अधेड़ सी उमर और अमरबेल की तरह झुकी हुई पीठ। एक हाथ से लोहे की ग्रिल का सहारा लेते हुए उन्होंने पहली सीढ़ी चढ़ी ही थी कि सहारे की कमी महसूस करते तुरंत पास से गुजर रहे एक अनजान व्यक्ति के हाथ को अपना दूसरा सहारा बना लिया, उनका बेटा शायद इन दो-तीन दर्जन सीढ़ियों को लांघकर पहले ही ऊपर जा चुका है।
"बहुत बहुत धन्यवाद बेटा तुम्हारा, उम्र के कारण अब सीढ़ी चढ़ने की ताकत नहीं रही" - बूढ़े ने उस अनजान से कहा।
स्टेशन के शोर शराबे में उस बूढ़े की यह धीमी आवाज वह बड़े ध्यान से सुनता हुआ, एक हाथ में अपना लगैज संभालता हुआ और उन्हें दूसरे हाथ से सहारा देता हुआ सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ यही सोच रहा था कि आखिर इनका बेटा इन्हें ऐसे कैसे अकेले कैसे छोड़ सकता है।
उनका बेटा अब दिखाई देता है, लगभग 12-15 सीढ़ियों के पहले ही वह ऊपर खड़ा दिखाई देता है, अपने पिता को देखने के बावजूद एक खामोश सा चेहरा लिए मूर्तिमान खड़ा है। पहली सीढ़ी, दूसरी सीढ़ी, तीसरी सीढ़ी, हर बढ़ती सीढ़ी लांघते हुए बेटे को उम्मीद की निगाह से देखते वह यही सोच रहा है, कि अब तो आ जाए अपने बाप के एक हाथ का सहारा बनने लेकिन पता नहीं क्यों उनका बेटा देखते हुए भी नहीं आता, खाली हाथ खड़े रहता है। अरे! ये वही तो था जो अभी कुछ समय पहले ही बड़े आहिस्ते से अपने पिताजी को ट्रेन की बोगी से नीचे प्लेटफाॅर्म पर उतार रहा था। अंतिम दो सीढ़ियों पर जैसे वे पहुंचते हैं, दुतकारते हुए उस अनजान का हाथ छुड़ाते वह आज्ञाकारी पुत्र अपने पिता को ऐसे लपककर संभालता है, मानो पिताजी को एवरेस्ट बेस कैम्प से लेकर आया हो।
"बहुत बहुत धन्यवाद बेटा तुम्हारा, उम्र के कारण अब सीढ़ी चढ़ने की ताकत नहीं रही" - बूढ़े ने उस अनजान से कहा।
स्टेशन के शोर शराबे में उस बूढ़े की यह धीमी आवाज वह बड़े ध्यान से सुनता हुआ, एक हाथ में अपना लगैज संभालता हुआ और उन्हें दूसरे हाथ से सहारा देता हुआ सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ यही सोच रहा था कि आखिर इनका बेटा इन्हें ऐसे कैसे अकेले कैसे छोड़ सकता है।
उनका बेटा अब दिखाई देता है, लगभग 12-15 सीढ़ियों के पहले ही वह ऊपर खड़ा दिखाई देता है, अपने पिता को देखने के बावजूद एक खामोश सा चेहरा लिए मूर्तिमान खड़ा है। पहली सीढ़ी, दूसरी सीढ़ी, तीसरी सीढ़ी, हर बढ़ती सीढ़ी लांघते हुए बेटे को उम्मीद की निगाह से देखते वह यही सोच रहा है, कि अब तो आ जाए अपने बाप के एक हाथ का सहारा बनने लेकिन पता नहीं क्यों उनका बेटा देखते हुए भी नहीं आता, खाली हाथ खड़े रहता है। अरे! ये वही तो था जो अभी कुछ समय पहले ही बड़े आहिस्ते से अपने पिताजी को ट्रेन की बोगी से नीचे प्लेटफाॅर्म पर उतार रहा था। अंतिम दो सीढ़ियों पर जैसे वे पहुंचते हैं, दुतकारते हुए उस अनजान का हाथ छुड़ाते वह आज्ञाकारी पुत्र अपने पिता को ऐसे लपककर संभालता है, मानो पिताजी को एवरेस्ट बेस कैम्प से लेकर आया हो।
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