Tuesday, 20 March 2018

~ क्या रखा है इन पहाड़ों में ~

सितम्बर 2015,
मैं मुनस्यारी से काठगोदाम वापस लौट रहा था। मैक्स की जिस गाड़ी में मैं आ रहा था, उसमें चार लोगों का एक परिवार भी था, पति-पत्नी और दो बच्चे। वे जो भाईसाहब थे, उनकी पत्नी और उनके वे दोनों बच्चे रास्ते भर भयंकर उल्टी करने लगे।
वे मुनस्यारी के ही थे, उन्होंने बताया कि छुट्टी में आए हुए थे मुनस्यारी और अब वे वापस जा रहे हैं दिल्ली, फिलहाल दिल्ली ही रहते हैं, वहीं कोई प्राइवेट नौकरी करते हैं। ऐसे साल में कभी मौका देखकर मुनस्यारी आ जाते हैं।
मैंने उनके बच्चों को उल्टी करते देखा तो मेरे पास जो भी उल्टी की गोली और कुछ मिंट वाली टाॅफी थी, मैंने उन्हें सब दे दिया। अल्मोड़ा आते तक उनका उल्टी करना पूरी तरह से बंद हो गया।

गाड़ी अभी अल्मोड़ा के एक बैंड(मोड़) में बाल मिठाई वाले की दुकान के पास रूकी हुई है, वे मुझसे आगे आकर बात करते हैं और शुक्रिया कहते हैं, और फिर हमारे बीच रोजगार वगैरह को लेकर कुछ हल्की फुल्की बातें होती है।
इसी बीच वे सामने एक खड़े पहाड़ की ओर इशारा करते हुए कहते हैं - " क्या रखा है इन पहाड़ों में, कुछ भी तो नहीं है".
मुझे आज भी याद है हूबहू उन्होंने ऐसा ही कहा था। उस वक्त उनकी वो बात सुनकर मैं एकदम चुप सा हो गया था,कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाया। सच कहूं तो रंज हुआ उनकी बात सुनकर। मैं सोचने लगा कि जिन पहाड़ों से मैंने इतना गहरा लगाव महसूस किया है, वहाँ वे ऐसा क्यों कह रहे हैं कि कुछ भी नहीं है, इतना कुछ तो है यहाँ, फिर भी वे इन पहाड़ों को छोड़कर आखिर क्यों चले गये?
फिर लगा कि ऐसी सोच रखना ठीक नहीं, उनकी भी अपनी कुछ जिम्मेवारियां होंगी, रोटी,कपड़ा,मकान रूपी उनकी भी कुछ समस्याएं रही होंगी। इसलिए उन्होंने पलायन किया होगा और वैसे भी एक दो बार घूमकर तो इन खूबसूरत पहाड़ों से तो कोई भी लगाव महसूस करेगा लेकिन वो एक भावनात्मक जुड़ाव के अलावा और कुछ भी नहीं होगा।
तो उस दिन उनकी कही गई उस बात से मेरा पहाड़ों के प्रति लगाव कम होने के बजाय और बढ़ गया। और फिर मैंने कुछ महीने पहाड़ में ही पहाड़ियों की तरह रहने का फैसला किया साथ ही एक पहाड़ी की तरह खान-पान, रहन-सहन और आचार-व्यवहार के तरीकों को भी अपनाया।
तो कुछ महीने यूं पहाड़ों में रहने के बाद मन में ढेरों सवाल आए, उनमें से कुछ सवाल जो उन भाईसाहब(जो गाड़ी में मिले थे) को केंद्र में रखकर मैं करना चाहूंगा वो इस तरह हैं-
मैं उन्हें कहूंगा---
- जिन Basic needs( मूलभूत जरूरतों) के लिए आपने पलायन को चुना है वे आखिर होती क्या हैं?
- क्या महंगे स्कूल में बच्चों की पढ़ाई, मार्बल टाइल्स वाले घर, गाड़ी, शापिंग माॅल की खरीददारियां क्या मूलभूत जरूरतें यही होती है?
- अगर मूलभूत जरूरतें यही है तो ये भी जरा बताइए कि क्या दिल्ली जैसे शहर में आपके बच्चों का सर्वांगीण विकास हो रहा है, क्या उनको वहां इन पहाड़ों की तरह शुध्द हवा मिलती है, क्या यहाँ की तरह साफ मीठा पानी मिलता है?
- स्वच्छ हवा और पीने लायक शुध्द पानी मूलभूत जरूरतें नहीं है क्या दाज्यू?
- चलिए इन्हें भी छोड़िए खान-पान पर आते हैं, जहाँ हवा और पानी शुध्द नहीं है वहाँ आपको क्या इन पहाड़ों की तरह ताजे फल और सब्जियाँ मिल सकती है? क्या पहाड़ों जैसा स्वाद मिल सकता है?
- क्या वहाँ आपके बच्चों को यहाँ की तरह दूध,घी,मट्ठा, बुरांस का जूस मिल पाएगा, क्या मिल पाएगा माल्टा, काफल, हिसालु, घिंघारू का स्वाद। पतूर, भट्ट की दाल, मड़ुवे की रोटी, गहद, जम्बु की छौंक से बना रायता, कढ़ी, भांग की चटनी और न जाने कितना कुछ।
- आप ही बताएं कि आपके बच्चे पहाड़ों में ज्यादा स्वस्थ रहेंगे या मैदानी महानगरों में?
- क्या वहां रहकर आप अपने बच्चों को दादा-दादी, नाना-नानी का प्यार दिला पाएंगे?
- जिन पहाड़ों में सबसे ज्यादा संयुक्त परिवार हैं, लोग इतने मेलजोल के साथ रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दुख में हमेशा साथ निभाते हैं, इस कठिन जीवनशैली में भी हर महीने कोई न कोई पर्व त्यौहार मना लेते हैं। आपने इन सभी चीजों को नौकरी और रोजगार के चक्कर में छोड़ दिया, आप ही बताएं कि क्या करोड़ों रुपए लुटाकर भी आपको यह अपनापन उस बनावटी दुनिया में कहीं मिल पाएगा?
न जाने ऐसे कितने सवाल हैं, शायद इनमें से कुछ एक सवाल समय के हिसाब से अप्रासंगिक लग सकते हैं वैसे भी कुछ महीनों के अनुभव से जो देखा,वही लिखा है।
और इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि पहाड़ों में पलायन के दर्द को समझते हुए आपको भी अपने हिस्से की जिम्मेदारी समझते हुए स्वावलम्बन के विभिन्न तरीकों की ओर ध्यान देकर पहाड़ लौटना चाहिए। नहीं, ऐसा करना संभव नहीं दिखता। लेकिन जब तक ऐसा संभव ना दिखे, हम जैसे सिरफिरे पहाड़ों की खाक छानते रहेंगे, आपको आप ही के मूल्यों, रीति-रिवाजों, त्यौहारों, खान-पान, आचार-व्यवहार के तरीकों के बारे में समय समय पर बताते रहेंगे।

चौना-मटैना गाँव, तहसील- मुनस्यारी, उत्तराखंड





Sunday, 18 March 2018

~ पहाड़ों का सफर ~

जब कभी उत्तराखंड जाना होता है या वापस लौटना होता है तो सफर के दौरान हमेशा कुछ न कुछ ऐसा घटित हो जाता है जिस पर यकीन करना भी मुश्किल सा लगता है...

एक बार मैं मुनस्यारी से काठगोदाम लौट रहा था, ट्रेवलर की उस गाड़ी में मेरे बाजू में एक लड़की बैठी थी, वो जब से मुनस्यारी से बैठी थी, काठगोदाम आते तक किसी लड़के से फोन पर धीमी आवाज में बतियाती रही। बेरीनाग से खाना खाकर जब हम आगे बढ़े तो उसने कोलड्रिंक की एक बोतल ले ली, और ऊपर मुंह करके पीने लगी, फिर उसके बाद उसने मेरी ओर थमाते हुए कहा - लो आप भी पियो। उसका आग्रह सुनते ही मुझे एक पल के लिए इतनी शर्म महसूस हुई, वो इसलिए कि अभी कुछ घंटे पहले ही मैं उसके सामने मुट्ठी मुट्ठी भर चिप्स एक बार में भुक्खड़ की तरह खा रहा था। क्या करता लड़का होकर उसे पूछता तो पूछता कैसे। उसके आग्रह ने मुझे दुविधा में डाल दिया, मन का एक कोना आखिरकार बोलने लग गया कि कहाँ गये तेरे पहाड़ी संस्कार, बाजू में कोई बैठा हुआ है फिर भी तुने अकेले खा कैसे लिया। लड़का होकर तुझे आगे से बात करने में अटपटा लगा सो ठीक पर भूख को तो स्थगित किया जा सकता था। 
फिर मैंने उस लड़की को मना किया कि मैं नहीं पीता कोलड्रिंक, आप पीयो। उसने फिर ऊपर मुंह करके पीया और कोलड्रिंक की बोतल को हम दोनों की सीट के बीच की खाली जगह में रख दिया। फिर मैंने कुछ देर सोचा और उसे चिप्स का पैकेट दिया और कहा कि लो आप भी खाओ, मैं कोलड्रिंक नहीं पीता तो क्या हुआ, आप तो ये खा ही सकते हो, फिर उसने चिप्स खाया और खिड़की खोलकर किनारे अपना सर टिकाकर उंगलियों से अपने बालों को कंघी करते हुए फिर से बात करने लग गई। बीच में उसने मुझसे कहा भी कि यार मैं बात कर रही,डिस्टर्ब होगा तो बता देना न।
शाम के 6 बज चुके हैं,
गाड़ी काठगोदाम पहुंच चुकी है। मैं काठगोदाम रेल्वे स्टेशन की ओर जाते हुए यही सोच रहा हूं कि भारत में ऐसी और कितनी जगहें बची होंगी जहाँ ऐसी संस्कृति मिलेगी। फिर हमेशा की तरह बात वहीं पर आकर रूक गई कि यार कुछ चीजें न पहाड़ों में ही संभव है।

Tuesday, 13 March 2018

- ऐसा लगा मानो किसी गाँव का प्रधान(सरपंच) आया हो -

                             ये तस्वीर अगस्त 2016 की है। मुनस्यारी,उत्तराखंड के दरकोट गाँव में पत्थर से निर्मित माँ भगवती मंदिर का उद्घाटन मुख्यमंत्री जी के द्वारा होना था, साथ ही आज दरकोट में मेला लगा था। मुख्यमंत्री जी अपने एक मंत्री के साथ दरकोट पहुंच चुके थे। मुझे भी हमारे दोस्त ने कहा कि चलो यार दरकोट होकर आते हैं, उधर एक जगह खाने का न्यौता भी है, आपको पतूर खिलाते हैं। "पतूर" एक प्रकार का पहाड़ी व्यंजन है। तो ये जो खाने के लिए निमंत्रण मिलता है, यह भी एक विशेष तरह की परंपरा है, इसका एक कोई नाम भी है, नाम भूल रहा हूं। तो इसमें होता यह है जहाँ जिस गाँव में मेला लगता है, वहाँ अगर आपके कोई रिश्तेदार हैं, उनके यहाँ आपके और आपके साथ जितने भी साथी आ रहे हों, चाहे दस, बीस, तीस लोग। सबके लिए भोजन की व्यवस्था रहती है।
उसी दिन मैंने पहली बार "तिमूर" भी खाया, तिमूर काली मिर्च की तरह दिखता है, उसका स्वाद कुछ ऐसा था जैसे किसी ने मुट्ठी भर लौंग मेरे मुंह में ठूंस दिया हो। यानि तिमूर खाने के बाद जो पूरा मुंह सुन्न हुआ वो अगले एक दो घंटे तक बना रहा, इस बीच अगर मैं कुछ खाता भी तो मुझे उसका स्वाद न मिल पाता।
                             दरकोट में आसपास के सभी गांवों से लोग इकट्ठे हो चुके थे। मंत्री जी के लिए एक छोटा सा स्टेज बना हुआ था, वहीं से उन्होंने जनता को संबोधित किया। संबोधन से पहले जब वे ढोल बजाते हुए जनता के बीच आए तो लोगों की प्रतिक्रिया कुछ ऐसी थी कि मानो अपने ही घर का व्यक्ति हो, सब अपने-अपने जगह से हाथ जोड़कर नमस्ते कर रहे थे, न तो सेल्फी लेने की होड़ दिखी न ही कैमरों की भीड़।
                             यूं लगा कि वाकई हिमनगरी मुनस्यारी में ही यह संभव है। और तो और मुख्यमंत्री जी के आसपास कोई खास सिक्योरिटी भी नहीं थी, ऐसा था कि कोई भी पास जाकर मिल ले, गले लगा ले। जब वे वापस भी गये तो एक पुरानी सी तवेरा में बैठकर गये, उस गाड़ी की खिड़कियां भी खुली थी।
उनका वो छोटा सा काफिला जब लोगों के बीच से गुजर रहा था तो लोगों की प्रतिक्रिया ऐसी थी मानो कोई साधारण सा व्यक्ति जा रहा हो।
मैं ये सब देखकर हैरान हो गया, मैंने अपने दोस्त से पूछा- ये क्या था?
उन्होंने बताया - यार यहाँ तो ऐसा ही है, यही यहां की संस्कृति हुई और क्या। मंत्री जी का बस चले तो वे यहीं रह जाएं, उन्हें मुनस्यारी और जोहार से इतना लगाव है कि यहाँ के हर त्यौहार,मेले में पहुंच ही जाते हैं।
                             दरकोट के इस मेले में अधिकतर लोग 10-10 किलोमीटर दूर से अपने सीएम को सुनने आए थे,कोई पैदल तो कोई गाड़ी में, असल में ये खुद से आने वाली भीड़ थी। उस दिन मौसम भी साफ था, पर अचानक हल्की बारिश शुरू हो गई, मुनस्यारी का मौसम भी अजीब है, कभी-कभी तो Accuweather वगैरह भी काम नहीं करता है, कभी भी कुछ भी हो जाता है। इसलिए इस फोटो को आप देखिए, अधिकतर लोगों के पास अपना छाता है। सीएम को सुनने की दिलचस्पी लोगों में कुछ ऐसी थी कि बारिश में भी अधिकतर लोग रूके रहे। और फिर जब भिगते हुए मैंने इस पूरे दृश्य को देखा तो तस्वीर लेने से खुद को रोक नहीं पाया।





Thursday, 8 March 2018

Directive principles of states policy (DPSP)

भाग-4

अनुच्छेद (36-51)

राज्य के नीति-निदेशक तत्व


संवैधानिक दर्जा :-
- यह आयरलैण्ड के संविधान से लिए गए हैं।
- अंबेडकर जी ने इन तत्वों को विशेषता वाला बताया है।
- विशिष्ट निर्देश हैं जिनका स्वरूप सिध्दान्त और आदर्श जैसा है।
- यह राज्य के द्वारा शासन में मार्गदर्शी सिध्दान्त के रूप में है।
- ये राज्य के शासन में मौलिक हैं।
- इसमें राज्य का वही अर्थ बताया गया है जो मौलिक अधिकारों के लिए प्रयुक्त है, अर्थात् 'राज्य' में केन्द्र एवं राज्य सरकारों के अलावा स्थानीय प्राधिकारी भी शामिल हैं। (अनुच्छेद-36)
- नीति-निदेशक तत्व न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं। (अनुच्छेद-37)

विशेषता:-
- राज्य नीतियों और कानूनों को प्रभावी बनाते समय इन तत्वों को ध्यान में रखेगा।
- नीति-निदेशक तत्व भारत शासन अधिनियम 1935 में उल्लिखित अनुदेशों के शासन हैं। ये अनुदेश ही निदेशक तत्व हैं।
- नीति-निदेशक तत्व के उद्देश्य न्याय में उच्च आदर्श, स्वतंत्रता और समानता को बनाये रखना है अर्थात् लोक कल्याणकारी राज्य का निर्माण है।
- नीति-निदेशक तत्व की प्रकृति गैर न्यायिक है अर्थात् न्यायालय द्वारा इन्हें लागू नहीं किया जा सकता।
- विधि की संवैधानिकता के अंतर्गत न्यायालय इनको देख सकता है।
श्रेणियां :-
नीति-निदेशक तत्व पर गांधीजी, अंबेडकर, नेहरू और अन्य राष्ट्रीय नेताओं के विचारों का प्रभाव दृष्टव्य है।

नीति-निदेशक तत्वों की तीन व्यापक श्रेणियां हैं-
1/ समाजवादी सिद्धांत :-
लक्ष्य सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करना।

अनुच्छेद- 38
लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय द्वारा सामाजिक व्यवस्था सुनिश्चित करना।

अनुच्छेद- 39
राज्य अपनी नीतियां इस प्रकार संचालित करेगा कि -
a)सभी नागरिकों (पुरुष और स्त्री) को आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हों।
b)सामूहिक हित के लिए भौतिक संसाधनों का समान वितरण।
c)धन और उत्पादन के साधनों का केन्द्रीकरण ना हो।
d)पुरुष और स्त्रियों के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन।
e)पुरुष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और बच्चों के सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग ना हो।
f)बालकों को स्वास्थ्य विकास के अवसर।
g)अनुच्छेद-39 अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि उच्चतम न्यायालय का निर्णय है कि मूल अधिकारों के निर्वहन में इस अनुच्छेद की सहायता ली जा सकती है।
h)अनुच्छेद 39-A 42वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा जोड़ा गया। {समान न्याय और निशुल्क विधिक सहायता}।

अनुच्छेद- 41
काम पाने की, शिक्षा पाने की, बेगारी, बुढ़ापा, बीमारी और निःशक्तता की दशाओं में लोक सहायता पाने का अधिकार।

अनुच्छेद- 42
कार्य की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं तथा प्रसूति सहायता प्राप्त करने का उपबंध।

अनुच्छेद- 43
कामगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी, अच्छा जीवन स्तर तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्रदान करना।
अनुच्छेद- 43(a)
उद्योगों के प्रबंध में कर्मकारों की भागीदारी सुनिश्चित करना।

अनुच्छेद- 47
पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करना तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करना।

2/ गांधीवादी सिध्दान्त :-
ये सिद्धांत राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान गांधीजी के द्वारा स्थापित योजनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।

अनुच्छेद- 40
ग्राम पंचायतों का गठन और इन्हें आवश्यक शक्तियां प्रदान कर स्वशासन की ईकाई के रूप में कार्य करने की शक्ति देना।

अनुच्छेद- 43
ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर उद्योगों, व्यक्तिगत या सहकारिता के आधार पर इनका विकास करना।

अनुच्छेद- 46
अनुसूचित जातियाँ, जनजातियां और अन्य दुर्बल वर्गों की शिक्षा, आर्थिक हित की वृध्दि शोषण से रक्षा का प्रयास करना।

अनुच्छेद- 47
पोषण स्तर और जीवन स्तर में सुधार का प्रयास करना और मादक पेय और हानिकारक औषधियों के औषधीय प्रयोजन को छोड़कर अन्य प्रयोगों पर प्रतिबंध लगाना।

अनुच्छेद- 48
कृषि एवं पशुपालन की वैज्ञानिक प्रणालियों का विकास, दुधारू पशुओं की नस्ल में सुधार और गौ-वध का प्रतिषेध करना।
अनुच्छेद- 48(a)
पर्यावरण का संरक्षण, उसका संवर्धन और उसकी रक्षा।

उदार बौध्दिक सिद्धांत :-
उदारवादी विचारधारा से प्रेरित विचार जो राज्य को निर्देशित किए गए हैं-

•अनुच्छेद 44 - एकसमान नागरिक संहिता।
भारत में सिर्फ गोवा राज्य में लागू है।

•अनुच्छेद 45 - सभी बच्चों को 14 वर्ष की आयु पूरी करने तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देना।
(76वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 के द्वारा आयु के प्रावधान को बदला)

•अनुच्छेद 48 कृषि और पशुपालन की आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों का विकास।
•अनुच्छेद 48(a) पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1972 (42वें संविधान संशोधन के द्वारा)

•अनुच्छेद 49 राष्ट्रीय महत्व वाले विषयों, घोषित कलात्मक और ऐतिहासिक स्मारकों, स्थान और वस्तुओं का संरक्षण करना।

•अनुच्छेद 50 राज्य की लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करना।

•अनुच्छेद 51 अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि करना, राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण और सम्मान के संबंधों को बनाये रखना।
            अंतर्राष्ट्रीय विधि और संधि बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाना तथा अंतर्राष्ट्रीय विवादों के मध्यस्थ द्वारा निपटाने को प्रोत्साहन करना।




नीति-निदेशक तत्वों का महत्व :-
1)जन शिक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।ये सिध्दान्त राज्य के उद्देश्यों और लक्ष्यों की जानकारी देते हैं अर्थात् यह स्पष्ट होता है कि राज्य एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए कृत संकल्पित है।
2)इन सिध्दान्तों के पीछे जनमत की शक्ति होती है अतः इस एक कारण कोई भी सरकार इनकी अवहेलना नहीं कर सकती।
3)नीति-निदेशक तत्वों का महत्व इस बात में है कि ये नागरिकों के प्रति सकारात्मक उत्तरदायित्व है।
4)राजनीतिक अस्थिरता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
5)संविधान की व्याख्या में सहायक।
संविधान के अनुसार नीति-निदेशक तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं अर्थात् देश के प्रशासन में उत्तरदायी सभी सत्ताएं नीति-निदेशक तत्वों द्वारा ही निर्देशित होंगी।
6)न्यायलयों के लिए मार्गदर्शक का कार्य या मार्गदर्शी आदर्श के रूप में हैं।
7)शासन के मूल्यांकन का आधार हैं।
8)कार्यपालिका पर अंकुश लगाती है।

Tuesday, 6 March 2018

पानी का खेल

                              आज एक रेस्टोरेंट जाकर समझ आया कि पानी भी कई तरह के होते हैं जैसे कि नार्मल वाटर, चिल्ड वाटर और रेगुलर वाटर। तो जैसे आप किसी भी रेस्टोरेंट में जाइएगा तो आपको इसी क्रम में पानी के लिए पूछा जाता है और आखिरकार आपकी टेबल में एक प्लास्टिक वाली पानी की बोतल होती है वो ऐसे कि नार्मल वाटर और चिल्ड वाटर का अर्थ है बोतल बंद पानी और रेगुलर वाटर माने जग का पानी। पूछने वाला भी मानवीय मनोविज्ञान को उलझाने की इस प्रक्रिया में नार्मल वाटर और चिल्ड वाटर को पहले बोलता है क्योंकि वो तो यही चाहता है कि आपकी टेबल पर एक बीस रुपए वाली पानी की बोतल ही हो। हम भी सोचते हैं यार कि चलो कभी कभार तो बाहर खाना खाने आते हैं क्या दस बीस के लिए सोचना, आने दो पानी बोतल। और जब हम इस खेल में उलझे बिना थोड़ा सोच लेते हैं और रेगुलर वाटर यानी जग वाले पानी को चुनते हैं जो कि RO का ही स्वच्छ पानी होता है तो खाना परोसने वाले के मनसूबों पर मानो पानी फिर जाता है, उनका मिजाज ही बदल जाता है। वो इतनी सी बात के लिए हमें कुछ इस निगाह से देखने लगते हैं मानो हम इस दुनिया के सबसे बड़े कइयां हैं। उनका खाना परोसने का अंदाज ही बदल जाता है, गिलास में पानी खत्म हुआ देखकर भी पानी देर से लाना ताकि हम बोतल मंगवा लें,,खैर कितना लिखा जाए...
इन रेस्टोरेंट वालों को एक बात दिमाग में बिठा लेनी चाहिए कि चाहे वे अपने कामगारों को ये कितना भी क्रीम पाउडर लगवा लें, ब्लेजर पहनवा के तैयार कर लें, कितना भी थैंक्यू, प्लीज, सर, वेलकम वगैरह रटवा लें या ऐसे नाना प्रकार के घटिया मैनेजमेंट के गुर सिखाएं,हम जैसे देशी घुमक्कड़ जो बिना बोतल वाले पानी के सहारे आधा भारत नाप लेते हों, ऐसे लोगों को आप पानी की बोतलें नहीं टिका सकते, आपको हमारे आत्मबल का सम्मान करना ही चाहिए।

मैंने तो बचपन से यही सीखा है कि जहाँ आपको कोई प्रेम से खाना खिला रहा है तो खाना कैसा भी हो चलता है। लेकिन यहाँ तो पानी के नाम पर ही इतनी बेरूखी। वैसे बीस रुपए का पानी बोतल. लेने में कोई समस्या नहीं, समस्या तो सौ रुपए वाले थाली में भी नहीं न ही सौ रुपए के बिरयानी प्लेट में, बात सिर्फ और सिर्फ हमारे च्वाइस की है और हमारे उस च्वाइस के यथासंभव सम्मान की है। और जहाँ पैसे देकर भी हमारे च्वाइस का ऐसा अपमान हो वहाँ दुबारा जाने में अगर हमें घुटन न होती हो तो वाकई ये सचमुच हमारे इंसान होने पर एक प्रश्न चिन्ह की तरह है।