कोई अगर पूछे कि भारत के युवा पीढ़ी के सामने आज सबसे बड़ी समस्या क्या है तो मैं इन तीन शब्दों का नाम लेते हुए कहूंगा कि यही सबसे बड़ी समस्या है और यही सबसे बड़ी बीमारी भी है। असल में ये बीमारी थी नहीं लेकिन इसे कुछ इस तरीके से हमारे सामने परोस दिया गया है कि हम इससे आगे का कुछ सोच ही नहीं पा रहे। हमारी सोच इतनी संकुचित हो चुकी है कि हमारे लिए ये चुनिंदा विषय आज जीवन का अंतिम लक्ष्य तक बन चुके हैं, हम न इसके आगे का कुछ सोचना चाहते हैं न ही कुछ करना चाहते हैं।
हम इन्हीं विषयों के इर्द-गिर्द चर्चा कर खुद को संतुष्ट करने में ही लगे रहते हैं।
अभी कुछ समय से मैं अपने सालों पुराने दोस्तों से मिल रहा हूं। मिलने के बाद ऐसा लगा कि उनके जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य सेक्स, शादी और सैटल होना ही है। एचीवमेंट के नाम पर कोई अपनी होने वाली पत्नी की तस्वीरें, अपने घर, जमीन, गाड़ी वगैरह की बात करता है, तो कोई एचीवमेंट के नाम पर तरह-तरह की लड़कियों की तस्वीरें दिखाने लगता है, जिनसे उसने वर्तमान में संबंध बनाए। इस पूरे पागलपन को देखने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि नौकरी, शादी, सेक्स, घर, गाड़ी बस यही सब में उनकी जीवनशैली सिमट चुकी है। वे न चाहते हुए भी इस बने बनाये पैटर्न से अलग नहीं हो पा रहे, न ही कुछ नया कर पा रहे। उन्हें लगता होगा कि वे बड़ी अच्छी बातें कर रहे हैं, माॅडर्न हो गये, सभ्य हो गये, लाइफ को जीना सीख गये हैं वगैरह वगैरह। लेकिन वे तो जहां थे, वहीं के वहीं हैं, उनकी सोच में आज भी वही पुराना कचरा/मवाद भरा हुआ है। नया कुछ हुआ ही नहीं, नयेपन के नाम पर अगर कुछ हुआ है तो वो ये कि महंगा सा स्मार्टफोन आ गया है, महंगे ब्रांड वाले जूते,कपड़े और लाखों की बाइक, और तो और घर में महंगी कार भी आ चुकी है। यानि इतनी घटिया कंडिशनिंग हो चुकी है कि ये सब के चलते जो सबसे जरूरी चीज थी, मस्तिष्क का विकास, उसमें तो लगभग जंग लग चुका है, रचनाधर्मिता शून्य हो चुकी है।
फिर लगा कि क्या मेरे कुछ दोस्तों के साथ ही ऐसा है, नहीं। हर जगह यही हाल है, कुछ अपवादों को अलग कर दिया जाए तो मुख्यधारा में यही चल रहा है।
आज के युवा के लिए सेक्स किसी लाइफटाइम एचीवमेंट से कम नहीं है, वो इसे जीने-मरने का सवाल बनाने लगा है, उसके लिए दुनिया बस जो है यही है। संबंध बनाओ, खुश रहो, आज ये कल वो, माइलस्टोन सेट करते जाओ। ये सब भारत जैसे लो-मोराॅलिटी वाले देश में ही संभव है।
हवस, भूख और लालसा इतने चरम स्तर पर पहुंच चुकी है कि आज का युवा कैसे न कैसे करके अपने लिए अपार सुविधाएं हथिया लेना चाहता है, रोजगार की घोर कमी के बीच चंद सरकारी नौकरियों के लिए लगी मारामारी इस बात का संकेत है कि फलां को कैसे भी करके एक ठीक-ठाक सरकारी नौकरी चाहिए, हां नौकरी कैसी भी हो चलेगा। पसंद-नापसंद की बात बाद में, जीवन-मूल्यों की बात बाद में, मोटी कमाई और रुतबा होना चाहिए बस। एक बार लग गये नौकरी में, जीवन भर फुर्सत बैठे रहो। कोई किचकिच नहीं। और फिर इसके बाद क्या, सुंदर और सुशील बीवी भी तो चाहिए। सही मायनों में देखा जाए तो ये भी एक अलग ही प्रकार का बिजनेस बन चुका है। पूरे घर-परिवार समाज का ढांचा ऐसा बन पड़ा है कि पैरेंट्स भी बच्चों पर शादी के लिए दबाव बनाने लगते हैं, पढ़ी-लिखी लड़की, अच्छे घर की खोजबीन चालू, यानि एक ऐसा माहौल बन जाता है कि लगता है हम शादी करने के लिए ही इस धरती पर अवतरित हुए हैं, अब यही हमारे जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य है।
आज के पढ़े-लिखे माॅडर्न युवा को भी अपने लिए जीवनसाथी के रुप में एक ऐसी लड़की चाहिए जो खुद नौकरी में न हो और बढ़िया घर में रहे, हमने अच्छे-अच्छे अधिकारियों को ऐसा करते देखा है। वे असल में अपने लिए एक वस्तु खरीद रहे होते हैं डील कर रहे होते हैं, उन्हें असल में शादी के लिए लड़की नहीं चाहिए, एक सुंदर सी भोग्या वस्तु चाहिए। रिश्ता, प्रेम, भावनाएँ हां ये सब तो शादी के बाद आ ही जाएगा, नौकरी का ठाठ है, सब हो जाएगा। लड़कियां भी कम नहीं हैं, उन्हें इस नव-दासत्व में इतना मजा आता है, वे शादी के अगले दिन से ही अपने नाम और सरनेम के बीच अपने पति का नाम जोड़ लेती हैं।
अब लड़के भी महान, वे इतने महान होते हैं कि जब उनकी वस्तु रूपी पत्नी जब पेट से होती है तो वे दूसरी औरतों से बात करके अपना मन बहलाने लगते हैं। कम नहीं तो ज्यादा अधिकतर यही होता है, कोई पराई लड़कियों/महिलाओं से बातचीत/चैट करके मन बहलाता है तो कोई संबंध बना लेता है।
और लड़कियां भी अपने में मस्त, वो शाॅपिंग करके, सोना-चांदी खरीद के अपने ईगो का बराबर तुष्टीकरण करती है।
अब इन सबसे उलट एक तबका खोखले ब्रम्हचारियों का भी है, अब इनमें एक वो जो अपने कालेज लाइफ में मिली प्रेम की विफलता से क्रुद्ध होकर बीस की उम्र में जीवन भर अकेले रहने का फैसला ले लेते हैं, विपश्यना करने लगते हैं और फिर कुछ दिन बाद पता चलता है कि अगला किसी के साथ फिर से रिश्ते में है। एक तबका तीस के उम्र पार वालों का है, इनकी तो दुनिया ही अलग है, ये सालों तक दुनिया के सामने ब्रम्हचारी बने फिरते हैं, बुद्धम् शरणं गच्छामि का ढोंग करते हैं, हालांकि परदे के पीछे ये भी खूब अफेयर मारते हैं। जब आखिर में इन्हें पता चलता है कि अब इनसे नहीं हो पाएगा, कंट्रोल नहीं हो पा रहा,और अकेले नहीं रह पाएंगे। तो फिर वे सारा ढोंग त्याग कर मजबूरी में शादी कर लेते हैं। सनद रहे कि ऐसी शादियों का पसंद, नापसंद और आपसी प्रेम से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं होता, ये एक प्रकार का बिजनेस डील ही होता है।
स्वीकार करना नहीं करना आपके ऊपर, पर हकीकत तो यही है कि हम जिस पांच हजार साल पुरातन संस्कृति का गौरवगान करते रहते हैं, आज उसका दिवाला निकल चुका है, आज उस संस्कृति का वर्तमान धूमिल हो चुका है, और वो महान संस्कृति अपनी तमाम विसंगतियों को किनारे कर खुद को महान साबित करने की आंधी में बहने लगी है।
यानि हम खुद से इतना झूठ कैसे बोल सकते हैं?
हम स्वयं के साथ इतना बड़ा अन्याय कैसे कर सकते हैं?
हम क्यों ऐसी दोहरी जिंदगी जीते हैं??
आखिर क्यों????