Tuesday, 20 July 2021

पुरूष बनाम रसोई

जिन लड़कों ने कई दशकों तक माताओं बहनों को ही किचन में समय खपाते देखा हो, ऐसे लड़के आगे जाकर मास्टरशेफ भी क्यों न हो जाएं, यह एक मानसिकता उसके भीतर रहती ही है कि किचन से जुड़ा काम पुरूषों के हिस्से का काम नहीं है।

जिस तरह जातिवाद नामक जहरीले साँप ने लोहे का काम करने वालों को उसी में ही सीमित कर दिया गया और उनकी जाति लोहार हो गई, तेल बेचने वालों की तेली हो गई, घड़ा बनाने वाले कुम्हार हो गये, मंत्र जाप करने वाले पुरोहित हो गये। ठीक इसी तरह स्त्रियाँ भी रसोईघर का पर्याय हो गई।

एक लड़का घर के सारे काम कर लेगा, लेकिन आज भी पानी का एक गिलास कुर्सी में बैठ के उसे उसकी माता या बहन के हाथों से ही चाहिए, इसमें सही गलत या प्रेम जैसा कुछ नहीं है, बस कडिंशनिंग की बात है, जिसे हमारा मस्तिष्क दशकों से ढोता आ रहा होता है। आप हम सभी इससे पीड़ित हैं, कोई बचा नहीं है।

ऐसे में सैकड़ों हजारों साल से चले आ रहे तरीके से ही भोजन करना, यहाँ तक की मलत्याग करना और सोच विचार का पैटर्न भी वही लेकर चलना। कुल मिलाकर उसी को महान मानते हुए जीना ही हमारी नियति में है।

बाकी पद्मासन में बैठकर ही कुंडलित जागृत कर लेने, मोक्ष प्राप्त करने और काढ़ा से इम्युनिटी अर्जित करने वाले देश में पत्थर के स्वाद के अलावा किसी दूसरे स्वाद का जिक्र करना सिलबट्टे में सिर फोड़ने जैसा है।



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