इस किताब के माध्यम से लेखन के स्तर पर यह सीखने मिला कि भारत में हिन्दी साहित्य में लिखने वालों की एक बड़ी आबादी टेपरिकाॅर्डर और कापी पेन लेकर फुटनोट्स बनाते हुए ही किताब पर काम करती है। ऐसी किताबों की तासीर कुछ पेज पढ़ने के बाद ही समझ आ जाती है, एक दस्तावेज की तरह लिखी गई ऐसी किताबें लेखन के स्तर पर औसत ही होती हैं चाहे उनका दस्तावेजीकरण कितनी भी अच्छी भाषा, व्याकरण या शोध से होकर आया हो। विश्वविद्यालय के शोधकार्य वाले तर्ज में एक रिपोर्ट की तरह तैयार की गई इन किताबों की उम्र बहुत अधिक नहीं होती है। ऐसी किताबें खासकर मुझ जैसे पाठक को उतना अधिक प्रभावित नहीं कर पाती है।
दूसरे तरह की किताब ऐसी होती है जिसमें नयापन होता है, एक आग्रह दिखता है, एक भूख दिखती है, लेखन शब्द वाक्य सब कुछ एकदम शुध्द बहते पानी जैसा होता है, आप मन से ग्रहण कर लेते हैं, ऐसी किताबें अमूमन आंचलिकता की सीमाओं को चीरते हुए सबके लिए ग्रहण करने योग्य होती है, यह किताबें लंबे समय तक पाठकों के बीच अपनी जगह बनाती है, क्योंकि ऐसी किताबों के तैयार होने में वास्तव में एक मनुष्य का खून पसीना लगा होता है, एक किसान के लहलहाते खेत की तरह उसकी अपनी अलग तरह की मेहनत झलकती है, आपको महसूस होता है, सिर्फ भाषाई कलाबाजी या दस्तावेजीकरण नहीं होता है। मैंने अभी तक हिन्दी की बहुत सी किताबों की खाक छानने के बाद यह पाया है कि हिन्दी साहित्य में ऐसी किताबों की घोर कमी है। और ऐसी किताबें अगर आती भी हैं तो औसत किताबों का प्रचार करने वाले हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य कर्ता-धर्ता श्रीमान आदरणीय सम्मानीय वरिष्ठ सुधीजन इन किताबों को आगे बढ़ने ही नहीं देते हैं।
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