समय वहां गृहयुद्ध चल रहा था।
अमेरिका में इस नावेल के प्रभाव का अंदाजा आप इस घटना से लगाइएगा..युध्द में जब सैनिक बंदूक लेकर जाते तो हमेशा अपने साथ ये किताब लेकर जाते..कैंपों में या खाली समय में कोई एक सैनिक अपनी टोली के सभी सैनिकों को इस नावेल को सुनाता और सेना का मनोबल बढ़ाता।
अमेरिकी सैनिक एक दूसरे को lee miserables नाम से संबोधित करते।

"Les Miserables" यानी "विपदा के मारे"।
विक्टर ह्यूगो ने नावेल के बारे में कहा - मुझे नहीं पता कि इस नावेल को कितने लोग पढ़ेगें, लेकिन मैं ये कहना चाहता हूं कि ये नावेल सबके लिए है।
ह्यूगो ने प्रकाशकों से गुजारिश करी कि इस नावेल की सस्ती कापियां निकाली जाए ताकि ये जन-जन तक पहुंचे। जब नावेल छप गई तो ह्यूगो ने अपने प्रकाशक को एक सांकेतिक तार भेजा जिसमें उन्होंने एक (?) लिखा था..जवाब में प्रकाशक ने उसी अंदाज में (!) भेजा।
अब आप समझ सकते हैं कि हालात कैसे होंगे।
नावेल की प्रसिद्धि तो हुई साथ ही इसका दूसरा पहलू ये भी था कि इस नावेल को लेकर नेशनल एसेंबली में बहस होने लगी, नावेल पर कैथोलिक चर्च ने 240 बार आक्रमण किया।
वेटिकन के कंसर्वेटिव लोग इस नावेल के सामाजिक प्रभाव को भलीभांति समझ चुके थे, फ्रांस में वर्षों तक इस नावेल पर बैन लगा दिया गया।उस समय के फ्रेंच न्यूजपेपर "the constitutional" ने अपने अखबार में लिखा - अगर इस नावेल की बातें अमल हो गई तो कोई भी सामाजिक ढांचा अस्तित्व में नहीं रहेगा।

इस नावेल का हिन्दी में प्रकाशन भी हो चुका है।
अभी कुछ दिन पहले जब इस नावेल का हिन्दी अनुवाद किताब के रूप में मेरे हाथों लगा है तो महसूस हुआ कि इसके बारे में आपको बताना चाहिए।
हिन्दी में ये किताब दो भागों में प्रकाशित हुई है।



पहला भाग जिन्होंने लिखा है वो हैं गोपीकृष्ण गोपेश जो आज इस दुनिया में नहीं हैं..उन्होंने लगभग 60% अनुवाद कर लिया था जो कि इस नावेल के पहले भाग के रूप में है।
जीवन के अंतिम दिनों में वे अपनी बेटी से, अपने परिजनों से कहते..बस दो साल और मिल जाते..लेकिन कोई उनके मर्म को समझ नहीं पाता कि वे ऐसा क्यों कह रहे हैं बाद में जब उनके कमरे की चीजों को उनकी बेटी ने देखा तो उनको इस किताब का ये अधूरा अनुवाद मिला..उन्होंने फिर इसे प्रकाशित कराया साथ ही इसके बचे हुए भाग के लिए प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा को कहा..उन्होंने इस शेष बचे भाग का अनुवाद किया है।
हिन्दी में इसका यह पहला संपूर्ण अनुवाद है।

विक्टर ह्यूगो की जब मृत्यु हुई तो उस समय उनकी शवयात्रा में लगभग तीस लाख लोग शरीक हुए।कहा जाता है कि उन्नीसवीं सदी में पूरे विश्व में कहीं किसी और व्यक्ति के लिए इतनी भीड़ इकट्ठी नहीं हुई।

ये एक बच्ची की पेंटिंग है। इस पेंटिंग के पीछे विक्टर ह्यूगो का एक पूरा का पूरा illustration है।जब भी इस किताब का जिक्र हुआ इस पेंटिंग का भी जिक्र होता, पेंटिंग को इस किताब के लोगो के रूप में हमेशा जगह मिलती।
और तो और ये पेंटिंग उन्नीसवीं सदी की सबसे प्रसिद्ध पेंटिंग में से एक थी और हो भी क्यों न, विक्टर ह्यूगो का दृष्टान्त जो इसमें समाया था।

Saturday, 15 October 2016

~ उद्देश्यों की पवित्रता ~

आजकल तुम्हारी सामान्य सी बातचीत में भी कपट,राजनीति,अहंकार एवं द्वेष का अद्भुत सम्मिश्रण दिखाई पड़ता है।

पता है जब मैं किसी दूसरे राज्य में जाता हूं, वहां जब किसी सुदूर गांव के लोगों से चलते फिरते मिलना होता है तो ऐसा लगता है जैसे मैंने कोई धन पा लिया हो, मानो कोई कीमती चीज मेरे हाथ लगी हो।
अभी हाल फिलहाल की ही बात है, अकेले एक नदी की ओर ट्रैकिंग के लिए निकला था..रास्ते में एक गांव पड़ा..वहां एक छोटा सा होटल था, मैं नाश्ते के लिए वहां थोड़ी देर रूका..
वहां जो भैया थे उनको मैंने कहा कि चाउमिन बना देना और मैं वहां लगी टाटपट्टी पर बैठ गया..वहां आसपास कुछ वृध्द भी थे..साथ ही और भी जितने लोग वहां थे..सब उम्र में मेरे से बड़े ही लग रहे थे। सब मुझे इतने आदर से देख रहे थे जैसे हम विदेशी सैलानियों को देखते हैं..अपने ही देश में अपने से उम्र में बड़े लोगों द्रारा ऐसा व्यवहार पाकर मुझे बड़ी घुटन हुई।
साथ ही साथ मैं हैरान था..हैरानी की वजह ये सुखद असहजता थी जिससे मैं जल्द से जल्द निजात पाना चाहता था..फौरन पानी पीने के बहाने उठा और वहां पास में एक पत्थर में बैठ गया..और पास में एक दादाजी थे उनको बोला..दारजी मैं भी गांव वाला लड़का हूं।इतना बोलकर मैं शांत हो गया।
मैंने एक तो सामान्य से कपड़े पहने थे, बैग भी कोई ब्रांड वाला नहीं था।पता नहीं मेरे लिए ये हसरत भरी निगाहें क्यों आयी..मैं कौन सा भला इन गांव वालों को तारने आया हूं।
मैं ये सब सोच ही रहा था कि चाउमिन वाले भैया ने आवाज लगाई..सरजी ये आपका चाउमिन ले लो..मुझे बड़ा गुस्सा आया..वो चाउमिन वाले भैया कम से कम मेरे से दस साल के बड़े होंगे..चाउमिन लेते हुए मैंने उनसे कहा- अरे क्या दाज्यू(कुमाऊँनी में अपने से बड़ों के लिए प्रयुक्त होता है) आप भी..मैं ये कैमरा वाला बैग टांग के सर बन गया क्या..इतना बड़ा मत बनाओ यार..मैं कोई साहब थोड़ी न हूं..अगर होता भी तो भी आप हमसे बड़े हो दाज्यू..आप भी न सर बोलकर चाउमिन का टेस्ट खराब कर दिये।
वो ये सब सुन के मुस्कुरा दिये।
मैंने चाउमिन के पैसे चुकाये और वहां सबको नमस्ते वाला इशारा करते हुए वहां से आगे को निकला।

अब बात आती है आज के इस शीर्षक की।
ऐसे जना जिसने अच्छे से पढ़ाई की, नौकरी भी लगाई, पैसे भी कमाया..लेकिन एक चीज हमेशा भूलते गये.." उद्देश्यों की पवित्रता "।

आज जब मैं किसी ठेले वाले से मिलता हूं, किसी छोटे से दुकान में जाता हूं या और भी ऐसे कितने लोग जो कोई छोटा-मोटा काम करके अपनी जिंदगी काट रहे हैं उन तक जब मैं पहुंचता हूं तो ये उद्देश्यों से जुड़ी खूबी वहां बड़ी मात्रा में देखने को मिलती है। वो अपने हितों को साधने के लिए किसी भी तंत्र को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते।इसलिए शायद मैं कई बार उन्हीं के बीच का हो जाता हूं, उन्हीं के माहौल में घुल-मिल जाता हूं एक पल के लिए भूल जाता हूं कि मैं एक ठीक-ठीक पढ़ने-लिखने वाला स्टुडेंट हूं, कुछ इस तरह भूल जाना अच्छा मालूम होता है।
उद्देश्यों की पवित्रता को नये आयाम मिल जाते हैं।
और जो मैं इन लोगों से कभी मिल लेता हूं इनका कम पढ़ा होना, कम सीखा होना, कम जानकारी के साथ एवं तमाम अभावों के बावजूद कर्त्तव्यपथ पर बने रहना इनके उद्देश्यों की पवित्रता को जीवित रखता है।

आज वर्तमान में मैंने उन सभी दोस्तियों से दूरी बना ली है जो दौलत, शोहरत, रुतबे और दिखावे के छाया तले दोस्तियां निभाते हैं, मैं इनके बीच खुद को बड़ा असहज महसूस करने लगा हूं, इनके बीच रहकर न तो मैं मन मुताबिक बात कर सकता हूं न ही खुलकर हंस पाता हूं।
एक पल को लगता है कि कितने अजीब लोग हैं हमारे आसपास, मानता हूं विविधताओं से भरा देश है, लेकिन आज इस विविधता ने एक ऐसा रूप ले लिया है कि कोई किसी को समझना तक नहीं चाहता।
ऐसे लोग जब कई सालों तक गायब रहने के बाद अचानक जन्मदिन पर हैप्पी बर्थडे मैसेज करके गायब हो जाते हैं तो लगता है कि इसने इतनी बड़ी तोहमत उठाई ही क्यों और जब बात ऐसी ही है तो लगता है कि इससे अच्छा मुझे दो चार गालियां भेंट कर देता, कम से कम ये बात मेरे स्मरण में तो रहती।
अब ये दोस्तियां चीनी मिट्टी के बर्तन जैसी ही लगने लगी है कब हाथ से छूट जायें टूट जायें, इसका कोई भरोसा नहीं।
बहुत सहेजना पड़ता है इन चीनी मिट्टी के इन बर्तनों को, हमसे थोड़ा सी गलती हुई नहीं कि ये हमें अपमानित करने को तैयार रहते हैं, पीड़ा तो ये भी है कि इन्हें इस बात का पता भी नहीं चलता कि इन्होंने रिश्ते खराब कर लिये, ये क्षणभंगुर हैं, जल्दी टूट के बिखर जाते हैं, द्वेष से भर जाते हैं।

मैं यह समझ पाने में असमर्थ हूं कि आखिर जिंदगी में क्या ज्यादा जरूरी हो गया है।
उर्दू में एक शब्द है "तरजीहात" यानी कि "Priorities"।
हमारी priorities क्या हैं?
आखिर हैं भी तो ऐसी ही क्यों हैं?
किसलिए हैं?
क्या हमारा खुद पर इतना भी हक नहीं बनता कि इस बदलते सामाजिक-आर्थिक परिवेश में अपनी तरजीहात संवार लें, खुद से कुछ सवाल-जवाब कर लें।

जब कभी मैं अपने किसी पढ़े लिखे नौकरीपेशे वाले दोस्तों से मिलता हूं सामान्यतया होता ये है कि ढेर सारी बातें होती है।मैं कुछ बातें कहता हूं और साथ ही वो भी बातें करने लगता है।जब वो बात करता है तो उसकी एक एक बात से मुझे यही लगता है कि यार तू आखिर खुद को इतना एक्सपोज क्यों कर रहा है।मैं ये सिलसिला चलने देता हूं, बातें होती रहती है, और उस एक दोस्त की चंद बातों के सहारे एक पूरे समाज का नजरिया सामने आ जाता है।
एक ऐसा सामाजिक मुखौटा मेरे सामने होता है, जो पल-पल छुप के डराने की कोशिश कर रहा होता है।

हालात कुछ ऐसे बन गये हैं कि उद्देश्यों की पवित्रता को ताक में रखकर सब कुछ तो हासिल कर लेता है इंसान, सिवाय इंसानी गुणों वाले लोग उसे ढूंढे नहीं मिलते।

Friday, 14 October 2016

~ भीड़ की मानसिकता ~

मैं उस समय 3rd या 4rth क्लास में था।
मोहल्ले  में लड़ाई चल रही थी, दो लोग एक तीसरे की चप्पलों से पिटाई कर रहे थे।
मैं बड़ी उत्सुकता से ये सब देख रहा था।
तभी दादी आई और एक हाथ से मुझे खींचते हुए घर ले गई, मैं बहुत जोर आजमाया, चिल्लाया लेकिन हाथ की पकड़ छुड़ाने में असफल रहा, बाद में घर में रो रोकर हाहाकार मचाया कि मुझे झगड़ा क्यों नहीं देखने दिए।
उस वक्त पापा ने मुझे एक शब्द नहीं कहा था।
जब मैं शांत हुआ तो फिर दादी ने बताया कि तुम बाप बेटे एक जैसे हो,
उन्होंने पापा की ओर इशारा करते हुए कहा - ये भी बचपन में ऐसा ही करता था जहां झगड़ा हुआ, झगड़ा पूरा देखे बिना वापस घर आता ही नहीं था और फिर रात को ठीक से खाना नहीं खाता था।

अभी कुछ दिन पहले की बात है..
मैं रात का खाना खाने होटल जा रहा था,
नौ बज चुके थे,
पहाड़ों में इस समय लगभग सारी दुकाने बंद हो जाती है।
मैं खाने की टेबल पर बैठा और कहा कि भाई एक थाली लगा देना।
उतने में ही बाहर लोगों के चिल्लाने की आवाज आई..
मामला ये हुआ कि पंद्रह बीस लोग एक लड़के को बुरी तरीके से पीट रहे थे..ईंट से उसका सर भी फोड़ दिया..एक लड़का तो कहीं से एक कुल्हाड़ी ले आया था, हवा में लहराने लगा।
भीड़ का गुस्सा इतना तेज था कि जो बीच बचाव करने आया उनको भी अच्छी खासी चोट लग गई..आखिर में लड़के को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा।
मामला शांत हुआ तो पता चला कि मार खाने वाला लड़का बहुत ही बड़बोला है साथ ही बिगड़ैल स्वभाव का है।
शराब के नशे में उसने अपशब्द कहे और लोगों ने उस पर गुस्सा उतार दिया।
लड़का एकलौता है, धन संपन्न परिवार से है।
नशे में धुत्त एक दफा उसने मेले में एक पुलिस वाले की पिटाई की और अपने दोस्त को फोन देकर वीडियो बनाने को कहा।
पुलिस कस्टडी में पूरे एक दिन उसकी पिटाई हुई..महीने भर तक चल नहीं पाया था।ये उस लड़के का इतिहास है।

होटल में काम करने वाला लड़का जो मेरे साथ ये सब देख रहा था, उसने मेरा हाथ पकड़ कर अंदर की ओर ले जाते हुए कहा, चलो चलो आप खाना खा लो, अब शटर गिराऊंगा।
मैं कमरे से तो यही सोचकर गया था कि पांच छः रोटी जाऊंगा लेकिन गिरते पड़ते चार रोटी में सिमटकर रह गया।
जो लोग झगड़े के बारे में चर्चा कर रहे थे वो कह रहे थे कि यार ऐसे गाली देगा तो कौन नहीं मारेगा यार, जो हुआ बहुत बढ़िया हुआ।
एक पहचान वाले ने कहा क्या सरजी फाइट देखे पूरा,मजा आया?
एक और ने कहा कि  यार अपने ही बीच का तो है, जो हुआ ठीक नहीं हुआ।
मैं तुरंत वहां से कमरे को आ गया, रास्ते में बार-बार गांधी याद आ रहे थे।

मैं जब उस लड़के को पीटते देख रहा था हमेशा की तरह मेरी धड़कने तेज हुई, बहुत गुस्सा भी आया कि कैसे इस भीड़ को मैं रोक दूं, एक बार को सोचा कि उनके बीच जाकर जोर से चिल्लाऊं, लेकिन भीड़ का उत्साह इतना ज्यादा कि कोई शराब के नशे में था तो कोई मारपीट करने के नशे में...।
सच कहूं तो मैं भीड़ के इस भयावह रूप से डर गया,
कमजोर पड़ गया।लाचार और बेबस बस देखता रहा।
टीस तो बहुत हुई कि हिमाचल की इन वादियों में ये सब क्या हो रहा है।
अब ऐसे मामले में सही गलत के बाड़े में क्या लोगों को बांधा जा सकता है?  नहीं बिल्कुल नहीं।
लेकिन कल रात मैं उस मार खाने वाले लड़के के साथ था न कि भीड़ के साथ।
चाहे वो मार खाने वाला लड़का कितना भी गलत क्यों न हो लेकिन मेरी वेदना, पीड़ा, सारी मनोस्थिति उसी लड़के के इर्द-गिर्द ही बनी रही।

क्या करूं हर बार अपना वही पुराना वादा दोहराता हूं कि चाहे मेरी आंखों के सामने हालात कैसे भी हों मैं कभी भीड़ की मानसिकता के साथ खड़ा नहीं होऊंगा।

मेरे साथ यही हो रहा है...
आसपास कहीं झगड़े होते हैं,
खींचा चला जाता हूं,
धड़कनें तेज होती है,
मन उदास होता है,
और आखिरकार मायूस सा चेहरा ले अपने घर को वापस लौट जाता हूं।
बचपन से आज तक बस यही हो रहा है।

Wednesday, 12 October 2016

~ चूड़ियां ~

~ चूड़ियां ~

आप लोगों के बीच इतना अपनापन मिला..जिसकी शायद मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था।
ये सब कुछ मेरे लिए नया सा था।
भाभी..इतने दिनों तक आपके हाथ से पहाड़ी खाना खाने मिला..इसका शुक्रिया..।
जाते जाते मैंने भतीजे के लिए एक ड्रेस तो दे दी..लेकिन आखिर तक आपको क्या देते जाऊं..ये सोचते ही रह गया..।
आखिरी समय तक संशय में ही रहा..एक बार को सोचा कि स्वेटर दे दूं..लेकिन कुछ एक वजह से स्वेटर खरीद न पाया।

आखिरी दिन आ गया था।
अगले दिन बड़े सबेरे वापस पहाड़ छोड़ अपने मैदान वापस लौटना था।
उस रात हम लोग होटल में खाना खाने गये हुए थे।
होटल में जो दीदी रोटियां बना रही थी।
मैं वहां सामने बैठा देख रहा था..
गोल होती रोटियों को देखते हुए अचानक से मेरा ध्यान उनके हाथों पर चला गया..
"चूड़ियां"
मुझे एक निराशा सी हुई कि मैंने ये चीज कैसे नजरअंदाज कर दी..
कुछ चूड़ियां तो मैं दे ही सकता था।
आसपास बाहर निकलकर देखा तो पता चला कि फैंसी स्टोर बंद हो चुका है और मुझे अगले दिन सुबह जाना भी है।
सुबह रास्ते भर बड़ी टीस हुई..रंग बिरंगी चूड़ियों का एक सेट आंखों के सामने बार-बार झूलता..कितना अच्छा होता कि मैं उपहार स्वरूप आपको अपने हाथों से देता।
लेकिन अब तो ये सब मुमकिन नहीं था।
बात वहीं रह सी गई कि चलो अगली बार जब आना होगा तो पक्का लेकर आऊंगा।

पहाड़ी रास्तों से गुजरते, खिड़की से झांकते यही सोच रहा था..कि कितना कुछ छूट रहा है, एक ये कि आपको चूड़ियों का सेट ना दे पाना।
साथ ही पहाड़ों की ये हवा..बादलों की सिहरन, ठंडा मीठा पानी..आप लोगों के बीच मिला स्नेह,ये सब मुझे कहीं और नहीं मिल सकता, ये मुझे अच्छे से पता है।
लंबा सफर था तो बीच-बीच में मेरी झपकी लग जाती..मैंने देखा कि खाली पहाड़ी रास्ता है कहीं यू टर्न भी नहीं है तो भी ड्राइवर हार्न बजा रहा है।
एक बार मैंने ध्यान से ड्राइवर को देखा तो पता चला कि जब आसपास कहीं कोई मंदिर दिखता है तो गुजरते हुए उसको नमस्ते करने के स्वरूप में वो हार्न बजाता है।
सारा गुस्सा एक झटके में मुस्कुराहट में तब्दील हो गया।
खैर...
पता है इन दिनों मैंने जो देखा उसमें एक बड़ी बात ये भी थी कि पहाड़ों में इतना कठिन जीवन होने के बाद भी किसी के चेहरे में एक निराशा का भाव देखने को नहीं मिलता।
मानवीय मूल्यों को इस बदलते आर्थिक-सामाजिक परिदृश्य में सहेजकर रखना कोई आप लोगों से सीखे।
आप सभी को मेरा नमन,ढेर सारा स्नेह।