Friday, 29 September 2023

भोजन के प्रति सहजता

अपने उद्भव के समय से ही मनुष्यों के लिए नियमित भोजन पाना एक चुनौती रहा है। इसलिए उसने एक जगह रहकर व्यवस्थित तरीके से खेती करना शुरू किया ताकि उसे नियमित रूप से भोजन मिल सके। 1970-80 के दशक के लोग जो अभी 50 वर्ष या उससे अधिक उम्र के होंगे, उनमें और उसके बाद की पीढ़ी में एक बहुत बड़ा अंतर भोजन को लेकर दिखता है। पुरानी पीढ़ी के लोग भोजन के समय को लेकर बहुत सजग रहते हैं क्योंकि उन्होंने भोजन पा लेने के पीछे के संघर्ष को इस पीढ़ी से कहीं ज्यादा देखा है। तब के समय में समाज के हर एक वर्ग के लिए इतना आसान नहीं हुआ करता था कि उसे दो वक्त का भोजन भरपूर पोषक तत्वों के साथ मिल सके, अभी की तरह भोजन में दो तीन सब्जियाँ और सलाद, दिन में दो तीन बार नाश्ता, या जो मन किया बाहर हल्का फुल्का कुछ खा लेना होता ही नहीं था, विकल्प ही मौजूद नहीं थे। मितव्ययी समाज रहा, और तब क्रयशक्ति भी सीमित थी, विनिमय जोरों पर था क्योंकि वैसी सामाजिकता थी और उसके अपने बहुत फायदे थे, अगर किसी प्रकार की कोई कमी या गरीबी थी, उसे वह एक समय के बाद साध लेता था, हड़बड़ी नहीं थी, उस स्थिति में भी मनुष्य के पास इतना आत्मबल था कि वह ठीक-ठाक तरीके से जैसे-तैसे जीवन यापन कर लेता था, उसे टूटने बिखरने नहीं दिया जाता था।

साधन सीमित थे और उसी में से ही भोजन पाना होता था और प्रकृति के खिलाफ जाकर कोई क्रूरता नहीं की जाती थी, मशीनें हावी नहीं हुई थी तो भोजन हमेशा से संघर्षों के बाद मिलने वाली चीज रही। तब हाइब्रिड नामक जंजाल शुरू नहीं हुआ था तो जिस मौसम में जो मिल जाता था उसी का सेवन कर लिया जाता था लेकिन 1991 के उदारीकरण के दौर के पश्चात् भारत के कृषि आधारित समाज में आमूलचूल बदलाव देखने को मिले, भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को दुनिया के सामने खोल दिया, जिसका सीधा प्रभाव हमारे भोजन पर, संस्कृति पर, या यूं कहें सीधे हमारी जीवनशैली पर पड़ा। जिस आर्थिक-सामाजिक संस्कृति को हजारों वर्षों से लोग पोषित, संवर्धित कर अगली पीढ़ी को स्थानांतरित कर रहे थे, वह पिछले दो दशकों में ही आज हाशिए पर है। बहुत ही कम समय में अमीरी का दूसरा नाम मुद्रा का अधिक से अधिक संकलन हो गया। रोजमर्रा की छोटी-छोटी जरूरतों के लिए बाजार पर हमारी निर्भरता आसमान छू रही है, श्रम नेपथ्य में है। 

अभी के समय में भोजन आपको हमको एक क्लिक में उपलब्ध है। आप अपने फोन में एक क्लिक करते हैं और किसी जादू की तरह बाहर से डिब्बा बंद खाना आपके लिए तैयार होकर आ जाता है। इससे पहले कभी मनुष्यों के लिए भोजन इतनी सहज वस्तु नहीं हुई। लोग बाहर का खाना क्या होता है यह जानते तक नहीं थे। शायद कहीं घूमने निकल गए तो महीने में कभी बाहर खा लिया तो बहुत बड़ी बात होती थी, वरना कहीं घूमने भी जाते थे तो अपने भोजन के लिए साजो-समान और उतने दिन का राशन, ये सारी चीज़ें अपनी गाड़ी में लेकर चलते थे। वैसे कुछ लोग, जिसमें पुरानी पीढ़ी के लोग शामिल हों, अभी भी इस परंपरा का निर्वहन करते हैं। अभी कल ही एक भरी हुई बस रास्ते में दिखी, पूछने पर मालूम पड़ा कि वे लोग सप्ताह भर के लिए तीर्थाटन करने निकले हैं। सबसे बढ़िया बात यह कि वे भोजन की पूरी व्यवस्था लेकर चल रहे हैं, बड़े-बड़े डेक में चालीस पचास लोगों के लिए रोड के किनारे ही एक जगह खाना बन रहा था, साथ में दो तीन खानसामा भी थे, खाने की खुशबू भी बिल्कुल वैष्णव पध्दति की तरह ठीक वैसी जैसे आपको किसी मंदिर या भंडारे में मिलती है। और उस बस में सफर करने वालों में हर उम्र के लोग दिखे, अच्छा लगा कि कम से कम बच्चों की स्मृति में यह संस्कृति समाहित हो रही है। देखकर खुशी हुई कि थोड़ा ही सही लोग कहीं भी जाएं, भोजन पकाकर खाने की यह संस्कृति अभी भी अपने स्तर पर निभा रहे हैं।

अभी वर्तमान में जहां बाहर का खाना खाना हमारे रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा है ऐसी स्थिति में समय पर भोजन कर लेना एक उपलब्धि की तरह हो चुका है। भाग दौड़ और हाइब्रिड रूपी गलाकाट प्रतियोगिता के इस जमाने में जहां हर मौसम में दूसरे मौसम की सब्जियां उपलब्ध है, हर ताजे मौसमी फल का जूस डिब्बों में बंद होकर वर्ष भर उपलब्ध है। ऐसे में नियत समय पर अच्छा भोजन ग्रहण करना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। इस एक चुनौती ने तो मानो अमीर और गरीब का भेद ही खत्म कर दिया है, लोगों को समझ ही नहीं आता है कि वह भोजन के रूप में क्या ग्रहण करने जा रहे हैं। जब से भोजन मिलना जितना अधिक सर्वसुलभ हुआ है उसके प्रति उतनी अधिक उदासीनता बढ़ी है। आज ऐसी स्थिति है कि लोगों के पास अमीरी तो आई है ( खैर, मेरी नजर में तो गरीबी और गुलामी का तरीका बस बदला है ), क्रयशक्ति बढ़ी है, मुद्रा का प्रवाह बढ़ा है, मशीनों से हम घिर चुके हैं, लेकिन हमारा आत्मबल बेहद कमजोर हुआ है, हमारा धैर्य तुरंत जवाब देने लगता है।

शरीर का अपना मेकेनिज़्म अद्भुत है। जैसे हम शरीर को कोई भोजन देते हैं, शरीर की जैसी व्यवस्था है, वह उस हिसाब से उस भोजन से अपनी काम की चीज उठा लेता है, और बाकी फेंक देता है, जरूरी नहीं कि वह हमेशा काम की चीज संपूर्णता में लेता हो। ये ठीक उसी तरह की व्यवस्था है, जैसे हमारे यहाँ एक तकिया कलाम चलता है कि " सुनो सबकी, करो अपनी "। यानि आपने जैसे विचार के स्तर पर किसी की पूरी बात सुनी, लेकिन आपने अपनी जरूरत के हिसाब से, उस समय आपकी जैसी समझ और क्षमता रही उस लिहाज से अपने काम की चीज उठा ली, बाकी छोड़ दिया। शरीर की पूरी आंतरिक व्यवस्था ऐसे ही चलती है। आप ढेरों पोषकतत्व वाली चीजें शरीर को देते रहिए, अगर मन शरीर और ये पूरी व्यवस्था एक लय में नहीं है तो वह उन पोषकतत्वों को किसी अच्छे विचार को सुन कर अनसुना कर देने की तर्ज में निकाल बाहर करता रहेगा।

कैलोरी कार्ब फैट आदि नापने के लिए मोबाइल में एप्प आ चुका है, मनुष्य खुद अपनी एक-एक गतिविधि की सतत् माॅनिटरिंग करा रहा है। भोजन की सर्वसुलभता इस हद तक अपने चरम पर है कि हम क्या भोजन करते हैं इसकी कैलोरी भी नापने लगे हैं, कितने तरह के विटामिन अपने शरीर को दे रहे हैं इसकी भी गणना करने लगे हैं। तकनीक की इंतहाई कहिए कि वह शरीर की प्राकृतिक व्यवस्था तक को चुनौती दे रहा है। लेकिन क्या सचमुच इस सबसे हमको कोई दूरगामी लाभ हो रहा है, क्या हमें और हमारे शरीर को वास्तव में सही पोषक तत्व मिल पा रहे हैं, क्या हम वास्तव में एक स्वस्थ शरीर को धारण कर रहे हैं, क्या सचमुच हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ी है, इतनी तकनीक और सुविधाओं के बावजूद क्या हम समय पर भोजन कर पा रहे हैं, क्या हम जीवन के प्रति सहज हुए हैं, अगर ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है तो यह वाकई चिंता का विषय है जिस पर हमें विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।



Sunday, 24 September 2023

काइयां है जरूरी

एक परिचित हैं। उम्र में मेरे ठीक दुगुने हैं। गजब मेहनती, तंदुरूस्त, भोजन और स्वास्थ्य के प्रति गजब की सजगता। लेकिन शायद मेरे अलावा दुनिया का हर दूसरा आदमी इन्हें जमकर गरियाता है। अगले का स्वभाव ही ऐसा है। कुछ समय तक मैं भी इन्हें गरियाने वालों में से एक था लेकिन अब मैं ऐसा बिलकुल नहीं करता हूं। और ये हमेशा पता नहीं क्यों खासकर मेरे से अच्छे से सहज होकर पेश आते हैं, मैं भी उनका बराबर सम्मान करता हूं।

अब गरियाने की वजह पर आते हैं। एक शब्द होता है "काइयां"। तो आजतक आपने जितने भी काइयां अपने अभी तक के जीवन में देखे होंगे, ये उनके भीष्म पितामह हैं। छोटे-छोटे ठेले वालों को इतना तंग कर देते हैं कि अगला विवश होकर इन्हें छूट दे देता है, जबकि इनकी मासिक पेंशन उस ठेले वाले की कुल वार्षिक आय से अधिक होगी। लेकिन इनसे कौन जीते। अभी हाल ही में शहर में एक जगह दृष्टिबाधित लोगों का शिविर लगा, उन सभी के लिए भंडारा लगा था, इनको पता चल गया, ये उसमें भी भोजन करने चले गये और यह जानकारी उन्होंने खुद मुझे दी कि फलां जगह भोजन करके आया हूं, स्वादिष्ट खाना था। अब यह सुनकर मैं मुस्कुरा ही सकता था। 

हममें से लगभग हर कोई सब्जियां लेने बाजार जाता है। ये महाशय हमेशा शाम को ठीक दिन ढलने के वक्त जाते हैं, कारण आप समझ गये होंगे, उस दौरान हर कोई बाजार समेट रहे होते हैं तो बची खुची सब्जियां मुंह मांगी कीमत पर बहुत सस्ते में मिल जाती है। जब से मुझे यह तथ्य पता चला, मैं इस तथ्य की गहराई पर गया तब मैंने सोचा कि इन जैसे लोगों का भी समाज में होना बेहद जरूरी है, ये अगर नहीं होंगे तो उन सब्जियों का उपयोग आखिर कौन करेगा। उस दिन से मैंने उन्हें गरियाना छोड़ दिया और उनका प्रशंसक बन गया। सनद रहे, एक काइयां कभी भोग नहीं करता, और इसलिए एक काइयां व्यक्ति जब दुनिया छोड़ कर जाता है तो सबसे अधिक पूंजी दूसरों के लिए पीछे छोड़ जाने वाला वही होता है। 

Thursday, 21 September 2023

My take on CGPSC 2022 Controversy

राज्य लोक सेवा आयोग के भूतपूर्व अध्यक्ष साहब ने असल में कुछ नया नहीं किया है। परंपरानुसार ही काम किया है‌‌। हां, ये जरूर है कि अति की है। हर कोई अपने बच्चों के लिए रास्ते बनाता है, यह सर्वविदित है, हर कोई करता है। लेकिन कोशिश ये रहती है कि मामला कम से कम विवादित रहे। जैसे इन्होंने सबको सीधे डिप्टी कलेक्टर का पद दे दिया, ठीक उसी तरह कई लोग अपने बच्चों के लिए किसी विभाग से आजीवन टेंडर का मामला सेट कर देते हैं या व्यापार संबंधी कोई और विकल्प तैयार कर देते हैं। लेकिन उसमें विवाद कम होता है, क्योंकि वहां प्रतियोगिता कम है। ठीक वहीं प्रतियोगी परीक्षाओं में, जिसमें जाने के लिए लाखों लोग अपना पैसा, अपनी जीवनी ऊर्जा फूंक रहे हैं, मारकाट मची हुई है, उसमें भी सबसे हनक वाले मलाईदार पदों को छीन के ले लेना वाकई हिम्मत का काम है, या यूं कहें कि दोयम दर्जे का काम है। पहले भी यह होता रहा है लेकिन इस बार इतना खुल के सामने आने का कारण यह भी है कि साहब सबको पीएससी से चयन करवा दिए, एक दो को ठेका दिलवा देते, एनजीओ वगैरह का मामला सेट कर देते, थोड़ा मामला बैलेंस रहता। लेकिन अब सबका अपना-अपना तरीका है, अपनी-अपनी भूख, कोई किसी की मानसिकता तो नहीं बदल सकता है। असल में जब किसी व्यवस्था में भले वह जुगाड़ की हो या ईमान से काम करने की, जो एक परंपरा बन जाती है, उस परंपरा को तोड़ना इतना आसान नहीं होता है, जो भी आता है, उसी परंपरा के मुताबिक काम करता है। अभी संभवतः चुनाव के बाद जो भी नये वाले अध्यक्ष पद पर आएंगे वे भी कुछ नया नहीं कर देंगे, हो सकता है प्रतिशत में इनसे कम जुगाड़ वाली परंपरा का निर्वहन करें। लेकिन चलेगा वही जो चलता आ रहा है। बाकी देखते हैं पुराने वाले साहब के लिए प्रभु की झोली में क्या है।




हाईकोर्ट ने पीएससी मामले में क्या किया - चयन पर सवाल उठाया और कड़ी टिप्पणी की। अब इस कड़ी टिप्पणी में भी अगर अभ्यर्थियों को न्याय होता दिखता है तो इस पर अब क्या ही कहा जाए। " हाइकोर्ट ने कड़ी टिप्पणी की, शर्म करो पीएससी" यह वाक्य कहकर विपक्षी नेता भी सोशल मीडिया में खानापूर्ति कर छात्रों की भावनाओं का मखौल बना रहे हैं। सब कोई अपनी दुकानदारी में व्यस्त हैं, छात्र हताश निराश परेशान, उसे समझ ही नहीं आ रहा कि आखिर क्या ही करे। हाईकोर्ट भी मनोरंजन देने में, इस जख्म को नासूर बनाने में कोई कमी नहीं कर रहा है। जज का इस पूरे मामले में भोले मासूम की तरह " अरे! ये तो बहुत गलत बात है " ऐसा कहना न्याय की आस लिए लोगों के मुंह में जोरदार तमाचा है। छात्र तो मानों इनके लिए कीड़ा मकोड़ा है, मतलब एकदम तमाशा बना दिए हैं। गांधी बाबा कोर्ट को ऐसे ही नहीं गरियाता था। इस देश में पीएससी व्यापम सरकारी संस्थाओं से सबसे अधिक भ्रष्ट कोई है तो वो न्यायपालिका है। इस सच को जितनी जल्दी स्वीकार लें, सेहत के लिए उतना ही बेहतर।

अगली सुनवाई - 5 अक्टूबर 
आचार संहिता - 6 अक्टूबर ( संभवतः )

सुनवाई की तारीख भी मजेदार है, ठीक आचार संहिता के एक दिन पहले। इसी से अंदरखाने की हकीकत को देखा समझा जा सकता है, खैर। दो सप्ताह का समय, अंदरखाने में खूब उठापटक होगी, जाँचकर्ता कौन- राज्य शासन, इन्हीं के हाकिम इन्हीं के मुल्ज़िम वाली बात, सो चमत्कार की उम्मीद तो कम है, लेकिन कुछ भी हो सकता है। कुल मिला के अब मामला बहुत दिलचस्प हो गया है, अब देखना यह है कि क्या कोर्ट सुनवाई को किसी ठोस फैसले में तब्दील करेगा या हमेशा की तरह स्वांत: सुखाय की तर्ज पर राज्य शासन की जय करते हुए खुद को किनारे कर लेगा।

नितेश के पिता का नाम राजेश है, वह टामन सोनवानी का पुत्र ही नहीं है, शिक्षाकर्मियों का उध्दार करने वाले अधिवक्ता सिद्दीकी साहब के इस इस्तक्षेप याचिका से jolly llb फिल्म याद आ गई। जिसमें अरसद वारसी बेबस होकर कहता है कि कार ने नहीं ठोकी थी जज साहब, वो तो ट्रक था, जो कि एक साल बाद ट्रेन हो जाएगा। इसी तर्ज पर कल जाकर देश काल परिस्थिति को देखते हुए नितेश भाई को अनाथ भी घोषित किया जा सकता है और प्रज्ञा नायक नारी निकेतन से गोद ली हुई बालिका भी बनाई जा सकती है।




सोनवानी साहब ने जो किया है, उसकी जितनी तारीफ की जाए वह कम है। इस वाक्य को पढ़कर शायद बहुत लोगों को व्यक्तिगत होकर मुझे अपशब्द कहने का खूब मन करेगा, कह भी सकते हैं, आपके विवेक पर, लेकिन यह भी ध्यान रखें कि जिसे आप अपशब्द कहेंगे उसने पिछले दस साल में आपसे बड़े बड़े भुक्तभोगी देखे हैं जिनका जीवन ही तबाह कर दिया गया, या जो भले आज व्यवस्था में किसी पद पर हैं, लेकिन उन्हें नंबर ही नहीं दिया गया, वरना वे आज किसी और पद पर होते। आज से दस पंद्रह साल पहले भी लोग आवाज उठाते थे कि आखिर इतना अच्छा पेपर लिखने के बावजूद कैसे इतना कम नंबर मिला, इंटरव्यू में इतना कम कैसे दिया, लेकिन उस समय ऐसे लोगों को जमकर अपमानित किया जाता था, उनकी योग्यता पर सवाल खड़ा किया जाता था, जबकि वे उस समय वही कर रहे थे, जो आज अधिकतर लोग सोशल मीडिया में कर रहे हैं, इस पूरी व्यवस्था पर सवाल उठा रहे हैं। सवाल पिछले बीस साल से उठाए जा रहे हैं, नया नहीं है। इंटरव्यू में इस बार एक जिस अभ्यर्थी को बुलाया ही नहीं गया, ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं, ये कोई नई घटना नहीं है, जो पहली बार देख रहा है, जाहिर है उसे आश्चर्य होगा ही। 2003 से कम अधिक यही चल रहा है लेकिन कभी ऐसे खुलकर इतना उजागर नहीं होता था, और तब तो सोशल मीडिया भी नहीं था तो लोगों को उतना पता ही नहीं चल पाता था। प्री तक पास नहीं किए रहते ऐसे लोगों का भी चयन होता रहा है, एक बार हाईकोर्ट ने दबोचा था तो चयनित छात्र सुप्रीम कोर्ट से मामला सेट करवा लिए। आप क्या ऐसे लोगों से लड़ लेंगे जो सुप्रीम कोर्ट का भी इस्तेमाल कर लेते हैं, आप नहीं लड़ सकते हैं, भाई हमारी हैसियत नहीं कि अपना परिवार, अपना जीवन दांव पर लगाकर इनसे लड़ लें, आपकी पहुंच है तो आप लड़ लें। दूसरी बात ये कि अगर आपकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि कमजोर है, आपकी पहुंच नहीं है, आप भरसक तैयारी कर लें, आपको नीचे किया ही जाएगा, ये विधान है, और यही रहेगा। आप व्यवस्था को नहीं बदल सकते हैं। 

सोनवानी साहब ने इसी व्यवस्था के परंपरानुसार खुल कर ठोक पीट के काम करते हुए व्यवस्था रूपी इस पूरे मवाद को सबके सामने लाने का काम किया है, जो काबिल ए तारीफ है। उन्होंने अपने काम से यह दिखाया है कि भैया ऊपर से लेकर नीचे पूरी व्यवस्था ऐसी ही है और आज नहीं तो कल आपको इस कटु सत्य को स्वीकारना ही पड़ेगा। सोनवानी साहब ने एकदम ठेठ देसी अंदाज में काम किया इसलिए सब कुछ सामने दिख गया, यूपीएससी जैसी संस्थाओं में इनके गॉडफादर बैठे रहते हैं जो इनसे कहीं अधिक शातिर होते हैं, वे पूरी सेटिंग कर स्वर्ग भी सिधार चुके होंगे लेकिन उन्होंने कितनों का जीवन तबाह किया होगा, ये शायद आपको हमको इस जन्म में पता ही नहीं चले, तो उनकी तुलना में तो सोनवानी साहब बहुत ईमानदार हैं, कम से कम इनका किया धरा सब कुछ आपको हमको सामने दिख तो रहा है। 

अस्तु।

Sunday, 17 September 2023

Psychological similarities in approaching cgpsc mains and engineering theory exams -

इंजीनियरिंग के फाइनल सेमेस्टर में मुझे 83% मिला था। कैसे मिला, यह खुद मेरे लिए आजतक जाँच का विषय है। क्योंकि मैंने ऐसे ऐसे उत्तर लिखे थे कि अगर मेरा पेपर आउट किया जाए तो अभी जो राज्य सेवा परीक्षाओं में "आईने दहशाला" का उत्तर वायरल हो रहा है। कुछ एक वैसा मिल जाएगा, स्तर उससे बेहतर होगा, उतना हवा हवाई भी नहीं होगा, खैर। और ऐसा करने वाला मैं अकेला नहीं था, एक बहुत बड़ी आबादी यही करती थी, इसमें भी कोई दो राय नहीं कि अपवाद स्वरूप बहुत लोग वास्तव में मेहनत भी करते थे, लेकिन उसके बदले उन्हें वैसा मिलता नहीं था। पेपर में फेंकने की स्किल की बात करें तो ये एक दिन में डेवलप नहीं हुई, ये कला भी मुझे देर से समझ आई। 

हमारे सीनियर्स कहा करते - देखो बालक, अपराधबोध तो होगा लेकिन पूरा पेपर भर के आना है, जो पढ़ के गये हो, उसे ही मिला जुला के लिख आओ, कहानी गढ़ो, चेक करने वाले को उलझाओ, उसे भी काम निपटाना है और तुम्हें भी। पेपर के शुरूआती पेज में पूरी ईमानदारी से उत्तर लिखो, यहाँ फेंकने का काम थोड़ा भी न हो, यह सुनिश्चित करो। फेंकने का काम वहाँ शुरू करो जहाँ चेक करने वाले की आंखें थकने लगे, वहां उसे छंकाओ। बड़े प्रश्नों में भी शुरूआत और अंत सही रखो, बीच में खेलो। लेकिन अंतिम लक्ष्य यह कि पेपर भरा हुआ दिखना चाहिए, गंभीरता दिखनी चाहिए कि तुम्हें थोड़ा थोड़ा सब आता है, दिखना चाहिए कि तुमने प्रयास तो किया, मैदान छोड़कर भागे तो नहीं, और पेपर बहुत ज्यादा भी नहीं भरना है लेकिन खाली भी नहीं दिखना चाहिए और यह सब काम सुंदर राइटिंग में करो। सीमित समय रहता है, ज्यादा माथापच्ची करोगे, ईमानदारी से लिखूंगा सोचोगे तो कभी पूरा पेपर ढंग से लिख ही नहीं पाओगे, ह्यूमन ब्रेन की वर्किंग केपेसिटी को समझो, पेपर चेक करने वाले भी इस हकीकत को जानते हैं, इसलिए वे भी काम चलाओ वाले मोड में रहते हैं। यही हकीकत है पार्थ, इस हकीकत को स्वीकारो और अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ो। 

यहाँ आप देखेंगे कि राज्य सेवा परीक्षाओं की मेंस की तैयारी में और इंजीनियरिंग की पढ़ाई में पेपर लिखने के पीछे के इस मनोविज्ञान में काफी समानताएं हैं। पिछले कुछ सालों में इंजीनियरिंग क्षेत्र के बहुत सारे लोगों का सिविल सेवा में चयन होने का कारण गणित नहीं बल्कि ये कला है, जिसमें वे बहुत पहले से निपुण होते हैं, जिस कला को सीखने में एक नाॅन-इंजीनियरिंग छात्र को काफी समय लग जाता है। मैंने भी जब यह कला सीखी तो तब तक काफी देर हो चुकी थी, छठवां सेमेस्टर आ चुका था। तब लाइब्रेरी में बैठकर जहाँ सब कोई इंजीनियरिंग की किताबें पढ़ा करते, मैंने नावेल चाटना शुरू किया, चूंकि हिन्दी मीडियम का छात्र रहा और पेपर अंग्रेजी में लिखना होता, तो भाषा की मजबूती पर, उसकी स्वच्छता पर काम किया। क्योंकि पेपर भरने के लिए भी एक अच्छा कहानीकार होना जरूरी है, और उसके लिए आपके पास एक कसी हुई भाषा का होना बेहद जरूरी है। इसलिए जैसे ही कालेज खत्म होता, लाइब्रेरी में जाकर बैठ जाता, मैंने उस दौरान खूब नावेल पढ़े, हर तरह के नावेल पढ़े, कोर्स बुक पढ़ने वाले कोई दोस्त यार पास से गुजरते तो हंसा करते कि अबे साले सप्ताह भर बाद पेपर है, रात को यहां बैठ के ये क्या पढ़ रहा है। इंजीनियरिंग के आखिरी सेमेस्टर तक मैं इस विद्या में निपुण हो चुका था, और जब मैंने इस विद्या का बढ़िया से उपयोग किया तो इसके परिणाम मेरे सामने थे। वो दिन है और आज का दिन है, तब से मैंने इस कला का उपयोग हमेशा के लिए बंद कर दिया।

Wednesday, 13 September 2023

Mantak Chia wisdom words

Que. If the goal is to build up one's sexual energy, what's the harm of sleeping with a lot of different women (or men) to increase your Life energy? 

Ans : The goal is not to build up one's sexual energy—it is to transform raw sexual energy into a refined subtle energy. Sex is only one means of doing that. Promiscuity can easily lower your energy if you choose partners with moral or physical weakness. If you lie with degenerates, it may hurt you, in that you can temporarily acquire your partner's vileness. By exchanging subtle energy, you actually absorb the other's substance. You become the other person and assume new karmic burdens. This is why old couples resemble each other so closely: they have exchanged so much energy that they are made of the same life-stuff. This practice accelerates this union, but elevates it to a higher level of spiritual experience.  So the best advice I can give is to never compromise your integrity of body, mind and spirit. In choosing a lover you are choosing your destiny, so make sure you love the woman with whom you have sex. Then you will be in harmony with what flows from the exchange and your actions will be proper. If you think you can love two women at once, be ready to spend double the life energy to transform and balance their energy. I doubt if many men can really do that and feel deep serenity. For the sake of simplicity, limit yourself to one woman at a time. It takes a lot of time and energy to cultivate the subtle energies to a deep level. It is impossible to define love precisely. You have to consult your inner voice. But cultivating your life energy sensitizes you to your conscience. What was a distant whisper before may become a very loud voice. For your own sake, do not abandon your integrity for the sake of physical pleasure or the pretense that you are doing deep spiritual exercises. If you sleep with one whom you don't love, your subtle energies will not be in balance and psychic warfare can begin. This will take its toll no matter how far apart you are physically until you sever or heal the psychic connection. It's better to be honest in the beginning. For the same reason make love only when you feel true tenderness within yourself. Your power to love will thus grow stronger. Selfish or manipulative use of sex even with someone with whom you are in love can cause great disharmony. If you feel unable to use your sexual power lovingly, then do not use it at all! Sex is a gleaming, sharp, two-edged sword, a healing tool that can quickly become a weapon. If used for base purposes, it cuts you mercilessly. If you haven't found a partner with whom you can be truly gentle, then simply touch no one. Go back to building your internal energy and when it gets high you will either attract a quality lover or learn a deeper level within yourself.

Monday, 4 September 2023

135 days around india - A Film

 About the Film

Compiling such long journeys in a form of film is indeed a complicated task, but somehow i made it. This film is a tale of a 135-day odyssey that spanned 16,000+ kilometers, touching 11 states across India. It takes u on an extraordinary journey, not merely across geographical landscapes or historical monuments, but into the depths of the human experience.

I witnessed the ever-changing landscapes, from the majestic Himalayas to the sun-kissed dry terrains, remote villages to bustling metro cities. But this film is not just about the picturesque beauty of India; it's about the people i encountered along the way. Each state has its own unique culture, language, food and hospitality. The film captures the essence of these interactions, as strangers become friends and stories intertwine.

This film is a tribute to the indomitable human spirit, the unquenchable thirst for adventure, and the courage to embrace the unknown. It is a metaphor for the relentless pursuit of one's dreams, the willingness to break free from the ordinary, and the discovery of the extraordinary within.

In the end, this cinematic piece leaves u with a profound sense of wonder and inspiration. It will remind u that the world is vast and full of untold stories, waiting for those brave enough to embark on their own epic journeys. The film on my 135-days long, All India solo winter ride is a testament to the human spirit's boundless capacity to explore, to endure, and to find meaning in the adventure called life.

Stay tuned....