Saturday, 31 December 2022

स्वास्थ्य और नया साल -

हमारे चलने-फिरने या अन्य हर तरह की दैनिक गतिविधि में मशीन हावी हो चुका है। मशीनों की सहायता लेना ठीक है लेकिन हर चीज की अपनी एक सीमा होती है। नये साल में खूब सारे स्वास्थ्य संबंधी अपडेट आपको असहज कर सकते हैं, खूब सारे स्क्रीनशाट तैरते हुए मिलेंगे कि आज फलां ने इतना किलोमीटर पैदल चला, इसने इतनी किलोमीटर की दौड़ लगाई, इतना किलो वजन कम/अधिक करने का लक्ष्य रखा है आदि। खूब सारे कसमें वादे करते हुए लोग दिखेंगे, कुछ लोग अपना कहा पूरा भी करेंगे लेकिन जो अपने शरीर को लेकर सहज है सजग है उसे हमेशा भ्रम से बचना चाहिए। शरीर को मशीन बनने से बचना चाहिए, गलत धारणाएं पालने से बचना चाहिए। क्योंकि अपने शरीर का सबसे बड़ा चिकित्सक इंसान स्वयं होता है। 

आजकल कलाई बंद घड़ी आ गई है, जो आपकी एक एक चीज माॅनीटर करती है, आपके पैदल चलने के स्टेप से लेकर हार्ट रेट तक का लेखा जोखा आपको देती है। बहुत लोग ऐसी मशीनों के साथ सहज रहते हैं, बहुत सुविधा भी है, लेकिन मुझे बड़ी असहजता महसूस होती है, ऐसा लगता है मानो हर दिन कोई परीक्षा हो रही है, कोई माॅनीटर कर रहा है। अरे भाई इंसान डेटा नहीं है, इंसान संख्या नहीं है। अब इसमें समस्या यह आती है कि घड़ी लगाकर घूमने वाले का एक एक कदम उसके लेखा जोखा में शामिल होता है। उसके निवृति कक्ष जाने से लेकर सीढ़ी चढ़ने तक, हर एक गतिविधि जुड़ती है, ऊपर से एक मानसिक दबाव भी रहता है, जिससे वह दिन भर में 5 से 10 किलोमीटर चल ही लेता है। इस तरह से अगर एक सामान्य व्यक्ति का भी औसत देखें तो एक घर में रहने वाला भी दो चार कमरे और घर से बाहर आंगन में निकलने में ही 2-4 किलोमीटर पैदल चलता ही है। गाँव में रहने वाला व्यक्ति तो और अधिक पैदल चलता है। लेकिन जो घड़ी नहीं पहनता है, वह इन बड़े आंकड़ों को देखकर घबरा जाता है कि वह तो स्वास्थ्य के नाम पर कुछ भी नहीं कर रहा है।

दूसरा भ्रम पैदा होता है ट्रेडमिल से। आजकल बहुत से सुविधाभोगी आधुनिक परिवारों में ट्रेडमिल की सुविधा है। ट्रेडमिल में इंसान आराम से पैदल चलता है, कान में इयरफोन लगाए वह एक जगह रहकर खूब पैदल चल लेता है, दौड़ लेता है। आपको बाहर की हवा नहीं लगती है, जिससे आप जल्दी नहीं थकते हैं। कुल मिलाकर बहुत सुविधा वाली चीज है। इसमें भी वह आंकड़े में बहुत आगे निकल जाता है। इसे ऐसा समझा जाए कि कोई अगर मशीन में चलकर 10 किलोमीटर का आंकड़ा दे रहा है, और आप खुले वातावरण में 5 किलोमीटर भी चलते हैं, तो यह मानकर चलें कि आप मशीन वालों से एक कदम आगे है। बड़े बड़े आंकड़ों वाले स्क्रीनशाॅट अपलोड करने वाले अधिकतर मशीन वाले लोग हैं, इनसे बचिए। मशीन बनने से परहेज करिए। 

नये साल की शुभकामनाएँ।

Sunday, 25 December 2022

जिलाधीश को मिलने वाली सुविधाएँ बनाम भारतीय समाज का सामंती चरित्र -

जिलाधीश को मिलने वाली सुविधाएँ बनाम भारतीय समाज का सामंती चरित्र -

जिलाधीश के कार्य - 
भारत के जितने भी जिलाधीश हैं, चाहे वह छोटा या बड़ा जैसा भी जिला हो, जिनको भी एक जिले का दायित्व मिलता है, उन्हें लगभग 30 से 40 विभाग की माॅनिटरिंग करनी ही होती है, उसमें पुलिस विभाग, शिक्षा, स्वास्थ्य, राजस्व, खाद्य, वन विभाग, पंचायत, कृषि, जल संसाधन, नगरीय प्रशासन, नगर पालिका , लोक निर्माण विभाग, आबकारी, महिला बाल विकास आदि होते हैं। इसके अलावा एक पूरे जिले के मुखिया के रूप में कानून व्यवस्था बनाए रखने एवं अन्य दायित्व भी होते हैं। 

जिलाधीश की सुविधाएं - 
प्रत्येक जिलाधीश को एक गाड़ी मिलती है, इनोवा तक। कहीं कहीं यह भी नहीं मिलता है। मुझे लगा कि इनोवा इसलिए मिलता है क्योंकि ऐसे ऐसे सुदूर गाँवों तक भी जाना होता है, जहाँ रास्ते जर्जर होते हैं, खड्डों से भरे होते हैं और इनोवा की लक्जरी सस्पेंशन की वजह से गड्ढे ना के बराबर महसूस होते हैं। कलेक्टर के पास एक से दो ड्राइवर होते हैं, जो रोटेशन में गाड़ी चलाते हैं क्योंकि सप्ताह भर खूब भागा दौड़ी वाला काम लगा रहता है। एक सुरक्षाकर्मी भी मिलता है ताकि कोई भी जिले के जिलाधीश की जब चाहे घेरेबंदी न कर ले, क्योंकि एक जिले का पूरा दायित्व जिलाधीश के कंधों पर होता है। उसके एक दस्तखत से चीजें इधर उधर हो सकती हैं। इसके अलावा जिलाधीश के अपने दैनिक दिनचर्चा की चीजों को आसान करने के लिए भी लोग होते हैं इसमें आप खानसामा से लेकर फाइल लाने ले जाने वाले चपरासी स्टेनो ये सब को जोड़ते चलिए।  

भारतीय समाज का सामंती चरित्र - 
आज के समय में एक सरपंच ग्राम सचिव से लेकर एक छोटा व्यापारी या एक छोटे से कालेज का नवनर्मित युवा नेता भी एक ठीक ठाक कार मैंटेन करता है। कुछ लोग ड्राइवर भी रखते हैं। लोवर मिडिल क्लास में भी बहुत से घरों में काम करने के लिए कर्मचारी रखते हैं, खानसामा रखते हैं। यह सब बताने का अर्थ यह है कि जैसे ही भारत के समाज में लोगों के पास थोड़ी आर्थिक संपन्नता आती है, वह तुरंत सामंतवाद को जीने लग जाता है, वह उन राजसी सुविधाओं को जीने लगता है जो एक जिलाधीश को दिया जाता है, कई बार यह भी देखने में आता है कि एक जिलाधीश से कहीं अधिक मात्रा में राजसी सुविधाओं का भोग करते हैं। ऐसा नहीं है कि जिलाधीश के पद ने ही अलग से इन सुविधाओं का भोग करने की शुरूआत की।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि -
इतिहास की बात करें तो हजारों वर्षों से हमारे यहाँ यही व्यवस्था चल रही थी, अंग्रेज आए उन्होंने भी इन चीजों को देखा। उन्होंने इस माॅडल में जितना परिवर्तन करना था किया। शिक्षा, स्वास्थ्य, महिलाओं की स्थिति इन बड़े मामलों में आमूलचूल परिवर्तन किए ताकि जीने लायक स्थिति तो करके जाएं, क्योंकि इंसान जीवित रहेगा तो ठोक पीट के अपने लिए रास्ता निकाल‌ ही लेगा। लेकिन इसके बावजूद जो मूल ढांचा था वह इतना जड़ था, सामंतवाद की जड़ें इतनी गहरी थी, तो अंग्रेजो ने भी उसी माॅडल के अनुरूप अपना प्रशासनिक ढांचा बनाया और आराम से दो सौ साल रह के गये। आज भी वही ढांचा कायम है। अब आप इसमें जिसको दोष देना चाहें दे सकते हैं, वैसे जहाँ तक दोष देने की बात है तो सबसे पहले हमें खुद को, पहले से चली आ रही पुरातन व्यवस्था को दोष देना चाहिए जिसकी खराबियों के प्रति हमारा मोह खत्म हो ही नहीं पाता है, मानों गूणसूत्र में समा चुका है।

मेरी धारणा - 
बहुत लंबे समय तक मैं इस धारणा पर टिका रहा कि एक जिले के जिलाधीश तमाम तरह की राजसी सुविधाओं से लैस रहता है, अनाप शनाप शक्तियाँ होती है, सामंतवाद की घुट्टी पीता रहता है, समाज के खोखलेपन में योगदान देता है, खोखले आदर्शों को जीकर महानता का स्वांग रचता है, सफेद घोड़ा होता है आदि आदि। लेकिन आज मेरी धारणा अलग है। हमें खुद से सवाल करने की जरूरत है कि क्या इस देश में सिर्फ एक जिलाधीश का पद ही सामंती होता है, क्या एक जिलाधीश के पद के अलावा देश में मौजूद सारे पद, सारे लोग, उनकी मानसिकता ऐसी नहीं होती है।

ध्यान से देखें तो समझ आता है कि जो रौब एक जिलाधीश लेकर चलता है, उसी तरह से एक नवनियुक्त कालेज के युवा नेता या व्यापारी भी अपने भीतर एक आदमी रखता है, चाहे वह प्यून हो या कोई और, उसे किसी को फोन करना है, तो प्यून को फोन करके बोलेगा, फिर ड्राइवर या प्यून कहता है कि फलाना भैया बात करेगे। अब इस पूरे प्रोसेस को समझिए। ठीक यही प्रोसेस कलेक्टर भी जीता है, जैसे उसके सामने प्यून या स्टेनो रहता है तो कहता है कि फलां को फोन लगाइए और बात करवाइए, इसमें कई बार यह संभावना रहती है कि एक जिलाधीश के पास हर विभाग के नये अधिकारी का नंबर नहीं है या नंबर खोज के लगाने में समय जाया होगा, अब प्यून या स्टेनो सेवा के लिए है ही इसलिए तुरंत स्टेनो को कह देता है। ठीक उसी तरह एक छुटभैया नेता या व्यापारी भी इसी सामंतवादी भाव को जीने का सुख लेता है। इसी तर्ज में भारत का हर व्यक्ति अपने अपने स्तर पर प्रयासरत रहता है। व्यवस्था की यही ताकत है, वह जड़ है, अपने गुणधर्मों से सबको अपने भीतर समाहित कर लेती है और किसी को इस बात का पता तक नहीं चलता है।

जिलाधीश को अगर प्राप्त सुविधाएं न मिले उस स्थिति में क्या होगा -
एक जिलाधीश जो तीन चार दर्जन विभाग की माॅनिटरिंग करता है, पूरे जिले के मुखिया का दायित्व संभालता है, दुनिया के किसी जिलाधीश के ऊपर काम का इतना दबाव नहीं रहता है, भारत का जिलाधीश एक अलग ही प्राणी होता है। कहने का अर्थ यह है कि उसका एक-एक मिनट कीमती होता है, थोड़ी भी फुर्सत नहीं रहती है, ऐसी स्थिति में अगर वह समाज में चले आ रहे सामंतवाद को किनारे कर सुबह से उठकर अपने सारे कपड़े धोएगा, खुद सब्जी खरीदने जाएगा, फिर अपने लिए नाश्ता खाना बनाएगा, बच्चों के लिए टिफिन पैक कर खुद गाड़ी भी चलाएगा, अपने आफिस का सारा काम-काज भी अकेले देखेगा, किसी भी विभाग से कोई फाइल चाहिए होगी, खुद जाएगा। सोच कर देखिए अगर एक जिलाधीश यही सब में रोजमर्रा का जीवन जी रहे एक व्यक्ति की तरह उलझा रहेगा तो फिर उसके ऊपर जो बाकी विभागों और जिले को संभालने के लिए ऊर्जा चाहिए वह कहाँ से आएगी। ये मेरा बहुत छिछला सा आब्जर्वेशन है जिसका आप खंडन करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि मैं खुद इस बात को या इस पोस्ट में लिखी जा रही बात को पूरे अधिकार से अंतिम मानकर नहीं चल रहा हूं।

आजादी का समय -
पहले मैं इस धारणा को भी मानता रहा कि आजाद देश के लिए व्यवस्था का निर्माण करने वाले नेहरू गाँधी को भी यह सब अव्यवस्था क्यों नहीं दिखी। या कानून बनाने वाले कानून मंत्री को क्यों नहीं दिखाई दिया। असल में उनको दिखा था। और उन्हें यह अच्छे से पता था कि भारत के आम लोग की पहली पसंद ही सामंतवाद है, उन्हें पता था कि प्रेम, विनम्रता, अहिंसा, लोकतांत्रिक भाव इन मूल्यों के लिए समाज में जगह बहुत कम है, इसीलिए वे आजीवन इन्हीं जीवन मूल्यों को आत्मसात कराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाते रहे। उन्हें पता था कि भारत के आम‌ लोगों को यह अच्छा लगता है कि कोई उनको दबा कर नीचा दिखा कर रखे, या उनके इशारे पर गाड़ी का दरवाजा खोल दे या ऐसा कुछ काम कर दे। उनके ऐसे किसी आदेश की पालना कर दे जिसमें राजसी भाव हो, इस तरह से उन्हें किसी को अपने नीचे रखकर काम कराकर राजसी भोग वाले भाव को जीने में या ऐसा होता देखकर अपार खुशी मिलती है, क्योंकि सदियों से समाज में यही चला आ रहा होता है। इसलिए उस समय के जनवादियों ने आम लोगों के बीच ही जितना बन पड़ा जागरूकता का प्रचार-प्रसार किया, क्योंकि गाँधी जैसे लोग यह जानते थे कि आम लोग ही व्यवस्था का निर्माण करते हैं, जैसे लोग होते हैं, जैसी उनकी मानसिकता होती है, व्यवस्था उसी अनुरूप ही तैयार होती है। 

पूरी दुनिया दूसरी दिशा में आगे बढ़ रही थी, पुनर्जागरण के दौर के बाद नये-नये आविष्कार हो रहे थे, स्वतंत्रता समानता बंधुत्व जैसे जीवन मूल्यों को परिभाषित कर मानवीय मूल्यों की नयी गाथा रची जा रही थी, लेकिन हम उसी पुरानी व्यवस्था को नये कलेवर में स्वीकार करने की दिशा में आगे बढ़ रहे थे। और ऐसा हो भी क्यों न, जब कपड़ा धोने के लिए हमारे पास जाति है तो हमें वाशिंग मशीन का आविष्कार करने की क्या जरूरत। लोहे की कटिंग करने के लिए लेथ मशीन का आविष्कार हम नहीं कर पाए, क्योंकि हमारे पास उसके लिए भी एक जाति मौजूद थी। लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों के नाम पर हमारे पास आस्था का जखीरा था। खैर...

दादाजी कहा करते - राजशाही व्यवस्था कहाँ खत्म हुई है, बस नाम बदला है, अब राष्ट्र स्तर के राजा को पीएम, राज्य स्तर के राजा को सीएम और जिले स्तर के राजा को डीएम कहा जाता है। बाकी मानसिकता के स्तर पर सब कुछ वैसा ही है, लोकतंत्र कागज से नहीं इंसान के अपने भीतर से पैदा होता है, कैसी भी व्यवस्था हो, एक अकेला इंसान भी चाहे तो वह उस व्यवस्था में रहते हुए अपने भीतर लोकतांत्रिक मूल्यों को जी सकता है।

अंत में यही कि एक जिले के जिलाधीश को वैसी ही सुविधाएं मिलती है, जैसा समाज में लंबे समय से प्रचलन में चला आ रहा होता है। इसलिए भी समाज कभी भी उस व्यवस्था के खिलाफ जाकर उसका विरोध नहीं करता है, बल्कि उसके प्रति लगाव और मोह रखता है, क्योंकि खुद भी उन्हीं जीवन मूल्यों को जीता रहता है। 

इति...

स्त्रियों की वर्तमान स्थिति में पोथी पुराण की भूमिका -

स्त्रियों की आज जो स्थिति है, उसका कारण पीछे का एक लंबा इतिहास रहा है। जब भी आप स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार/शोषण की खबर सुनें या जब भी आपकी बहन मित्र पत्नी माता को कोई घूरे या बुरी नजर से देखे तो इतिहास पर एक झलक जरूर डाल लीजिएगा क्योंकि कारण वहीं छुपा हुआ है। प्राचीन काल के श्रुति परंपरा से लेकर आज हमने डिजिटल युग तक की दूरी तय कर ली है। भोजपत्र से स्मार्टफोन तक हम पहुंचे हैं, लेकिन कुछ चीजें जस की तस हैं। वैसे भी एक मानसिकता के बनने में और उसे बदलने में दशकों सदियों का समय लग जाता है। अब जैसा पढ़ेगा इंडिया, वैसा बनेगा इंडिया।

इतिहास की कुछ झलकियाँ पढ़ लीजिए -

मनुस्मृति :
(अध्याय-9, श्लोक-45 ) - पति पत्नी को छोड़ सकता है, गिरवी रख सकता है, बेच सकता है.

ऐतरेय ब्राह्मण 
(3/24/27) वही नारी उत्तम है जो पुत्र को जन्म दे। 
(35/5/2/47) पत्नी एक से अधिक पति ग्रहण नहीं कर सकती, लेकिन पति चाहे कितनी भी पत्नियां रखे। 

आपस्तब 
(1/10/51/52) बोधयान धर्म सूत्र (2/4/6) शतपथ ब्राह्मण (5/2/3/14) जो नारी अपुत्र है उसे त्याग देना चाहिए। 

तैत्तिरीय संहिता 
(6/6/4/3) पत्नी आजादी की हकदार नहीं है। 

शतपथ ब्राह्मण 
(9/6) केवल सुन्दर पत्नी ही अपने पति का प्रेम पाने की अधिकारिणी है। 

बृहदारण्यक उपनिषद् 
(6/4/7) यदि पत्नी सम्भोग के लिए तैयार न हो तो उसे खुश करने का प्रयास करो। यदि फिर भी न माने तो उसे पीट-पीट कर वश में करो।

मैत्रायणी संहिता 
(3/8/3) नारी अशुभ है। यज्ञ के समय नारी, कुत्ते व शूद्र को नहीं देखना चाहिए। अर्थात् नारी और शूद्र कुत्ते के समान हैं। 
(1/10/11) नारी तो एक पात्र (बरतन) समान है। 

महाभारत 
(12/40/1) नारी से बढ़कर अशुभ कुछ नहीं है। इनके प्रति मन में कोई ममता नहीं होनी चाहिए। 
(6/33/32) पिछले जन्मों के पाप से नारी का जन्म होता है । 

मनुस्मृति 
(5/157) विधवा का विवाह करना घोर पाप है। 

विष्णुस्मृति
स्त्री को सती होने के लिए उकसाया गया है।

शंख स्मृति
दहेज देने के लिए प्रेरित किया गया है। 

स्कन्द पुराण
नारी के विधवा होने पर उसके बाल काट दो, सफेद कपड़े पहना दो और उसको खाना केवल इतना दो कि वह जीवित रह सके। उसका पुनः विवाह करना पाप है। इसी कारण सती प्रथा का प्रचलन हुआ। विधवा औरत ने सोचा कि इससे अच्छा तो पति के साथ ही जलकर मरना।

Sunday, 11 December 2022

अश्वघोष बनिए

अश्वघोष का जन्म अयोध्या में माना जाता है। बौध्द महाकवि के रूप में विख्यात अश्वघोष के व्यक्तित्व के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं मिलती है, लेकिन इनका जो सबसे बड़ा योगदान रहा वो यह था कि इन्होंने गौतम बुध्द को वैश्विक पटल पर स्थापित किया‌। बुध्दचरित और बुध्द के जीवन से जुड़े अन्य ग्रंथ इन्होंने ही लिखे, अच्छे से डाक्यूमेंटेशन का काम किया। तभी जाकर आज हम बुध्द को जानते हैं। बुध्द के आज अस्तित्व में होने में अश्वघोष जैसे महाकवियों का बहुत बड़ा योगदान है। अश्वघोष न होते तो बुध्द की ख्याति होती ही नहीं। अश्वघोष ने डाक्यूमेंटेशन का काम न किया होता तो आज बुध्द की तमाम बातों से हम वंचित ही रह जाते। तेनजिंग नोरके माउंट एवरेस्ट चढ़ने वाला पहला आदमी बना, लेकिन क्या पता उससे पहले भी चढ़ाई करने वाला कोई होगा और उसने उस बात को कभी लोगों के बीच रखा ही नहीं होगा, यह सोचकर कि ये भी कोई बताने वाली चीज है। ऐसे ही होता है। धतूरे के फल में जहर होता है यह खाकर बताने वाला कौन था, हमें नहीं मालूम, क्योंकि डाक्यूमेंट नहीं किया गया। दुनिया में जिन लोगों के भीतर थोड़ी समझदारी रही है उन्होंने हमेशा अपनी चीजों का डाक्यूमेंटेशन का काम किया है, चाहे आप उसमें एक छोटे से उदाहरण के रूप में फ्रेम की हुई फैमिली फोटो को ही ले लीजिए, जिसमें नीचे सबके नाम लिखे हुए होते हैं। क्रिस्टोफर कोलंबस ने अमेरिका खोजा और वास्को डि गामा ने भारत, इससे पहले भी इन भू-भागों का अस्तित्व था लेकिन इन्होंने उस खोज को ऐसा डाक्यूमेंट किया कि हमेशा के लिए दर्ज हो गये। बहुत से ऐसे लोग होते हैं, जिन्हें गुमनामी से इतना लगाव होता है कि आते हैं और चुपचाप चले जाते हैं, कभी उनके बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाती है। जो भी कोई कुछ बेहतर कर रहा है, उसे अपनी चीजों का लेखा-जोखा तैयार रखना ही चाहिए। यह डिजिटलीकरण और सामान्यीकरण का युग है। अभी ऐसा हो रहा है कि आप जो काम कर रहे हैं, कोई दूसरा आपका 10% काम भी नहीं कर रहा होता है लेकिन वो व्यक्ति डाक्यूमेंटेशन के काम में इतना पारंगत होता है कि आपसे आगे निकल जाता है, आप पीछे रह जाते हैं और खुद के भीतर कमियाँ खोजने लग जाते हैं कि आखिर क्या चूक हुई, कहाँ कमी रह गई। अंततः आपको निराशा घेरने लगती है, तमाम तरह की नकारात्मकता आप पर हावी होने लगती है। दस प्रतिशत काम करने वाला अपने काम को सौ प्रतिशत बनाकर दिखा देता है, लेकिन आप शत प्रतिशत काम करने के बावजूद उस काम का दस प्रतिशत भी दिखा नहीं पाते हैं। कमी सिर्फ और सिर्फ डाक्यूमेंटेशन ना करने की है। आप काम तो करते ही हैं, और अगर आप अपने ही उस काम‌ को दस्तावेज के रूप में सहेज लें, तो इसमें क्या गलत है, आपको निराशा नहीं घेरेगी, आप अनावश्यक मानसिक अपवंचनाओं से बच जाएंगे और बदले में आपके पास अपने काम का एक दस्तावेज भी होगा। जिस तरह सरकारें मार्च के अंत में अपना हिसाब-किताब करती है, उसी तरह हम भी यह काम करें। हर उस व्यक्ति को जिसे थोड़ा भी यह लगता है कि वह जीवन में कुछ बेहतर कर रहा है उसे साल के अंत में पूरे साल का क्या हासिल रहा, इसे डाक्यूमेंट करना ही चाहिए, अपने भले के लिए करें। महाकवि अश्वघोष, कल्हण, टोडरमल इन लोगों ने यही काम किया था तभी हमारे पास आज एक विशद इतिहास है।