Thursday, 16 November 2023

काला जादू

काले जादू, टोने-टोटके को लेकर बहुत सी मान्यताएं चलती है, एक बड़ा तबका जिसने खुद इन सब चीजों को झेला हो, वह इन चीजों को दबे छिपे स्वीकार करता ही है, वहीं वैज्ञानिकता और तर्क के अनुगामी इन सब बातों को फिजूल मानते हुए सीधे नकारते हैं। यह भी एक सच है कि कालांतर में टोने-टोटके के नाम पर, सिर्फ शक के आधार पर बहुत सी महिलाओं के साथ मारपीट और दुर्व्यवहार होता आया है और इस कारण से इन मामलों के लिए कानून भी सख्त हैं। 

मैंने बहुत से ऐसे परिवार या ऐसे लोग देखे हैं या आपने भी देखा ही होगा जो भले इस काले जादू को तर्क से काटते हुए दकियानूसी मानते हैं, लेकिन यही लोग अपने बच्चों की बुरी नजर से सुरक्षा के लिए काला टीका, काला धागा, ताबीज आदि का सहारा लेते हैं। यह भी देखने में आता है कि बचपन में बहुत से ऐसे बच्चे रहते हैं जो किसी के देख लेने, छू लेने भर से लंबे समय तक बीमार पड़ जाते हैं फिर लंबे समय तक कोई डाॅक्टर उन्हें ठीक नहीं कर पाता लेकिन एक झाड़ फूंक से तत्काल ठीक हो जाते हैं। 

काले जादू की प्रामाणिकता को लेकर बहुत सी बातें चलती है। जिसमें सबसे पहला यह कहा जाता है कि काला जादू करने वाली महिलाएं या पुरुष दीया लेकर आधी रात को आमावस्या में खेतों में अकेले विचरण करने निकलते हैं। मेरे बहुत से विश्वस्त लोगों ने और मैंने खुद यह घटना देखी है, लेकिन अभी के लिए मैं इसे आंखों का भ्रम या फिर यह मानकर चल रहा हूं कि अंधेरे में निवृत होने के लिए दीये का सहारा लिया होगा। दूसरा एक कारण यह बताया जाता है कि ये आपसे ज्यादा देर तक आँख नहीं मिला पाते हैं, इसे भी मैंने साक्षात अनुभव किया है, लेकिन इसे भी हम यह मानकर चलते हैं कि अंतर्मुखी स्वभाव के होंगे इसलिए किसी से नजर नहीं मिला पाते होंगे। तीसरा जो एक बड़ा कारण देखने में आता है वो यह है कि ये लोग जब भी किसी को, खासकर छोटे बच्चे को एकटक देख लेते हैं, उनकी तारीफ कर लेते हैं या फिर उन्हें छूकर कुछ कह जाते हैं या किसी के द्वारा खाने का कुछ दिया जाता है, ऐसी स्थिति में वे बच्चे इतने लंबे समय तक बीमार पड़ते हैं कि खूब डाॅक्टरों का चक्कर लगाना पड़ता है, फिर किसी से झाड़ फूंक करवाने पर एकदम झटके में ठीक भी हो जाता है। 

मैंने ये वाली समस्या इतनी ज्यादा देखी है, इतने लोगों को बीमार होते देखा है कि आजतक इसे किसी तर्क से काट नहीं पाया। इस बीच बहुत से ऐसे लोग मिलते हैं जो पुरजोर तरीके से वैज्ञानिक सोच की बात करते हुए इन सब चीजों का मखौल बनाते हैं, लेकिन यही लोग पूरे स्वाद के साथ विदेशों की पैराॅनार्मल एक्टिविटी आधारित फिल्में पूरे मन से स्वीकारते हुए देखते हैं, लेकिन काले जादू को सिरे से नकारते हैं। जिनके खुद के यहाँ बच्चे बीमार पड़ते हैं, ये खुद चोरी छिपे इस सच्चाई को स्वीकारते ही हैं कि कुछ लोग जबरदस्त तरीके से तंत्र विद्या का सहारा लेकर नजर लगाते हैं। मैं खुद इसका भयानक भुक्तभोगी रहा हूं लेकिन तर्क की सत्ता कायम रहे इस कारण से ऐसी चीजों का बखान करना कभी न्यायसंगत नहीं लगता है, इसलिए कभी करूंगा भी नहीं। लेकिन हमें इस चीज पर एक बार जरूर विचार करना चाहिए कि कुछ तो ऐसा होता है जो तर्क से परे होता है, जिसे आप तर्कों की कसौटी में कभी नहीं बाँध सकते हैं। दुनिया वैज्ञानिक तर्कों से आगे की चीज है। 

Tuesday, 14 November 2023

20 क्विंटल प्रति एकड़ धान - किसानों की कब्रगाह

एक एकड़ यानि 1.6 बीघा। इतनी जमीन में छत्तीसगढ़ राज्य की सरकार जो पहले 15 क्विंटल प्रति एकड़ धान की खरीदी करती थी, वह 20 क्विंटल खरीदेगी, इसकी घोषणा वर्तमान राज्य सरकार ने पहले ही कर दी थी, साथ ही यह भी कहा कि इस बार 2800 रुपये प्रति क्विंटल में खरीदी की जाएगी। विपक्ष ने अभी चुनाव के पहले कहा है कि वह 21 क्विंटल खरीदेगी और 3100 रुपये प्रति क्विंटल का समर्थन मूल्य देगी। अब तक यह समर्थन मूल्य प्रोत्साहन राशि मिलाकर 2640 रुपये था, जिसमें 2040 रुपये केन्द्र सरकार और 600 रुपये राज्य सरकार की प्रोत्साहन राशि है। इसमें भी इस बार केन्द्र सरकार का बढ़ा हुआ समर्थन मूल्य 143 रुपये जोड़ दिया जाए तो वर्तमान न्यूनतम समर्थन मूल्य 2183 ऐसे ही हो गया, और इसमें पहले की प्रोत्साहन राशि यानि 600 रुपये जोड़ दिया जाए तो 2783 रुपये पहले ही हो चुका है, यानि अब राज्य सरकार को अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए मात्र 17 रुपये अतिरिक्त देने होंगे, इसके अलावा 15 से 20 क्विंटल प्रति एकड़ धान खरीदी का दबाव अलग।

लगभग 6-8 महीने पहले जब राज्य सरकार ने 20 क्विंटल प्रति एकड़ धान खरीदी की घोषणा की थी, तब इसका सब तरफ स्वागत किया गया, किसान हितैषी फैसला कहा गया, लेकिन एक कोई ऐसा नहीं रहा जो इसके दुष्प्रभावों को बता सके। अभी विपक्ष जब इसी को 21 क्विंटल तक लेकर जा रहा है, तब भी इसे त्यौरियां चढ़ाकर किसानों के हित में कहा जा रहा है।

मूल बात यह है कि कोई भी खेत, जिसमें आप बिना रासायनिक खाद के धान उगाएंगे वह एक एकड़ में 15 क्विंटल तक भी धान की उपज नहीं दे सकता है। यह तथ्य है। अब सोचिए 20 से 21 क्विंटल की रेस चल रही है। अब इससे यह होगा कि अधिक से अधिक उपज पाने के एवज में अंधाधुंध रासायनिक खाद डाले जाएंगे, मिट्टी जो पहले से जहर झेल रही है, उसे और अधिक जहरीला बनाने की कवायद जोरों शोरों पर होगी, धान के बीज बनने की गुणवत्ता पर भी असर होगा, कुल मिलाकर किसान पिसेगा, किसान क्या पिसेगा, जमीन पिसेगी। और अंत में उसकी जेब में थोड़े पैसे ज्यादा आ जाएंगे लेकिन बदले में आप हम बुजुर्ग बच्चे हम सभी की थाली में वही रासायनिक खाद युक्त अन्न परोसा जाएगा और इतनी हल्के स्तर की सौदेबाजी में हमारा स्वास्थ्य हमसे छीन जाएगा।

ऐसे महान फैसलों के साथ सत्ता संभालने वाले किसान हितैषी सरकारों को दंडवत् प्रणाम। 🙏

Tuesday, 7 November 2023

लोकतंत्र - एक किराए का मकान

सन् 1992 के बाद उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण का दौर आया, जिसे एक बड़ा आर्थिक सुधार कहा गया। बड़े जोर शोर से इसे प्रचारित प्रसारित किया गया और कहा गया कि भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को दुनिया के लिए खोल दिया। इस तरह से कहा गया कि मानो 1947 से 1992 तक जितने भी लोग हुए उन्हें तो जैसे इस बात की समझ ही नहीं थी। आजादी के बाद से अब तक एक आम आदमी की जीवनशैली को, या यूं कहें कि उसकी जेब को उसकी तिजोरी को सीधे प्रभावित करने वाली यह एक बड़ी परिघटना थी। तब से लेकर अब तक इसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर लंबी चर्चाएं हुई हैं, अंततः मिला-जुलाकर इसे मोटे तौर पर देश के लिए, देश के लोगों के लिए सकारात्मक ही कहा गया है। लेकिन मेरा बहुत मजबूती से यह मानना है कि इस एक बड़े बदलाव ने भारत के लोगों के हाथ से बालिश्त भर लोकतंत्र झटके में छीन लिया, लोग तब से लेकर अब तक इन 31 सालों में  सामाजिक आर्थिक मानसिक हर तरह से बेहद कमजोर हुए हैं, और कमजोर होने की यह प्रक्रिया उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है। हर गुजरते साल यह और अधिक महसूस होता है। आज जो यह सुनने में आता है कि भारत की अर्थव्यवस्था में 90% धन भारत के सिर्फ 5-10% लोगों के पास है। 1992 की नीति की यह परिणीति है जो आज हमारे सामने है। 

भारत के आम आदमी को हमेशा इस बात को समझना चाहिए कि जिस तरह का हमारा देश है, उसमें हमेशा यह कोशिश करनी चाहिए कि सरकार अधिक से अधिक आर्थिक रूप से मजबूत रहे न कि कोई निजी संस्था। निजी संस्था एक बेलगाम पागल हाथी की तरह होते हैं और हमेशा इनका चरित्र ऐसा ही रहेगा, उन्हें आप नियंत्रित नहीं कर सकते हैं, लाभ अर्जित करना जितना अंतिम लक्ष्य हो, उनका चरित्र लोककल्याणकारी कभी नहीं हो सकता है। और  सरकार के पास अमीरी होती है, तो उसकी अमीरी देर सबेर लोगों तक आ ही जाती है, और इससे आम लोगों के जीवन में हस्तक्षेप भी कम होता है। आज स्थिति यह है कि सरकार की तथाकथित निजी संस्थाएं हमारे दरवाजे तक क्या हमारे घर के भीतर तक नजर बनाए हुए हैं, हमें इस हद तक बेतहाशा लोकतंत्र नहीं चाहिए जो पैसा फेंक तमाशा देख की तर्ज पर सुविधाएं मुहैया कराए, इसके दूरगामी परिणाम भयावह होते हैं। आज भोजन, आवास, रोजगार और जीवनशैली के तमाम पहलुओं को देखें तो हर तरह से हमें कमजोर किया जा रहा है लेकिन इस मुफलिसी की, इस गुलामी की हमें कोई खबर नहीं है। हमें समझना होगा कि सिर्फ मुद्रा संचित करना ही अमीरी का पर्याय नहीं होता है। मुद्रा के ईर्द-गिर्द घूमने वाले लोकतंत्र से लोग अमीर नहीं बल्कि कमजोर और गरीब होते जाते हैं।

एक बड़े परिप्रेक्ष्य में हम देखें तो लोकतंत्र अब आम नागरिकों के लिए एक किराए के कमरे की तरह हो चुकी है। लोगों की न अपनी कोई जमीन है, ना उनका अपना कोई वजूद है, लोगों के पास सिर्फ एकमात्र विकल्प है कि वह बेहतर से बेहतर किराया चुकाते हुए अपना जीवन यापन करें। बड़ा हो या छोटा, अमीर हो या गरीब, इस कमजोर हो रहे लोकतंत्र की आंच सब तक पहुंच रही है। लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस किराए के मकान रूपी लोकतंत्र में वह अपना जीवन यापन कर रहा है, वह उसमें कपड़ा टांगने के लिए कमरे के किसी कोने में ज्यादा से ज्यादा कील ठोक सकता है वह भी ड्रिल मशीन से, और अपने मुताबिक भीतर के कमरों में रंग रोगन कर सकता है, ताकि उसे थोड़ा बेहतर महसूस हो, इससे अधिक उसे स्वतंत्रता नहीं है। कमाते रहिए पैसे, करते रहिए नौकरी व्यापार और जोड़ते रहिए सामान, घर, पैसा और जमीन और इस तरह से दिन रात खुद को खपा दीजिए, लेकिन कभी जीवन में चैन नहीं पाएंगे, स्वतंत्रता का सुख क्या होता है आजीवन नहीं समझ पाएंगे क्योंकि आपके हमारे हिस्से के लोकतंत्र को तो पहले ही कमजोर कर दिया गया है, एक तरह से एक बड़ा हिस्सा छीन लिया गया है। हम लोकतंत्र के इस भयावह स्तर तक पहुंच चुके हैं। 1992 की नीतियों को यह कहा गया कि उससे अर्थव्यवस्था पटरी पर आ गया लेकिन वास्तविकता में तो इसने एक तरह से आग में घी डालने का ही काम किया, जिसकी लपटें आज हमें तबाह किए हुए हैं, ऐसी आग लगी है कि बुझने का ना‌म ही नहीं लेती, इससे बेहतर तो यह होता कि उस वक्त हम एक रोटी कम खाकर अपने हिस्से का लोकतंत्र खुद बचा लेते। कम्प्यूटर फोन केएफसी डोमिनो हमें शेष दुनिया से देर से मिलता, कोई समस्या नहीं थी।

लेकिन हमारे साथ एक समस्या है, हमें हमेशा एक हीरो चाहिए होता है। कल एक फिल्म देख रहा था, उसमें एक किरदार ने यह कहा कि भारत के लोगों को हमेशा एक हीरो जैसा इंसान चाहिए जो उनको अपने हिसाब से घेरता रहे और बजाता रहे, लोगों को अपनी बजाने में मजा सा आता है। फिल्म का वह किरदार एक प्राइवेट प्लेयर था, जो कि एक फ्राॅड था, लेकिन उसे आज भी लोग भगवान की तरह मानते हैं। इसमें भी मेरा यह कहना है कि अगर आम लोगों का शोषण भी होता है तो वह सरकारी तंत्र के माध्यम से ही हो, क्योंकि सरकार से बड़ी विश्वासपात्र और कोई नहीं होती है। आज भी कोई सरकारी नौकर या कोई व्यापारी अपने जीवन के अंतिम दिनों में अपना पैसा सरकार के ही खाते में ही क्यों दान कर जाता है, क्योंकि वह लोकतंत्र की तासीर को समझता है, उसे पता होता है कि गड़बड़ी तो हर जगह है लेकिन सरकार के हिस्से पैसे जाएंगे तो पैसा देर सबेर आम लोगों के बीच ही बंटेगा, कुछ गिने चुने निजी लोगों की हिस्सेदारी उसमें नहीं होगी। 

इति।

Friday, 3 November 2023

दुःखों का साम्य

एक दुःख झेले हुए व्यक्ति को हमेशा ऐसे व्यक्ति का हाथ थामना चाहिए जिसने खुद जीवन में उसी मात्रा में दुःख को देखा हो, जीया हो, सहा हो। कई बार ऐसा होता है कि एक बहुत संघर्ष और दुःखों की यात्रा कर एक सरल जीवन यापन करने तक पहुंचने वाला व्यक्ति एक ऐसे व्यक्ति का हाथ थाम लेता है जिसने जीवन में न्यूनतम स्तर का संघर्ष भी नहीं देखा होता है। ऐसी स्थिति में एक समय के बाद रिश्तों में निर्वात पैदा होने लगता है, भले ऐसा व्यक्ति व्यवहार कुशल हो, नेक हो, लेकिन एक समय के बाद होता यह है कि एक जिसे दुःख या तकलीफ मानता है और उम्मीद करता है कि सामने वाला उसमें इतनी मात्रा में सहानुभूति जताए लेकिन सामने वाले के लिए तो अमुक दुःख, एक दुःख की श्रेणी में आ ही नहीं पाता है, उसके लिए तो मानो दुःखों की परिभाषा ही अलग है और इसमें उसकी कोई गलती भी नहीं है क्योंकि शायद उसने कभी जीवन को इस तरह से देखा ही नहीं होता है। इसीलिए रिश्तों में हमेशा इस एक बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि अमुक व्यक्ति का, जीवनसाथी का, दुःखों को लेकर, संघर्ष को लेकर, जीवन की तमाम विद्रूपताओं को लेकर आखिर क्या दृष्टिकोण है।