Monday, 26 August 2024

हमें दिलीप मंडल होने से खुद को बचाना होगा -

दिलीप मंडल पेशे से एक मीडियापर्सन रहे हैं। जहां तक जानकारी मिली शायद काॅलेज में पढ़ाया भी है। राष्ट्रीय स्तर पर खासकर हिन्दी पट्टी के सभी बड़े चैनल पोर्टल आदि में तो एक जाना माना चेहरा है ही। लेकिन यह पहचान कैसे मिली। यह पहचान मिली सोशल मीडिया से। यहीं से उन्होंने अपने आपको मजबूती से स्थापित किया। जिन्होंने उनको इतना बड़ा बनाया। उन्होंने भी उनका पत्रकार और प्रोफेसर वाला बैकग्राउंड ही देखकर उन्हें एक चिंतक एक सामाज के पहरुआ के रूप में ऊपर किया। 

दिलीप मंडल विगत एक दशक से एक पेशेवर सोशल मीडिया एक्सपर्ट की भूमिका में सक्रिय रहे हैं। बहुत से अलग-अलग मुद्दों पर अपनी बात रखते रहे हैं, जिस पर सहमति असहमति हो सकती है। लेकिन जिस तरह की सोशल मीडिया की एक फौज दिलीप मंडल लेकर चले, जैसी उनकी फालोइंग रही, वैसा कोई दूसरा उस स्तर तक नहीं रहा। ट्विटर फेसबुक में एक तरह से एक उनके कहने पर लाखों पोस्ट ट्विट के साथ ट्रेंड होते रहे हैं, राष्ट्रीय स्तर पर भूचाल मचाने का काम किया है। ट्रोल आर्मी नहीं थी, आम लोगों की आवाज की तरह एक उनकी अदृश्य फौज थी। एक बार तो सोशल मीडिया के आव्हान से ही भारत बंद जैसा भी कुछ किया था, सिर्फ और सिर्फ सोशल मीडिया की अपनी मजबूत फालोइंग के दम पर। संक्षेप में यह कि दिलीप मंडल मुद्दों को अपने हिसाब से जनमानस में भुनाने की ताकत रखते थे। 

कुछ लोगों का इस पर यह कहना है कि सवर्ण नहीं हैं इसलिए उनका चौतरफा विरोध हो रहा, यह भी इसमें देखने लायक है कि कोई ऐसा सवर्ण हुआ ही नहीं जिसने दिलीप मंडल के स्तर को छुआ हो, बतौर मीडियापर्सन अपनी पीछे ऐसी समर्थन करने वालों का संख्याबल विकसित की हो, और इतने कम समय में इतने सारे ज्वलंत मुद्दों को मजबूती से डिस्कोर्स बनाने में सफल हुआ हो। इसलिए भी लोग लपेट रहे हैं। बंदे का अस्तित्व था इसलिए रेल बनाई जा रही है। 

एक बार एक पाॅडकास्ट में दिलीप मंडल कहते हैं - सोशल मीडिया आपको ऐसा अहसास कराता है कि सब तुम ही चला रहे, तुम ही भगवान हो। लगता है वे इस खतरे को भांपते भांपते भी भाप नहीं पाए। इसका उदाहरण अभी उनके हाल के ही कुछ पोस्ट में देखने को मिल जाता है। एक समय था जब दिलीप मंडल ट्रोल्स को भाव तक नहीं देते थे, लोगों ने उनसे ट्रोल को मैनेज करना, नजर अंदाज करना सीखा। दिलीप खुद कहा करते - ट्रोल होने जरूरी है, वे आपके असली शुभचिंतक हैं, उन्हें पालकर रखिए, उन पर गुस्सा मत करिए। वे कहते - अगर आपके पास ट्रोल हों तो मेरे पास भेज दीजिए। 1000 से ज़्यादा फ़ॉलोवर्स वाले और धमकी देने वाले ट्रोल को मैं विशेष सम्मान से रखूँगा। ब्लॉक न किए जाने की लिखित गारंटी। गारंटी कार्ड लेना न भूलें। ट्रोल बहुत ज़रूरी होते हैं। ट्रोल के बिना सोशल मीडिया चल ही नहीं सकता।

लेकिन आज देखिए कैसे चीजें बदल गई। जो दिलीप मंडल लोगों को ट्रोल मैनेजमेंट सीखाया करते। आज वही ट्रोल के हाथों खुद आसान शिकार बन रहे हैं। अजीत भारती और जुबैर जैसे लोगों को फुल टाॅस देकर हर गेंद पर चौके छक्के खा रहे हैं जबकि स्किप कर सकते थे। दिलीप मंडल चाहते तो इतना कुछ होने के बाद भी चुप रहकर नजरअंदाज कर लेते, इससे उनकी थोड़ी बहुत इज्जत बनी रहती। लेकिन ये अपनी ही कही गई बात को अपने ही ऊपर लागू नहीं कर पाए। उल्टे ट्रोल्स को जवाब देते फिर रहे हैं, जिसकी जरुरत ही नहीं थी। इसके साथ ही उन्होंने बहुत सारे पुराने ट्विट पोस्ट डिलीट कर दिए, लेकिन सोशल मीडिया का जमाना है, लोगों ने पहले ही सबूत के तौर पर चीजें इकट्ठी कर ली और उनका यह दांव भी विनाशकाले विपरित बुध्दि की तर्ज पर बहुत भारी पड़ गया। लोगों को आश्चर्य हो रहा है कि दिलीप इतनी बड़ी गलती कैसे कर गया, इस पर यही कहना है कि ऐसे लोग अपने ही छद्म अहंकार में आकंठ इस कदर डूब चुके होते हैं कि इन्हें एक समय के बाद खुद का सही गलत पता नहीं चलता है। 

कुछ लोगों का इस पर यह भी कहना है कि सवर्ण नहीं हैं इसलिए उनका चौतरफा विरोध हो रहा, इसमें यह भी देखने लायक है कि कोई ऐसा सवर्ण हुआ ही नहीं जिसने दिलीप मंडल के स्तर को छुआ हो, बतौर मीडियापर्सन अपनी पीछे ऐसे समर्थन करने वालों का संख्याबल विकसित किया हो, और इतने कम समय में इतने सारे ज्वलंत मुद्दों को मजबूती से डिस्कोर्स बनाने में सफल हुआ हो। इसलिए भी लोग लपेट रहे हैं। बंदे का अस्तित्व था इसलिए रेल बनाई जा रही है। 

अंत में यही कि दिलीप मंडल की भाषा में हमेशा एक बैचेनी, एक दुराग्रह, एक आवेशित आक्रोशित करने वाला, जबरन उन्मादी बनाने वाला भाव अधिक महसूस हुआ चाहे वे जिधर से भी बैटिंग करते रहे। ठहराव नहीं दिखा, सुकून जैसी चीज नहीं दिखी चाहे जितने सुकोमल विषय पर बात कर लें। अधिकतर इस तरह के लोगों के भाषा में यह एक चीज आपको एकसमान मिलती है कि ये हमेशा उकसाने वाली ही भाषा बोलते हैं, इसी एक चीज से इस तरह के तमाम लोगों को फिल्टर कर सकते हैं। वे व्यक्तिगत जीवन में जैसे भी हों लेकिन 99% आबादी जो सोशल मीडिया में उन्हें देखती है उनके लिए दिलीप मंडल का होना एक डंडा लेकर हांकने वाले से ज्यादा कुछ नहीं रहा। विडंबना देखिए कि वही लोग आज खुद डंडा लेकर दौड़ा रहे हैं। और ये तथाकथित वाम प्रगतिशील इस पूरे घटनाक्रम का मजा ले रहे हैं। हिन्दी पट्टी के सोशल मीडिया के इस पूरे एक दशक के इतिहास में यह अपने आप में एकलौती घटना है, जिसमें हर कोई मजबूती से एक सधी हुई भाषा में एक व्यक्ति को सीधे अस्वीकार कर रहा कि जाओ हमें नहीं चाहिए आपका ज्ञान, अपनी दुकान बंद करो। हमें चाहिए कि ऐसी घटनाओं से सीख ली जाए और कभी भी जीवन में अतिवादिता को न चुना जाए, खराब भाषा न बोली जाए। वरना जिस डंडे से आप लोगों को मजे से हांक रहे हैं, एक दिन लोग खुद उसी डंडे से आपको भी हांककर आपका किला ध्वस्त कर सकते हैं।

Saturday, 24 August 2024

खान-पान के तरीके

इंसान सभ्यता के विकास में जब जंगल से समाज की दूरी तय हुई। जब इंसान घर बनाकर रहने लगा, खेती पशुपालन करने लगा। इसी क्रम में भोजन करने के तौर-तरीके विकसित हुए। शाकाहारी और मांसाहारी खाने का वर्गीकरण हुआ। इन दोनों प्रकार के भोजन के तरीकों के प्रभाव को देखा गया। पुराने समय से ही लोगों ने सोने की वजह, खाना बनाने की जगह और निवृत होने की जगह में अच्छी खासी दूरी रखी। गांवों में आज भी घरों में अगर कहीं नाॅनवेज बनाते भी हैं तो घर अंदर के किचन में नहीं बनता है, बाहर बनता है, और इतनी दूरी रहती ही है कि उसकी आंच आबोहवा घर तक, घर के कमरों तक न आए। इन सब का फर्क पड़ता ही है। मैं खुद कभी कभार खा लेता हूं, आजकल तो वैसे बहुत कम‌ हो गया है। लेकिन इस बीच पिछले लगभग दो साल से यह एक प्रयोग करके देखा कि जहां रहते हैं, वहां आमिष भोजन न पकाया जाए। इसका बड़ा फायदा हुआ, सोच विचार के स्तर पर होता ही है। शायद पुराने लोगों ने यह सब करके देखा होगा तभी वे एक दूरी रखते थे। 

अपराध के मायने

अनिल अंबानी जो एक तरह से घोषित फ्राॅड की कैटेगरी में रहा है। जिस पर 8800 करोड़ के हेरफेर के आरोप लगे। हाल फिलहाल में सेबी ने अनिल अंबानी पर सिक्योरिटीज मार्केट से 5 साल का बैन लगाया और 25 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया। यानि जितना बड़े स्केल का अपराध उतनी ही कम सजा। सजा भी केवल ऊपरी दिखावे के लिए ताकि बहुसंख्य लोगों के भीतर न्याय को लेकर आस्था बनी रहे। वैसे आजकल ऐसी खबरें देखकर खुद पर हंसी आती है। ऐसा लगता है कि न्याय कानून जैसी चीजें इन जैसे लोगों के लिए बनी ही नहीं है। हम लोग भी कहां उलझे रहते हैं। सरे बाजार में कोई किसी का पर्स या चेन चुरा लेता है, या कुछ पैसे चुराकर कोई भागता है, उसकी सरे आम कुटाई होती है और फिर उसे महीनों जेल में सढ़ाया जाता है। ऐसे व्यक्ति के लिए कानून है, हवालात है। लेकिन हम सब की गाढ़ी कमाई से जाने वाले टैक्स का ही 8800 करोड़ गबन करने वाला सूटबूट पहना अमुक व्यक्ति हमें कभी अपराधी नहीं लगता है। क्योंकि वो सामूहिक लूट मचाता है, उसका लूट अदृश्य है, उसके द्वारा की गई लूट हमें किश्तों में मारती है, पूरी हमारी एक पीढ़ी को सामाजिक आर्थिक रूप से तोड़ देती है, हमारे पारिवारिक कलह का हमारे व्यक्तिगत मानसिक अवसाद का कारण बनती है। और ऐसे बड़े अपराधी द्वारा की जा रही लूट से पैदा हुआ निर्वात और उस निर्वात से जन्म लेती अस्थिरता ही तो ऐसे राह चलते छोटे अपराधियों को जन्म देती है। जिस दिन हम ऐसी बातों को समझ जाएंगे उस दिन हमें यह भी समझ आएगा कि नोटबंदी जीएसटी जैसे कदम भारत के आम नागरिकों के साथ किया जाने वाला सबसे भयावह रेप था जिसकी सुनवाई कभी नहीं होगी।

Friday, 2 August 2024

वायनाड भू-स्खलन और गृहमंत्री के दावे

वायनाड में भारी बारिश और बादल फटने से चौतरफा लैण्डस्लाइड हुआ है। दो तीन गांव पूरी तरह से चपेट में आकर मलबे में तब्दील होकर बह चुके हैं। 300 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। हिमाचल के रामपुर में भी लैण्डस्लाइड की वजह से 50 से अधिक लोग लापता हैं, इसी क्रम में उत्तराखण्ड में 11 से अधिक मौते हो चुकी हैं।

आपदा अनेक प्रकार से आती है। पिछले एक दशक में बादल फटने और बाढ़ की घटनाएं बढ़ी है। जिन राज्यों ने कभी यह सब देखा भी नहीं था, वहां भी आपदा वाली स्थिति निर्मित हुई है। कारण प्राकृतिक असंतुलन कहें या कुछ और, यह सब कुछ हो रहा है।  मैं खुद अलग-अलग तरह की आपदा का साक्षी रहा हूं, इसलिए जमीनी यथार्थ की थोड़ी बहुत समझ है। कुर्ग वायनाड क्षेत्र की बाढ़ देखी है, उत्तर कर्नाटक में आई बाढ़ को भी करीब से देखा है, वहां तो बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में काम करते हुए टायफायड भी हो गया था। उत्तराखण्ड में बादल फटने को सामने से देखा है, नल फटने के कारण दो दिन तक पीने का पानी नसीब नहीं हुआ था, बारिश का पानी बाल्टी में लगाकर गर्म कर पीना पड़ा था। इसके अलावा उड़ीसा में साइक्लोन फनी का भुक्तभोगी रहा हूं, जहां 32 घंटे तक सिर्फ पानी पर जीवित था।

वायनाड की त्रासदी अभी हालिया घटनाओं में सबसे भयानक है। वायनाड की आपदा को लेकर कुछ दिन पहले गृह मंत्री अमित शाह का बयान आया - हमने सप्ताह भर पहले ही अलर्ट की सूचना राज्य सरकार को दे दी थी, अगर वे समय रहते कदम उठाते और लोगों को सुरक्षित जगह में पहले ही रेस्क्यू करते तो स्थिति बेहतर होती। इसके अलावा गृह मंत्री जी ने उड़ीसा और गुजरात के साइक्लोन के समय का उदाहरण देते हुए कहा कि उस समय उन्होंने पहले ही अलर्ट जारी किया था जिस कारण से जान माल का किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं हुआ। गृहमंत्री जी की चतुराई देखिए कि उन्होंने कभी पूर्वोत्तर के बाढ़ भूस्खलन या हिमाचल उत्तराखण्ड के भूस्खलन का उदाहरण नहीं दिया क्योंकि हकीकत वे भी जानते हैं। गृह मंत्री जी ने जिन राज्यों का उदाहरण दिया उनकी उस बात से पूरी सहमति है कि उसका यथोचित पालन हुआ। क्योंकि उड़ीसा के साइक्लोन में खुद मैंने यह चीज देखी है। कुछ दिन पहले हमें खुद नोटिस मिल‌ गया था कि जो उड़ीसा के स्थानीय लोग नहीं हैं वे अपने घर चले जाएं।

लेकिन पेंच यहां‌ फंसता है कि क्या आप साइक्लोन की तुलना लैण्डस्लाइड से कर सकते हैं? क्या आप हवा की गति की तुलना अतिवृष्टि से कर सकते हैं। दोनों अपनी प्रकृति में बहुत अलग चीजें हैं। जिनको जानकारी नहीं है उन्हें बताया चलूं कि साइक्लोन जब आता है, बहुत पहले ही अलर्ट कर दिया जाता है, यह भी पता रहता है कि एक सीमित अनुमानित क्षेत्र में तेज हवाएं चलेंगी। साइक्लोन फनी जब आया था, कुल जमा एक घंटे तक तेज हवाएं चली थी, कई बार यह 15 मिनट भी होता है। उस एक घंटे के दौरान 150 से 220 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से हवा चली। उसी में सब तहस नहस हो गया, 70% पेड़ ध्वस्त हो गये। सरकार राहत कार्य में लग गयी थी। राजधानी भुवनेश्वर में ही बिजली बहाल होने में 10 दिन लगे थे। साइक्लोन की पूर्व तैयारी बहुत अलग तरह की होती है, इसमें आप जान माल की सुरक्षा बहुत हद तक कर सकते हैं। आपको बस उस एक दो घंटे तक अपनी सुरक्षा करनी होती है।

लेकिन लैण्डस्लाइड और बाढ़ के साथ मामला बहुत अलग है। बाढ़ का पानी एक बार चढ़ता है, कई-कई दिन तक उसका प्रकोप बना रहता है, चौतरफा नुकसान करता है, द्विगुणित हो जाता है। गंदे पानी से बीमारियों का प्रकोप अलग। बाढ़ को पहले से मिले अलर्ट से भी ट्रैक नहीं किया जा सकता। कितना नुकसान करेगा, कहां तक जाएगा, कुछ नहीं कह सकते। हवा और पानी में इतना अंतर तो होता है, हवा का क्या है, कुछ घंटे बहकर शांत हो जाती है, पानी को तो जमीन में ही रहना है, नुकसान करती जाती है। ये सब एकदम कामनसेंस वाली बात है।

लैण्डस्लाइड का मामला तो और खतरनाक है, एक बार बादल फटा उसके बाद कितना पहाड़ गीला हुआ है, कहां तक की मिट्टी दरकते हुए आगे नुकसान करेगी, इसका ठीक-ठीक अनुमान एक अलर्ट से हो ही नहीं सकता है, इसके लिए संयुक्त रुप से काम करने की जरुरत होती है। एक अलर्ट भर दे देने से और मुंह मोड़ लेने से नहीं होता है।

क्या गृहमंत्री इस बात का जवाब दे पाएंगे कि उन्होंने क्या इस बात का अलर्ट दिया था कि कब भारी वर्षा होगी?
क्या वे यह बता पाएंगे कि कब किस दिन किस घंटे बादल फटेगा?
क्या वे यह बता पाएंगे कि ठीक किस पहाड़ी के ऊपर बादल फटेगा और कितने गांव प्रभावित होंगे?
क्या उन्होंने इसकी सूचना दी कि कौन सी मिट्टी नरम है और कहां से लैण्डस्लाइड होगा?

सच बात तो यह है कि ऐसी घटनाओं का पूर्वानुमान लगा लेने से काम नहीं बजता है। इसके लिए संयुक्त प्रयास करने होते हैं। भारी बारिश का पूर्वानुमान देने वाले मिट्टी के बारे में जानकारी नहीं दे सकते, इसके लिए भू-विज्ञान विभाग बताएगा, अकेले मौसम विभाग क्या करेगा। इसीलिए लैण्डस्लाइड जैसी आपदा के लिए बिना संयुक्त प्रयास के आप सिर्फ अलर्ट पाकर कुछ नहीं कर सकते है। मुझे समझ नहीं आता है गृहमंत्री स्तर का व्यक्ति साइक्लोन के अलर्ट को लैण्डस्लाइड के अलर्ट से कैसे तुलना कर सकता है। ये सरासर असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है। जिसने 300 से अधिक लोगों की जान ले ली।

#standwithwayanad