Sunday, 31 March 2019

- जिस्म का पहाड़ -

                      पहाड़ों में जब अंधेरा ढलने लगता है तो इंसानी बस्तियां धीरे धीरे अपने घरों की ओर सिमटने लगती हैं, फिर खाली होने लगते हैं बुग्याल और घने जंगल और जब घुप्प अंधेरा छा जाता है, चारों ओर सन्नाटा पसर जाता है, तब जाकर मध्यरात्रि को अपनी उपस्थिति दिखाने के‌ लिए ऊंची आवाज लगाते हैं सियार। लेकिन क्या सिर्फ वे जंगली सियार ही होते हैं जो बुग्यालों में और जंगलों में हुंकार मारते फिरते हैं। असल‌ में उनके साथ ही कुछ जंगली निशाचर भी अपने घरों से बाहर निकलते हैं, लेकिन वे बुग्यालों की ओर नहीं आते, बिल्कुल नहीं आते। इन‌ निशाचरों में से आधे लोग रम व्हिस्की पीकर सड़कों पर टहलते हुए पहाड़ी और पंजाबी गीतों पर झूमते, शेरों शायरी करते मध्यरात्रि के पहले ही आहिस्ते अपने घरों को चले जाते हैं। बाकी बचे आधे लोग जो अपने घरों को जाते हैं, अन्य सामान्य लोगों की तरह अगली सुबह वे भी अपने ही घर के दरवाजे से बाहर को आते हैं लेकिन घर के अंदर प्रस्थान करने और सुबह घर से निकलने के बीच का यह समय क्या एक ही घर की चारदीवारी के भीतर खत्म हो जाता है या कोई विस्थापन होता भी है, क्या इस समयावस्था में मनुष्य मात्र की व्याकुलताएँ अपनी सीमा लांघती हैं या एक निश्चित दायरे में सिमटकर रह जाती हैं, यह प्रभु ही बेहतर जानता है। सारी असामान्य घटनाएँ जिसकी हमें जानकारी नहीं होनी चाहिए वह उस समयकाल में शनै: शनै: प्रभु की निगरानी में घटित हो रही होती है।

                        फिर अगली सुबह जब सब कुछ सामान्य हो जाता है, जीवन वही अपने पुराने खुशनुमा रंग में लौटने लगता है, दूर स्थित श्वेत हिमालय की चोटियों से सूरज की किरणें बिखेर देता है, ताकि अंधेरे का दंभ चूर-चूर हो जाए और सियार रूपी मानुषों को वापस एक सभ्य मनुष्य का दायित्व निभाना पड़े। और होता भी यही है, जो अदायगी के रस्म और अभिवादन के तौर तरीके रात्रिकाल में निभाए जाते थे, सुबह होते ही उनका लोप हो जाता है। फिर दिखते लगते हैं वही हँसते खिलते चेहरे, दूर गाँव से पीठ पर लादकर दूध लाती महिलाएँ और उनके साथ मीलों की दूरी तय कर पास के कस्बे में स्कूल की पढ़ाई करने आते बच्चे, हरे भरे घास के मैदानों की ओर अपने पशुधन को ले जाते गड़रिए, कुछ इस तरह देवभूमि की संस्कृति प्रातःकाल मंदिरों में पूजा पाठ करते, माथे में टीका लगाते, अपने से बड़ों को दोनों हाथों से प्रणाम करते संध्याकाल तक जीवंत अवस्था में बनी रहती है और फिर से सियार अंधेरा ढलने का इंतजार करते हैं।


Sunday, 24 March 2019

जात पात हमारे गूणसूत्र में समाया हुआ है -

उसने कभी जात-पात को नहीं माना, उच्च वर्ग कहे जाने वाले परिवार से होते हुए भी कहीं भी बैठकर अपने दोस्तों के साथ एक थाली में खाना खा लेता, जूठा आइसक्रीम तक खा लेता और जातिगत ढकोसलों को रत्ती भर तवज्जो न देता। एक दिन एक सफाईकर्मी का झाडू़ उसके शरीर को स्पर्श कर जाता है, वह उस सफाईकर्मी को झाड़ू के एक सिक को चाटकर थूक के फेंकने को कहता है ताकि अशुभ ना हो। यह सब कुछ मेरी आंखों के सामने कुछ सेकेंड में हो जाता है।
मैं उससे पूछता हूं कि तुम तो कहते थे कि ऐसी दकियानूसी परंपराएं नहीं मानते, ये क्या था।
उसने कहा - मम्मी मानती है, मम्मी कहती है, इसलिए फाॅलो करना पड़ता है। ये सब के‌ लिए मम्मी बहुत गुस्सा करती है।
मैंने कहा - जब तुम‌ अपनी माताजी की बात का इतना ही सम्मान कर ही रहे हो तो तुम्हें फिर आज उस अछूत कहे जाने वाले अपने उस दोस्त का जूठा आइसक्रीम नहीं खाना चाहिए था।

उसने कहा - अरे नहीं वो बात अलग है, ये अलग है,‌ मेरी मम्मी भी जब झाड़ू लगाती है और मेरे शरीर में लग जाता है तो वह भी ऐसा करती है।

मैंने कहा - अगर सचमुच तुम्हारी माताजी ऐसा करती है तो उन्हें ऐसा करना बंद कर देना चाहिए। एक पल के लिए तुम ही सोचो कि उस झाड़ू को मुंह से लगाना कितना उचित है, जिस झाड़ू से सब तरफ की धूल मिट्टी साफ होती है, पता नहीं क्या क्या जो चिपका होता होगा इसमें, उस झाड़ू के एक टुकड़े को मुंह से लगाते हुए थूककर फेंकना, क्या यह तुमको कहीं से भी अपमान का विषय नहीं लगता है‌। एक झाड़ू के स्पर्श से हमारे शुभ अशुभ का निर्धारण भला कैसे हो सकता है।
देखो मैं तुम्हें गलत नहीं कह रहा हूं, मुझे बस हैरानी इस बात की है कि जब तुम खुद कहते हो तुम जात पात छुआछूत नहीं मानते हो, मिल जुलकर एक थाली में किसी के साथ भी खाना खा लेते हो, इतनी सधी हुई सोच रखते हो फिर भी ये झाडू चटवाने जैसा अमानवीय व्यवहार कैसे तुम्हें परेशान नहीं करता मैं समझ नहीं पा रहा हूं।
लड़का शांत हो गया।
फिर मैंने सोचा कि इससे ज्यादा कहना उचित नहीं है। शायद वह भी अपने जगह सही है, जिस परिवेश में वह बचपन से रहा है (खैर मेरी भी परवरिश ऐसी ही रही है) जो उसने देखा है, वही सीखता आया है, और शायद एक न एक दिन ये झाड़ू वाली बात भी वह समझ ही जाएगा। वह एक अच्छा डांसर है, बचपन से ही सुविधाओं में रहा है, एक मस्तमौला इंसान की तरह रहा है इसलिए गहराई में जाकर इन चीजों से उतना रूबरू नहीं हो पाया होगा। हमें सबकी सोच का सम्मान करना चाहिए, हम जैसा सोचते हैं जरूरी नहीं कि हर किसी की सोच हूबहू वैसी ही हो।

Book Review - Eleven Month By Prakash Jajalya

Book Review - Eleven Month

सैमसंग के फोन से इस किताब की समीक्षा टाइप करते यह जानकर आश्चर्य हुआ कि लेखक ने सैमसंग फोन से ही टाइप करते हुए छत्तीसगढ़ राज्य सिविल सेवा परीक्षा के अभ्यर्थियों की आपबीती को एक किताब का रूप दिया है। ये वाकई बड़े धैर्य का काम है, इसके लिए लेखक और लेखन दोनों को‌ साधुवाद।

कल जब यह किताब पढ़ने को मिली तो कुछ हद तक निराशा हाथ लगी, तारतम्य बन नहीं पाया और इस वजह से 2-3 पेज से और आगे पढ़ना मुश्किल हो गया, इसके लिए मैं लेखक से क्षमा चाहता हूं। पता नहीं लेखक किताब की इन मात्रात्मक गलतियों को देख पा रहे हैं या नहीं, क्योंकि लगभग हर दूसरे तीसरे वाक्य में मात्रात्मक त्रुटियां हैं, चलिए एक बार मात्रात्मक त्रुटियों को नजर अंदाज कर भी दिया जाए तो पाठक आगे वाक्य विन्यास में हो रही गलतियों में फंस जाता है। अब इसमें छपाई से संबंधित कोई तकनीकी समस्या है या उन्होंने किताब की प्रूफ रीडिंग नहीं कराई है, ये तो वही बेहतर बता पाएंगे।
वैसे भी एक नयी रचना तैयार करना, मानसिक रूप से खुद को रोज उसके लिए तपाना, कथानक तैयार करना, हास्य व्यंग्य का पुट डालना, पात्र बुनना ये सब काम बहुत समय और धैर्य की मांग करती है, वाकई ये बड़ी मेहनत का काम है, ऐसे में एक किताब का मूल श्रृंगार यानि कि भाषा और व्याकरण ही अशक्त प्रतीत हो तो कष्ट होता है।

एक चीज यह भी समझ से परे है कि पाठक वर्ग कैसे इन चीजों को नजरअंदाज कर रहा है, या तो उन्हें स्पष्टत: दिखाई नहीं दे रहा होगा या ऐसा भी हो सकता है कि सिविल सेवा अभ्यर्थी न होने की वजह से इस किताब के असली पाठक वर्ग की मुझे समझ नहीं होगी।

किताब के संदर्भ में एक महती जरूरत यह भी है कि जैसे एक किताब छपती है, भले ही उसके अंदर का कच्चा माल कैसा भी हो लेकिन फेसबुक लेखन और ब्लाॅग लेखन से इतर किताब की अपनी एक नैतिक मांग होती है कि उसमें भाषा और व्याकरण संबंधी त्रुटियां ना के बराबर हों। क्योंकि किताब ऐसी चीज है कि कल को जैसे आप या हम रहें न रहें, हमारे अंश रूप में तो ये किताब रहेगी ही।

चलते चलते : आशा है कि लेखक इन‌ बातों को सकारात्मक रूप में लेंगे और जल्द ही इस किताब के द्वितीय संस्करण की छपाई में व्यस्त हो जाएंगे लेकिन द्वितीय संस्करण की छपाई से पूर्व उनसे मेरा यह आग्रह है कि उन्हें इस किताब को एक‌ दो बार बढ़िया तरीके से प्रूफ रीडिंग की प्रक्रिया से गुजारना चाहिए।





गलतियों की भरमार है।

बुढ़ापा

अधेड़ सी उमर और अमरबेल की तरह झुकी हुई पीठ। एक हाथ से लोहे की ग्रिल का सहारा लेते हुए उन्होंने पहली सीढ़ी चढ़ी ही थी कि सहारे की कमी महसूस करते तुरंत पास से गुजर रहे एक अनजान व्यक्ति के हाथ को अपना दूसरा सहारा बना लिया, उनका बेटा शायद इन दो-तीन दर्जन सीढ़ियों को लांघकर पहले ही ऊपर जा चुका है।
"बहुत बहुत धन्यवाद बेटा तुम्हारा, उम्र के कारण अब सीढ़ी चढ़ने की ताकत नहीं रही" - बूढ़े ने उस अनजान से कहा।
स्टेशन के शोर शराबे में उस बूढ़े की यह धीमी आवाज वह बड़े ध्यान से सुनता हुआ, एक हाथ में अपना लगैज संभालता हुआ और उन्हें दूसरे हाथ से सहारा देता हुआ सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ यही सोच रहा था कि आखिर इनका बेटा इन्हें ऐसे कैसे अकेले कैसे छोड़ सकता है।
उनका बेटा अब दिखाई देता है, लगभग 12-15 सीढ़ियों के पहले ही वह ऊपर खड़ा दिखाई देता है, अपने पिता को देखने के बावजूद एक खामोश सा चेहरा लिए मूर्तिमान खड़ा है। पहली सीढ़ी, दूसरी सीढ़ी, तीसरी सीढ़ी, हर बढ़ती सीढ़ी लांघते हुए बेटे को उम्मीद की निगाह से देखते वह यही सोच रहा है, कि अब तो आ जाए अपने बाप के एक हाथ का सहारा बनने लेकिन पता नहीं क्यों उनका बेटा देखते हुए भी नहीं आता, खाली हाथ खड़े रहता है। अरे! ये वही तो था जो अभी कुछ समय पहले ही बड़े आहिस्ते से अपने पिताजी को‌ ट्रेन की बोगी से नीचे प्लेटफाॅर्म पर उतार रहा था। अंतिम दो सीढ़ियों पर जैसे वे पहुंचते हैं, दुतकारते हुए उस अनजान का हाथ छुड़ाते वह आज्ञाकारी पुत्र अपने पिता को ऐसे लपककर संभालता है, मानो पिताजी को एवरेस्ट बेस कैम्प से लेकर आया हो।