जिलाधीश को मिलने वाली सुविधाएँ बनाम भारतीय समाज का सामंती चरित्र -
जिलाधीश के कार्य -
भारत के जितने भी जिलाधीश हैं, चाहे वह छोटा या बड़ा जैसा भी जिला हो, जिनको भी एक जिले का दायित्व मिलता है, उन्हें लगभग 30 से 40 विभाग की माॅनिटरिंग करनी ही होती है, उसमें पुलिस विभाग, शिक्षा, स्वास्थ्य, राजस्व, खाद्य, वन विभाग, पंचायत, कृषि, जल संसाधन, नगरीय प्रशासन, नगर पालिका , लोक निर्माण विभाग, आबकारी, महिला बाल विकास आदि होते हैं। इसके अलावा एक पूरे जिले के मुखिया के रूप में कानून व्यवस्था बनाए रखने एवं अन्य दायित्व भी होते हैं।
जिलाधीश की सुविधाएं -
प्रत्येक जिलाधीश को एक गाड़ी मिलती है, इनोवा तक। कहीं कहीं यह भी नहीं मिलता है। मुझे लगा कि इनोवा इसलिए मिलता है क्योंकि ऐसे ऐसे सुदूर गाँवों तक भी जाना होता है, जहाँ रास्ते जर्जर होते हैं, खड्डों से भरे होते हैं और इनोवा की लक्जरी सस्पेंशन की वजह से गड्ढे ना के बराबर महसूस होते हैं। कलेक्टर के पास एक से दो ड्राइवर होते हैं, जो रोटेशन में गाड़ी चलाते हैं क्योंकि सप्ताह भर खूब भागा दौड़ी वाला काम लगा रहता है। एक सुरक्षाकर्मी भी मिलता है ताकि कोई भी जिले के जिलाधीश की जब चाहे घेरेबंदी न कर ले, क्योंकि एक जिले का पूरा दायित्व जिलाधीश के कंधों पर होता है। उसके एक दस्तखत से चीजें इधर उधर हो सकती हैं। इसके अलावा जिलाधीश के अपने दैनिक दिनचर्चा की चीजों को आसान करने के लिए भी लोग होते हैं इसमें आप खानसामा से लेकर फाइल लाने ले जाने वाले चपरासी स्टेनो ये सब को जोड़ते चलिए।
भारतीय समाज का सामंती चरित्र -
आज के समय में एक सरपंच ग्राम सचिव से लेकर एक छोटा व्यापारी या एक छोटे से कालेज का नवनर्मित युवा नेता भी एक ठीक ठाक कार मैंटेन करता है। कुछ लोग ड्राइवर भी रखते हैं। लोवर मिडिल क्लास में भी बहुत से घरों में काम करने के लिए कर्मचारी रखते हैं, खानसामा रखते हैं। यह सब बताने का अर्थ यह है कि जैसे ही भारत के समाज में लोगों के पास थोड़ी आर्थिक संपन्नता आती है, वह तुरंत सामंतवाद को जीने लग जाता है, वह उन राजसी सुविधाओं को जीने लगता है जो एक जिलाधीश को दिया जाता है, कई बार यह भी देखने में आता है कि एक जिलाधीश से कहीं अधिक मात्रा में राजसी सुविधाओं का भोग करते हैं। ऐसा नहीं है कि जिलाधीश के पद ने ही अलग से इन सुविधाओं का भोग करने की शुरूआत की।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि -
इतिहास की बात करें तो हजारों वर्षों से हमारे यहाँ यही व्यवस्था चल रही थी, अंग्रेज आए उन्होंने भी इन चीजों को देखा। उन्होंने इस माॅडल में जितना परिवर्तन करना था किया। शिक्षा, स्वास्थ्य, महिलाओं की स्थिति इन बड़े मामलों में आमूलचूल परिवर्तन किए ताकि जीने लायक स्थिति तो करके जाएं, क्योंकि इंसान जीवित रहेगा तो ठोक पीट के अपने लिए रास्ता निकाल ही लेगा। लेकिन इसके बावजूद जो मूल ढांचा था वह इतना जड़ था, सामंतवाद की जड़ें इतनी गहरी थी, तो अंग्रेजो ने भी उसी माॅडल के अनुरूप अपना प्रशासनिक ढांचा बनाया और आराम से दो सौ साल रह के गये। आज भी वही ढांचा कायम है। अब आप इसमें जिसको दोष देना चाहें दे सकते हैं, वैसे जहाँ तक दोष देने की बात है तो सबसे पहले हमें खुद को, पहले से चली आ रही पुरातन व्यवस्था को दोष देना चाहिए जिसकी खराबियों के प्रति हमारा मोह खत्म हो ही नहीं पाता है, मानों गूणसूत्र में समा चुका है।
मेरी धारणा -
बहुत लंबे समय तक मैं इस धारणा पर टिका रहा कि एक जिले के जिलाधीश तमाम तरह की राजसी सुविधाओं से लैस रहता है, अनाप शनाप शक्तियाँ होती है, सामंतवाद की घुट्टी पीता रहता है, समाज के खोखलेपन में योगदान देता है, खोखले आदर्शों को जीकर महानता का स्वांग रचता है, सफेद घोड़ा होता है आदि आदि। लेकिन आज मेरी धारणा अलग है। हमें खुद से सवाल करने की जरूरत है कि क्या इस देश में सिर्फ एक जिलाधीश का पद ही सामंती होता है, क्या एक जिलाधीश के पद के अलावा देश में मौजूद सारे पद, सारे लोग, उनकी मानसिकता ऐसी नहीं होती है।
ध्यान से देखें तो समझ आता है कि जो रौब एक जिलाधीश लेकर चलता है, उसी तरह से एक नवनियुक्त कालेज के युवा नेता या व्यापारी भी अपने भीतर एक आदमी रखता है, चाहे वह प्यून हो या कोई और, उसे किसी को फोन करना है, तो प्यून को फोन करके बोलेगा, फिर ड्राइवर या प्यून कहता है कि फलाना भैया बात करेगे। अब इस पूरे प्रोसेस को समझिए। ठीक यही प्रोसेस कलेक्टर भी जीता है, जैसे उसके सामने प्यून या स्टेनो रहता है तो कहता है कि फलां को फोन लगाइए और बात करवाइए, इसमें कई बार यह संभावना रहती है कि एक जिलाधीश के पास हर विभाग के नये अधिकारी का नंबर नहीं है या नंबर खोज के लगाने में समय जाया होगा, अब प्यून या स्टेनो सेवा के लिए है ही इसलिए तुरंत स्टेनो को कह देता है। ठीक उसी तरह एक छुटभैया नेता या व्यापारी भी इसी सामंतवादी भाव को जीने का सुख लेता है। इसी तर्ज में भारत का हर व्यक्ति अपने अपने स्तर पर प्रयासरत रहता है। व्यवस्था की यही ताकत है, वह जड़ है, अपने गुणधर्मों से सबको अपने भीतर समाहित कर लेती है और किसी को इस बात का पता तक नहीं चलता है।
जिलाधीश को अगर प्राप्त सुविधाएं न मिले उस स्थिति में क्या होगा -
एक जिलाधीश जो तीन चार दर्जन विभाग की माॅनिटरिंग करता है, पूरे जिले के मुखिया का दायित्व संभालता है, दुनिया के किसी जिलाधीश के ऊपर काम का इतना दबाव नहीं रहता है, भारत का जिलाधीश एक अलग ही प्राणी होता है। कहने का अर्थ यह है कि उसका एक-एक मिनट कीमती होता है, थोड़ी भी फुर्सत नहीं रहती है, ऐसी स्थिति में अगर वह समाज में चले आ रहे सामंतवाद को किनारे कर सुबह से उठकर अपने सारे कपड़े धोएगा, खुद सब्जी खरीदने जाएगा, फिर अपने लिए नाश्ता खाना बनाएगा, बच्चों के लिए टिफिन पैक कर खुद गाड़ी भी चलाएगा, अपने आफिस का सारा काम-काज भी अकेले देखेगा, किसी भी विभाग से कोई फाइल चाहिए होगी, खुद जाएगा। सोच कर देखिए अगर एक जिलाधीश यही सब में रोजमर्रा का जीवन जी रहे एक व्यक्ति की तरह उलझा रहेगा तो फिर उसके ऊपर जो बाकी विभागों और जिले को संभालने के लिए ऊर्जा चाहिए वह कहाँ से आएगी। ये मेरा बहुत छिछला सा आब्जर्वेशन है जिसका आप खंडन करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि मैं खुद इस बात को या इस पोस्ट में लिखी जा रही बात को पूरे अधिकार से अंतिम मानकर नहीं चल रहा हूं।
आजादी का समय -
पहले मैं इस धारणा को भी मानता रहा कि आजाद देश के लिए व्यवस्था का निर्माण करने वाले नेहरू गाँधी को भी यह सब अव्यवस्था क्यों नहीं दिखी। या कानून बनाने वाले कानून मंत्री को क्यों नहीं दिखाई दिया। असल में उनको दिखा था। और उन्हें यह अच्छे से पता था कि भारत के आम लोग की पहली पसंद ही सामंतवाद है, उन्हें पता था कि प्रेम, विनम्रता, अहिंसा, लोकतांत्रिक भाव इन मूल्यों के लिए समाज में जगह बहुत कम है, इसीलिए वे आजीवन इन्हीं जीवन मूल्यों को आत्मसात कराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाते रहे। उन्हें पता था कि भारत के आम लोगों को यह अच्छा लगता है कि कोई उनको दबा कर नीचा दिखा कर रखे, या उनके इशारे पर गाड़ी का दरवाजा खोल दे या ऐसा कुछ काम कर दे। उनके ऐसे किसी आदेश की पालना कर दे जिसमें राजसी भाव हो, इस तरह से उन्हें किसी को अपने नीचे रखकर काम कराकर राजसी भोग वाले भाव को जीने में या ऐसा होता देखकर अपार खुशी मिलती है, क्योंकि सदियों से समाज में यही चला आ रहा होता है। इसलिए उस समय के जनवादियों ने आम लोगों के बीच ही जितना बन पड़ा जागरूकता का प्रचार-प्रसार किया, क्योंकि गाँधी जैसे लोग यह जानते थे कि आम लोग ही व्यवस्था का निर्माण करते हैं, जैसे लोग होते हैं, जैसी उनकी मानसिकता होती है, व्यवस्था उसी अनुरूप ही तैयार होती है।
पूरी दुनिया दूसरी दिशा में आगे बढ़ रही थी, पुनर्जागरण के दौर के बाद नये-नये आविष्कार हो रहे थे, स्वतंत्रता समानता बंधुत्व जैसे जीवन मूल्यों को परिभाषित कर मानवीय मूल्यों की नयी गाथा रची जा रही थी, लेकिन हम उसी पुरानी व्यवस्था को नये कलेवर में स्वीकार करने की दिशा में आगे बढ़ रहे थे। और ऐसा हो भी क्यों न, जब कपड़ा धोने के लिए हमारे पास जाति है तो हमें वाशिंग मशीन का आविष्कार करने की क्या जरूरत। लोहे की कटिंग करने के लिए लेथ मशीन का आविष्कार हम नहीं कर पाए, क्योंकि हमारे पास उसके लिए भी एक जाति मौजूद थी। लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों के नाम पर हमारे पास आस्था का जखीरा था। खैर...
दादाजी कहा करते - राजशाही व्यवस्था कहाँ खत्म हुई है, बस नाम बदला है, अब राष्ट्र स्तर के राजा को पीएम, राज्य स्तर के राजा को सीएम और जिले स्तर के राजा को डीएम कहा जाता है। बाकी मानसिकता के स्तर पर सब कुछ वैसा ही है, लोकतंत्र कागज से नहीं इंसान के अपने भीतर से पैदा होता है, कैसी भी व्यवस्था हो, एक अकेला इंसान भी चाहे तो वह उस व्यवस्था में रहते हुए अपने भीतर लोकतांत्रिक मूल्यों को जी सकता है।
अंत में यही कि एक जिले के जिलाधीश को वैसी ही सुविधाएं मिलती है, जैसा समाज में लंबे समय से प्रचलन में चला आ रहा होता है। इसलिए भी समाज कभी भी उस व्यवस्था के खिलाफ जाकर उसका विरोध नहीं करता है, बल्कि उसके प्रति लगाव और मोह रखता है, क्योंकि खुद भी उन्हीं जीवन मूल्यों को जीता रहता है।
इति...