Thursday, 29 October 2020

हम क्यों घूमना चाहते हैं?

पिछले कुछ समय से जितने भी वाॅटरफाल देखा, उनमें से सबसे खूबसूरत और सबसे अधिक गंदगी वाला वाॅटरफाल यही था। गंदगी के पीछे पहला कारण ये कि ये घने जंगल के बीचों बीच है तो मंदिर बन नहीं सकता, कोई पुजारी लगातार समय नहीं दे सकता, यानि कोई रोक टोक नहीं। दूसरा और सबसे बड़ा कारण गंदगी का है - "एक छत्तीसगढ़ी गाना" । साल भर पहले यानि जून 2019 में एक गाना यहाँ शूट किया जाता है, बहुत सुंदर गाना, संगीत की लयबध्दता भी उतनी ही शानदार, मतलब ये पहला ऐसा छत्तीसगढ़ी गाना होगा जिसे देश दुनिया के लाखों लोगों ने पसंद किया। मजे की बात ये कि जब उस गाने की शूटिंग हुई थी तब इस वाॅटरफाल में एक बूंद पानी नहीं था, यानि उस पूरे गाने में वाॅटरफाल जैसा कुछ दिखा ही नहीं। फिर भी उस गाने के रिलीज होने के बाद से गंदगी का ग्राफ ऐसा बढ़ा कि उसने इस मामले में गाने के व्यूवर्स के बढ़ते ग्राफ को भी पीछे छोड़ दिया।उस जगह घूमने जाने वाले अधिकांश लोगों की मानसिकता यही रही कि हम एक ऐसे जगह में घूमने जा रहे जहाँ एक गाने की शूटिंग हुई है, ऐसा लद्दाख में हुआ, शिमला, मनाली, नैनीताल में हुआ‌, ये लिस्ट बहुत लंबी बनाई जा सकती है।

असल में हम जहाँ कहीं भी जाते हैं, हम गंदगी करते नहीं हैं, हमसे हो जाता है, हमारी जीवनशैली (खान-पान के तरीके आदि) इतनी भयावह तो हो ही चुकी है कि हमारी उपस्थिति मात्र ही किसी जगह को नुकसान पहुँचाने के लिए काफी होती है।



Thursday, 22 October 2020

असली चोर कौन?

1947 के बाद से भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के तीन स्तंभों में अगर किसी स्तंभ के हिस्से थोड़े बहुत आजादी और लोकतांत्रिक मूल्यों के तत्व आए, तो वह सिर्फ और सिर्फ व्यवस्थापिका थी। इसके ठीक उलट कार्यपालिका वैसी ही चलती रही जैसी आजादी के पहले थी और समय के साथ और सढ़ती गई , इसे आप सशक्त होती गई, ताकतवर होती गई मानकर चलें। जबकि व्यवस्थापिका और कमजोर होती गई। इसलिए आज भी जब मौका पड़ता है, लोग आगे आकर " नेता चोर हैं" , "संसद में चोर उचक्के बैठते हैं" , "इन्होंने देश बेच दिया" ऐसे वाक्य कहते हुए सारा ठिकरा व्यवस्थापिका पर फोड़ते हैं। लोग बात-बात पर थोक के भाव में नेताओं को, संसद को चोर की संज्ञा दे जाते हैं। अब चूंकि लोकतांत्रिक मूल्य इन्हीं के पाले में आए तभी तो आज भी जनता बिना खौफ के इनके साथ उठने बैठने का साहस रखती है, गलती दिखी तो सवाल कर लेती है, डांट लेती है, गालियाँ करती है, उनके घर के बाहर धरना देती है, ज्यादा हुआ तो इनके कपड़े पर स्याही छींट देती है और मौका पड़े तो जूता फेंक के मार भी देती है।

लेकिन वहीं देखिए कार्यपालिका के तत्व यानि सरकारी नुमाइंदों (कर्मचारी, अधिकारी आदि) को कभी चोर की संज्ञा नहीं दी जाती है, भले वे पद में रहते हुए आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे रहें, कितने भी करोड़ों अरबों रूपयों का सांठ गांठ करते रहें, निलंबित होते रहें, लोगों की जिंदगी तबाह करें, समाज की अवनति का मूल कारण बनते रहें फिर भी वे समाज की नजर में सम्मानीय होते हैं, पूजनीय होते हैं, और तो और उन्हें निडर और मजबूत व्यक्ति की संज्ञा भी मिल जाती है।

दारू, रूपया, साइकिल बाँटने वाले नेता आज चुनाव प्रचार में जनता के सामने कोरोना की वैक्सीन बाँटने की बात कर रहे हैं, आप फिर वही करेंगे, नेताओं को गरियाएंगे, लेकिन यह क्यूं भूलते हैं कि ऐसे उलूल-जूलूल आइडिया उन्हें कोई सचिव स्तर का अधिकारी ही दे रहा होता है, सब कुछ उन्हीं का किया कराया होता है, नेता तो महज कठपुतली मात्र होता है, कार्यपालिका जैसा उसे नचाती है, वैसा वह नाचता है। लेकिन चूँकि लोकतंत्र है, नेता चुन कर आता है तो सर्वोच्चता के नाम पर उसे ही आगे कर दिया जाता है तो आपको भी यही महसूस कराया जाता है कि देश की सारी समस्याओं के पीछे नेता जिम्मेदार हैं।

नेताओं के पास गलतियाँ करने के बहुत कम अवसर होते हैं, उसने एक गलती की, जनता और मीडिया उसका नाम उछालने लग जाती है, कलंकित करने लगती है। वहीं सरकारी मुलाजिम कितनी भी गलतियाँ करे, लोगों को प्रताड़ित करे, उनका काम ना करे, ऐसी स्थिति में इनका हिसाब जनता नहीं कर सकती है। इस कारण किसी सरकारी मुलाजिम से सीधे मुंह बात भी नहीं की जा सकती, उससे अलग से मिला नहीं जा सकता, उसे डांटा नहीं जा सकता, उसकी शिकायत नहीं की जा सकती, उनका मीडिया ट्राइल नहीं हो सकता,

स्याही फेंकना तो मतलब निरा स्वपन हुआ। मूल व्यवहारिक हकीकत यही है। आपको कहीं ढूंढने से भी ऐसी खबर नहीं मिलेगी कि "फलां व्यक्ति ने काम न होने की वजह से नाराज होकर जिलाधीश के गाल पर तमाचा जड़ा", यह असंभव चीज है, क्योंकि अगला सुपरमैन जैसी ताकत से लैस होता है। इसलिए आज भी भारत में माता-पिता अपने बच्चों को इसी तरह का सुपरमैन बनाने की ख्वाहिश रखते हैं, जिसके पास बेरोकटोक भरपूर पाॅवर रहे, चौतरफा भ्रष्टाचार कर रूपया भी अनाप-शनाप छाप ले और साथ ही समाज की नजर में सम्मानीय भी रहे। यह काॅम्बो पैकेज लंबे समय के लिए इन्हीं पदों में ही मिलता है, नेता होने में ऐसी सुविधाएँ नहीं है, इसलिए देश के युवाओं का एक बहुत बड़ा तबका नेता नहीं बल्कि अधिकारी होना चाहता है। और ऐसे में देश जश्न मनाता है कि "लो रिक्शेवाले का बेटा बना अधिकारी", तालियाँ। 

अपने गिरेबान में झांककर एक बार पूछिएगा कि जैसा सम्मान आप किसी एक युवा को अधिकारी बनने पर देते हैं ठीक ऐसा सम्मान आप किसी जनप्रतिनिधि को क्यों नहीं दे पाते हैं, जबकि वह सीमित समय के लिए आता है और ज्यादा मेहनत करके आता है। 

भारत के विधायकों और सांसदों के पास ताकत और अधिकार के नाम‌ पर सिर्फ और सिर्फ अधिकारियों को फोन कर चमकाने धमकाने के अधिकार होते हैं, इससे ज्यादा उनके पास कोई अधिकार नहीं होता है। ये बात जनता अच्छे से जानती है इसलिए वह नेताओं से ढेला भर भी उम्मीद नहीं रखती है, जब मन किया कुंठा निकालने के लिए बस गाली देने के लिए उनका इस्तेमाल करती है, ऐसा करते हुए एक दिन नेताओं को हाशिए में ढकेल देती है।

भारत की जनता को यह अच्छे से पता होता है कि सरकारी मुलाजिमों के पास बहुत ताकत होती है, इतनी कि मौका मिलते ही वह ऐसा तंग करेंगे कि जीना दुभर हो जाएगा, और वे ऐसा जीवन भर मरते दम तक कर सकते हैं ये भी जनता जानती है,  इसलिए जनता इनके सामने आजीवन दुबककर रहती है, वह आज भी सरकारी दफ्तरों में एक डर के भाव से जाती है, अपने छुटपुट काम के लिए भी पहचान खोजती है, लिंक खोजती है ताकि असुविधाओं से वह बच सके। भले ही सब सही हो, साफ सुथरा काम करवाना हो फिर भी उसे जबरन गुलाम निरीह जैसा महसूस कराया जाता है, चूंकि सिस्टम ही ऐसा है, तो यह स्वयंमेव होता जाता है। 

सरकारी मुलाजिम व्यक्तिगत रूप से कैसा भी चरित्र का रहे, कितना भी बड़ा तोपचंद ईमानदार जैसा क्यों न हो, वह सिस्टम का हिस्सा बनकर लोगों को कीड़ा ही समझता है, उसे समझना पड़ता है, नहीं समझेगा तो एक दिन भी काम नहीं कर पाएगा, जरा सा भी आत्मबोध हुआ तो उसे अगले ही दिन इस्तीफा देना पड़ जाएगा। इसलिए सिस्टम में रहते हुए या तो वह खामोश हो जाता है, लाइमलाइट से दूर हो जाता है या फिर इन सब चीजों को ढँकने के लिए कभी वह पैदल चलकर महानता का ढोंग करता है, कभी साइकिल चलाकर महान हो जाता है, कभी जमीन में बैठकर खाना खाने से महान हो जाता है, कभी ट्यूबवेल का पानी पीने से महान हो जाता है, कभी काम के सिलसिले में बाइक में बैठने से महान हो जाता है तो कभी खेत में पाँव रखने से महान हो जाता है, ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं, यही व्यवस्था है, यही कार्यपालिका का मूल सामंती चरित्र है जिसे भारत का परिवार, भारत का समाज बड़े आदर भाव से देखता है, इसी से मुक्ति पाने की जरूरत है, और उन सारे उपद्रव मूल्य रूपी अधिकारों को शिथिल करने की जरूरत है तभी सही मायनों में गुलामी की जंजीरें टूटेंगी।

Wednesday, 21 October 2020

पुनर्विवाह -

A - तो क्या उसके बाद दुबारा शादी करने का विचार नहीं आया? 
B - सच बताऊँ?
A - बता..
B - मैं आजकल सोच ही नहीं पाती हूं।
A - पर क्यों?
B - समाज का तो पता ही है, दुबारा संभव नहीं।
A - वो ठीक है, मैंने मन का कहा।
B - अब विवाह संस्थान से दूर रहना ही ठीक लगता।
A - ये भी ठीक है, तुम्हारे यहाँ दुबारा ना जुड़ने की ढील भी है।
B - सही कहा, धन्य हो ऐसी प्रथाओं का जिनके‌ कारण यह संभव हो रहा।
A - पूजनीय बना दे तू इन प्रथाओं को।
B - हेहे, और क्या, जातिवादी तो नहीं हूं औरों की तरह।
A - अब ये बात कहाँ से आ गई?
B - कैसी बात कर रहा, गहरे से जुड़ी हुई है।
A - लेकिन इसका विवाह संस्थान से क्या संबंध?
B - लड़कियों में शादी के तुरंत बाद ये डिसआर्डर ज्यादा देखने में आ रहा..
A - जातिवाद का? वो भी शादी के बाद?
B - हाँ जी, शादी होते ही हार्मोनल बदलाव की तरह जातिबोध होने लगता।
A - बावा, ये नया था।
B - नया क्या, हमें खुल के जीना भी न आया यार।
A - सही बात।

Thursday, 1 October 2020

हाथरस रेप केस और हमारा मीडिया -

जब निर्भया केस हुआ था, तब हम इंजीनियरिंग के फाइनल इयर में थे। उस समय फेसबुक में इतना कचरा नहीं फैला था, विज्ञापन नाम की चीज नहीं थी, क्योंकि फेसबुक उतना प्रचलन में भी नहीं था। वेब पोर्टल भी उतने नहीं थे, गिने चुने वेब पोर्टल और वही चुनिंदा न्यूज चैनल। चैनलों में तू तू मैं मैं अभी की तुलना में थोड़ा तो कम ही था। यह सब इसलिए बता रहा क्योंकि उस घटना के पहले दिन से अगले एक दो महीनों तक मैंने खूब न्यूज देखा था। सारे वेब-पोर्टल वेबसाइट आदि नाप लिया था, खूब यूट्यूब और न्यूज चैनलों को फोन और लैपटाप में देखा, कई बार कैफे से दर्जनों मीडिया फुटेज डाउनलोड करके लाता और देखता, अलग ही चूल मची हुई थी। सब कुछ अच्छे से याद है, आतिफ असलम ने "अब कुछ कुछ करेगा पड़ेगा" नाम का एक क्रांतिकारी गाना भी उसी समय लांच किया था, मैं कई दिन तक रोज उस गाने को सुनता रहा। इंटरनेट तब खूब महंगा हुआ करता, फिर भी मैंने जमकर पैसे खर्च किए। 1 GB के बहुत से कूपन वाॅलेट में लेकर घूमता था, मैं तब से फोन में न्यूज देखने लग गया था, लैपटाप में कनेक्ट करके खोज खोज कर देखा करता। वो ऐसा समय था, जब मेरे साथ के युवा 1 GB का कूपन महीने भर चला लेते थे।
उस समय हर कोई रेप के बारे में बात करने लगा था। निर्भया केस चूंकि थोड़ा ज्यादा वीभत्स हो गया था तो लोग बड़े आनंद से दिन रात जिक्र करते रहते, अपनी खोखली संवेदना परोसते रहते, एक‌ अलग तरह का‌ मुद्दा जो मिल गया था। कोई फाँसी मांग रहा था, तो कोई पुलिस को कोस रहा था, तो कोई सरकारी तंत्र को लेकर फायर हो रहा था, लेकिन खुद के समाज में परिवार में खराबी है, इस पर किसी का ध्यान नहीं था। ऐसे भी मित्र इस विषय पर चर्चा करते पाए जाते जो एक दिन पहले खुद किसी लड़की से बदतमीजी छेड़छाड़ किए रहते थे, मतलब घोर आश्चर्य। अरे! दूसरों का क्या कहा जाए हम खुद भी कोई कम बदतमीज नहीं था, जिसको जो मन किया बोल जाता था, काॅमन सेंस नाम की चीज ना के बराबर थी। जैसा समाज था, उसी समाज के ही तो हम बाॅय-प्रोडक्ट थे, कुछ गुण तो आने ही थे। लेकिन इतनी काॅमन सेंस तब भी थी कि मोमबत्ती जलाने वालों के साथ तब भी खड़ा होना शर्म का काम लगता था, चूतियापा तो लगता ही था साथ ही एक अजीब किस्म का अपराध बोध महसूस होता था। 
तो इस पूरे प्रोसेस में एक चीज जो मैंने नोटिस की थी वो यह कि जैसे ही निर्भया प्रकरण हुआ था। उसके बाद से ही देश के अलग अलग कोनों से रेप और छेड़छाड़ वाली खबरों की बाढ़ सी आ गई थी, हर दूसरे दिन कोई न कोई रेप की खबर, क्षेत्रीय से लेकर राष्ट्रीय न्यूज चैनल, हर जगह न्यूज में रेप की खबरें छाई हुई थी। लगभग दो तीन महीने तक रूक रूककर यह सिलसिला चलता रहा फिर धीरे से बंद हो गया। 
अब चूंकि उस समय फेसबुक एकदम नया था, तो यहाँ इन सामाजिक मुद्दों पर ज्ञान पेलने और संवेदना व्यक्त करने की बाढ़ नहीं आई थी। लेकिन निर्भया केस, अन्ना आंदोलन और केजरीवाल के राजनीति में प्रवेश और 2014 के चुनाव के बाद जो सोशल मीडिया का कबाड़ा होना शुरू हुआ, वह आज तक बदस्तूर जारी है।
महीनों तक न्यूज छानते छानते एक चीज स्पष्ट हुई थी कि रेप जैसी घटनाएँ हमारे समाज में निरंतर होती रहती है। क्योंकि जब निर्भया रेप केस हुआ था, उसी के कुछ समय बाद उससे कहीं अधिक भयावह एक रेप केस की घटना छत्तीसगढ़ के एक गाँव में हुई थी, लेकिन चूंकि गाँव की घटना थी, नार्थ इंडिया या दिल्ली के आसपास का इलाका नहीं था, इसलिए मामला दब गया, किसी वेब पोर्टल तक में नहीं आ पाया, खैर। एक चीज तो स्पष्ट है कि इस देश में जब भी कभी निर्भया रेप केस या हाथरस रेप केस जैसा कुछ हटके कुछ ट्रिगर करने जैसा वाकया सामने आता है तो पूरे देश में रेप की घटनाओं की कवरेज अचानक ही बढ़ जाती है।