लंबी यात्रा में खाने की समस्या हर किसी के साथ होती है, सालों से एक ही पैटर्न में खाना खाते हुए आपके जीभ की जैसी कंडिशनिंग बनी हुई होती है, उस हिसाब से खाना घूमते वक्त मिलना मुश्किल हो जाता है। लेकिन मेरे साथ खाने को लेकर कोई कंडिशनिंग नहीं रही, अगर रही भी तो हमेशा तोड़ा, बदल-बदल कर खाता रहा। इस वजह से भी साढ़े चार महीने लगातार भारत घूमते हुए बहुत सहूलियत हुई।
दूसरा एक सकारात्मक पक्ष यह भी रहा कि 135 दिनों में लगभग 100 से अधिक दिन मैंने रोज फल खाया होगा। जिन मित्रों के यहाँ लंबा रूकना हुआ, वहाँ भी बराबर फल का भोग लगाया गया। बाकी कुछ दिन जो रह गये हैं वह इसलिए क्योंकि जो 20-30 दिन सुदूर ठंडे पहाड़ी इलाकों में रहा, तो उस मौसम में फल की कमी महसूस ही नहीं होती है। मोटा-मोटा देखा जाए तो लगभग रोज मौसमी फल मेरे भोजन का हिस्सा रहा। लोग 5 दिन के लिए घर से निकलते हैं तो जितना सामान लेकर चलते हैं, मेरे पास उतना ही सामान था, लेकिन बैग में मौसमी फल के लिए हमेशा जगह बनाकर चलता रहा।
इन सब के बाद भी जब आप लगातार बाहर का खाना खा रहे होते हैं, तो एक समय आता है जब आपको घर के खाने की याद आती है, घर यानि जरूरी नहीं कि आपका ही घर हो। घर किसी का भी हो सकता है, आपके कोई परिचित भी हो सकते हैं। ढाबा और होटल में लंबे समय तक खाने के बाद जीभ घर में बने खाने की माँग करने लगता है। वह इसलिए क्योंकि एक ढाबा या होटल वाला आपको कितना भी अच्छे से खिलाए, वह बेचने के लिए खिलाता है, लोगों को खाना खिलाना उनका व्यवसाय है। लेकिन आप किसी के घर में खाना खाते हैं, वहाँ यह भाव नहीं रहता है, वहाँ सिर्फ खिलाने का भाव रहता है। इसी भाव का बहुत बड़ा अंतर है।
इसके लिए भी मैंने एक तोड़ निकाला, जहाँ कहीं लंबे समय तक रूकना हुआ वहाँ मैंने टिफिन सेंटर और मेस खोजा, कहीं कोई दीदी कोई परिवार घर में बैठाकर खाना खिला रहा है, रेट होटलों से अपेक्षाकृत कम भी होता है और ऐसे जगह के खाने में घर वाले खाने का भाव मिल भी जाता है।
हाथ में माल्टा (किन्नू) है, और यह एक धर्मशाला की तस्वीर है, तस्वीर में जितना हिस्सा दिख रहा है, इतना बड़े हिस्से में सर्वसुविधायुक्त बाथरूम भी था, गर्म पानी की सुविधा भी थी, दो लोगों के रहने लायक पर्याप्त सुविधाएँ थी, दो बढ़िया सोफे और एक टी-टेबल भी था, बेड और कंबल भी एकदम साफ सुथरा, यानि बिल्कुल एक किसी अच्छे होटल की तरह, अमूमन धर्मशालों में ऐसी सुविधा नहीं होती है। और बाहर बैठने के लिए एक बड़ा सा लाॅन भी था। भारत भ्रमण में जितने भी धर्मशालों में रूका, उनमें सबसे बढ़िया धर्मशाला यही था।
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