एक लड़का रहा, वह जब भी ट्रेन से सफर कर घर से आता, स्टेशन से हमेशा कुछ किताबें खरीद लाता, वह कितना पढ़ता नहीं पढ़ता मुझे पता नहीं लेकिन साथ रहने वाले उस लड़के की वजह से मुझ खुरापात इंसान को विवेकानंद, चाणक्य और कुछ कुछ लोगों की किताबें पढ़ना नसीब हुआ, बाद में वही लड़का अपने दूर की मासी की बेटी से अफेयर के चक्कर में पुलिस केस तक झेला।
एक और लड़का रहा, उसके जिस्म में लगे टैटू से लेकर कमरे की दीवारों तक हर जगह भगत सिंह छाए हुए थे, भगत सिंह की किताबों और उनके विचारों की भले उसे उथली जानकारी थी लेकिन भगत सिंह का फैन था बंदा। चूंकि मैं कभी एक जगह लंबे समय तक नहीं रहा तो जगह बदलने के पहले किताबें बाँट दिया करता, इसे भगत सिंह वाली किताबें दे दी। एक दिन मुझे यह लड़का दारू पीकर एक महिला से बदतमीजी करते हुए मिला, मैं सुलह न करवाता तो शायद पुलिस केस तक की नौबत आ जाती।
एक महिला मित्र रही, खूब सामाजिक सोच की अपने को दिखाती रही, अमृता प्रीतम मानो उनके रग रग में बसती हों। मेरी सामाजिकता को हथियार बनाते हुए बड़े शौक से गंभीर चर्चाएं करती, मुझे हमेशा से शक रहा कि असली छवि यह नहीं है, एक दिन महिला ने मुझे बताया कि एक लड़की प्रेगनेंट है, उम्र 17 है, लड़का धोखा दे रहा है, उसे लड़के से बदला लेना है, कानूनी सलाह चाहिए, ऐसी कुछ अतिभावुक कर देने वाली कहानियाँ परोसती रहीं। इन सब कहानियों को सुनाने के पीछे जो मकसद छुपा था, वह जब पता चला, मुझे संपर्क खत्म करना पड़ा, मुझे पता नहीं था कि लोग इस हद तक हिंसा और दोगलेपन को जी सकते हैं।
एक और महिला मित्र रहीं, पढ़ाई में बहुत तेज। एक प्लेटफार्म में लघु कहानियाँ लिखते रहे, वहीं बातें हुई। महिला मित्र ने अपने आप को दुनिया की सबसे दुखियारी महिला की तरह पहले दिन से प्रोजेक्ट किया, चूंकि अलग-अलग राज्य के रहे, तो मैंने पलटकर कभी कुछ नहीं पूछा, महिला मित्र को कुछ समय के लिए कुछ किताबें चाहिए होंगी, बहुत जरूरी किताबें थी इतनी जरूरी थी कि मुझे वो किताबें वापस चाहिए थी, कौन सी किताबें थी, यह बताना जरूरी नहीं समझ रहा हूं। तो हुआ यूं कि समय गुजरने के बाद मैंने महिला मित्र को कहा कि किताबें मुझे चाहिए थी, हो सके तो लौटा दीजिए। महिला मित्र ने महीने भर तक गोल गोल घुमाया, परिवार के सदस्य की गंभीर बीमारी की बात कही। मैंने जब अपने स्तर पर पता किया तो बीमारी अस्पताल वाली बात झूठ निकली, मेरे पैरों तले मानो जमीन खिसक चुकी थी।
एक और मित्र रहे। मित्र बहुत ही बढ़िया मस्तमौला इंसान। साथ में हमने पढ़ाई की। मित्र की सारी चीजें बहुत बढ़िया रही। लेकिन उनके साथ बस एक ही दिक्कत रही कि वे लंगोट के कच्चे रहे, हर दूसरे दिन उनका नाड़ा ढीला। बनना उनको लाट साहब था, बातें भी बड़ी-बड़ी लेकिन दिन रात लड़कियों का जिक्र। साल भर अलग-अलग प्रेम संबंधों में ही लिप्त रहते, मुझे भी दिन रात लव गुरू की तरह यही सब के बारे में प्रवचन दिया जाता, लेकिन मेरी आदत रही कि मैंने कभी ऐसे लोगों को गंभीरता से नहीं लिया इसलिए अप्रभावित ही रहा। बंदे में हिंसा नहीं थी, मेरे प्रति कभी खराब व्यवहार नहीं रहा इसलिए मित्रवत रिश्ते बने रहे, फिर एक दिन मित्र ने मेरे ही आसपास के महिला मित्रों को निशाने पर लेना शुरू कर दिया, उनसे जबरदस्ती संपर्क करना बातें करना शुरू किया, जब मेरी जानकारी में यह बात आई तो मैंने मित्र को बिना बताए हमेशा के लिए दूरी बना ली, मैं आजीवन उनको वजह नहीं बताऊंगा कि मैं उनसे क्यों दूर हुआ हूं। वे सही गलत का आँकलन स्वयं कर लें।
एक करीबी महिला मित्र रहीं। हमारी अच्छी दोस्ती थी, अब नहीं है। मैं जब भी उसके घर जाता, पानी के गिलास में पानी पीने से लेकर सोफे में बैठने तक हर जगह मैंने जातिगत शुचिता का भाव उनके घरवालों में देखा जिसे मैंने हमेशा नजर अंदाज ही किया क्योंकि मैंने पहले भी ऐसा कई घरों में देखा हुआ है। एक दिन महिला मित्र की सरकारी नौकरी लगती है, उनका इंटरव्यू रहता है, मुझे फोन आता है कि स्टेशन लेने आ जाऊं और वहीं से आफिस तक छोड़ जाऊं वरना इंटरव्यू मिस हो जाएगा और नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है, अब चूंकि घर के अन्य पुरूष सदस्य सुबह उठ नहीं पाएंगे और आफिस तक नहीं ले जा पाएंगे इसलिए मुझे कहा गया। मैंने उस वक्त यह नहीं सोचा कि इतना गंभीर मसला है, और घरवाले सुबह नहीं आ सकते। खैर, वह समय ऐसा था कि मैं अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा था, मानसिक स्थिति ऐसी थी नहीं कि इतना कैलकुलेशन करता, फिर भी मैंने कभी अपने ऐसे समय में भी किसी को मदद के लिए ना नहीं किया। स्टेशन जाने पर मित्र ने कहा कि घर छोड़ दूं, घरवाले ही आफिस छोड़ देंगे। जिसे मुझे दुनिया की सबसे बड़ी इमरजेंसी कहकर एक दिन रात से तंग करने की हद तक फोन किया गया, वह इतनी सामान्य बात थी कि मुझे वह सारा कुछ भीतर तक कचोट गया। महिला मित्र चाहती तो सच कह देती कि सुबह आकर घर छोड़ देना लेकिन इतना प्रपंच क्यों रचा गया, यह समझ नहीं आया। मैंने कभी पलटकर पूछने की जरूरत नहीं समझी क्योंकि बाद में मुझे सब समझ में आ गया था। असल में कई बार बहुत छोटी-छोटी घटनाएँ ही काफी होती हैं। और फिर मैंने खुद से एक दिन यह सवाल पूछा कि क्या अमुक व्यक्ति को मैं अपने सुख में या दुःख में याद करता हूं, जवाब नहीं में आया और फिर मैंने हमेशा के लिए उनसे दूरी बना ली।
To be continued....