Thursday, 22 July 2021

Joy quotient and the aftereffect of Covid

 Joy quotient is missing

We can see that nowadays a lot of people are travelling to find joy and a sense of satisfaction, but the fact is that they wont find anything right now no matter how hard they try, how far they reach in search of a beautiful destination. Because, right now, in every nook and corner, there is a Void, a big Void. The void is there to remind you, to obstruct you from peace and solace, it may haunt you like anything, you can feel it while passing through faces around you, the shops, the streets, different cities and so on.

As an ardent traveller from past more then seven years i must say that the aftereffect of covid second wave is still in the air and you can feel it wherever you go.

I have so many travel plans from past one month in my bucket list but I don't know what is wrong with my sensory perception that something inside me is still in hybernation mode and waiting for the arrival of the joy quotient which is still missing from past few months.


Tuesday, 20 July 2021

पुरूष बनाम रसोई

जिन लड़कों ने कई दशकों तक माताओं बहनों को ही किचन में समय खपाते देखा हो, ऐसे लड़के आगे जाकर मास्टरशेफ भी क्यों न हो जाएं, यह एक मानसिकता उसके भीतर रहती ही है कि किचन से जुड़ा काम पुरूषों के हिस्से का काम नहीं है।

जिस तरह जातिवाद नामक जहरीले साँप ने लोहे का काम करने वालों को उसी में ही सीमित कर दिया गया और उनकी जाति लोहार हो गई, तेल बेचने वालों की तेली हो गई, घड़ा बनाने वाले कुम्हार हो गये, मंत्र जाप करने वाले पुरोहित हो गये। ठीक इसी तरह स्त्रियाँ भी रसोईघर का पर्याय हो गई।

एक लड़का घर के सारे काम कर लेगा, लेकिन आज भी पानी का एक गिलास कुर्सी में बैठ के उसे उसकी माता या बहन के हाथों से ही चाहिए, इसमें सही गलत या प्रेम जैसा कुछ नहीं है, बस कडिंशनिंग की बात है, जिसे हमारा मस्तिष्क दशकों से ढोता आ रहा होता है। आप हम सभी इससे पीड़ित हैं, कोई बचा नहीं है।

ऐसे में सैकड़ों हजारों साल से चले आ रहे तरीके से ही भोजन करना, यहाँ तक की मलत्याग करना और सोच विचार का पैटर्न भी वही लेकर चलना। कुल मिलाकर उसी को महान मानते हुए जीना ही हमारी नियति में है।

बाकी पद्मासन में बैठकर ही कुंडलित जागृत कर लेने, मोक्ष प्राप्त करने और काढ़ा से इम्युनिटी अर्जित करने वाले देश में पत्थर के स्वाद के अलावा किसी दूसरे स्वाद का जिक्र करना सिलबट्टे में सिर फोड़ने जैसा है।



Monday, 12 July 2021

लंबी यात्रा में खान-पान की समस्या -

लंबी यात्रा में खाने की समस्या हर किसी के साथ होती है, सालों से एक ही पैटर्न में खाना खाते हुए आपके जीभ की जैसी कंडिशनिंग बनी हुई होती है, उस हिसाब से खाना घूमते वक्त मिलना मुश्किल हो जाता है। लेकिन मेरे साथ खाने को लेकर कोई कंडिशनिंग नहीं रही, अगर रही भी तो हमेशा तोड़ा, बदल-बदल कर खाता रहा। इस वजह से भी साढ़े चार महीने लगातार भारत घूमते हुए बहुत सहूलियत हुई।

दूसरा एक सकारात्मक पक्ष यह भी रहा कि 135 दिनों में लगभग 100 से अधिक दिन मैंने रोज फल खाया होगा। जिन मित्रों के यहाँ लंबा रूकना हुआ, वहाँ भी बराबर फल का भोग लगाया गया। बाकी कुछ दिन जो रह गये हैं वह इसलिए क्योंकि जो 20-30 दिन सुदूर ठंडे पहाड़ी इलाकों में रहा, तो उस मौसम में फल की कमी महसूस ही नहीं होती है। मोटा-मोटा देखा जाए तो लगभग रोज मौसमी फल मेरे भोजन का हिस्सा रहा। लोग 5 दिन के लिए घर से निकलते हैं तो जितना सामान लेकर चलते हैं, मेरे पास उतना ही सामान था, लेकिन बैग में मौसमी फल के लिए हमेशा जगह बनाकर चलता रहा।

इन सब के बाद भी जब आप लगातार बाहर का खाना खा रहे होते हैं, तो एक समय आता है जब आपको घर के खाने की याद आती है, घर यानि जरूरी नहीं कि आपका ही घर हो। घर किसी का भी हो सकता है, आपके कोई परिचित भी हो सकते हैं। ढाबा और होटल में लंबे समय तक खाने के बाद जीभ घर में बने खाने की माँग करने लगता है। वह इसलिए क्योंकि एक ढाबा या होटल वाला आपको कितना भी अच्छे से खिलाए, वह बेचने के लिए खिलाता है, लोगों को खाना खिलाना उनका व्यवसाय है। लेकिन आप किसी के घर में खाना खाते हैं, वहाँ यह भाव नहीं रहता है, वहाँ सिर्फ खिलाने का भाव रहता है। इसी भाव का बहुत बड़ा अंतर है।
इसके लिए भी मैंने एक तोड़ निकाला, जहाँ कहीं लंबे समय तक रूकना हुआ वहाँ मैंने टिफिन सेंटर और मेस खोजा, कहीं कोई दीदी कोई परिवार घर में बैठाकर खाना खिला रहा है, रेट होटलों से अपेक्षाकृत कम भी होता है और ऐसे जगह के खाने में घर वाले खाने का भाव मिल भी जाता है।



हाथ में माल्टा (किन्नू) है, और यह एक धर्मशाला की तस्वीर है, तस्वीर में जितना हिस्सा दिख रहा है, इतना बड़े हिस्से में सर्वसुविधायुक्त बाथरूम भी था, गर्म पानी की सुविधा भी थी, दो लोगों के रहने लायक पर्याप्त सुविधाएँ थी, दो बढ़िया सोफे और एक टी-टेबल भी था, बेड और कंबल भी एकदम साफ सुथरा, यानि बिल्कुल एक किसी अच्छे होटल की तरह, अमूमन धर्मशालों में ऐसी सुविधा नहीं होती है। और बाहर बैठने के लिए एक बड़ा सा लाॅन भी था। भारत भ्रमण में जितने भी धर्मशालों में रूका, उनमें सबसे बढ़िया धर्मशाला यही था।

#allindiasolowinterride2020

Sunday, 11 July 2021

बात चली हुक्के की -

हरिद्वार में हर की पौड़ी में जो गंगाजी के किनारे हर शाम आरती होती है, यह उस समय की तस्वीर है। तस्वीर कुंभ के बहुत पहले दिसंबर 2020 की है। आरती के समय की यह सामान्य भीड़ है, अमूमन हर की पौड़ी में गंगा आरती के समय इतनी भीड़ रहती ही है। 



अब इस भीड़ से इतर आरती के बाद के समय की बात करते हैं, वही समय जब हरिद्वार के आम‌ लोग घर से निकलकर सुकून के लिए गंगा किनारे शाम को आकर बैठते हैं, जिसमें बच्चे बूढ़े जवान सभी हैं। उनको केन्द्र में रख कर देखा जाए तो जो हुक्के वाली चीज हरियाणा के लोगों द्वारा गंगा के घाट किनारे शुरू की गई, उसी घाट के किनारे जहाँ आम लोग शांति से कुछ समय बिताने आते हैं, कहीं से भी सही नहीं है। हुक्के से गंगा की पवित्रता भंग होने वाली बात बेतुकी है, और इस बात को जो बढ़ा चढ़ाकर जो हरियाणा बनाम हरिद्वार किया जा रहा है, उस पर बात नहीं करते हैं, आम लोग बेवजह परेशान हो रहे हैं वो ज्यादा बड़ा मुद्दा है। आप नशा कर रहे हैं, आप मस्ती कर रहे हैं, आप कुछ भी कर रहे हैं, उसे अगर आप निजी न करते हुए सार्वजनिक करते हैं, और उसमें भी आप स्थानीय लोगों के लिए असुविधा का कारण बनते हैं, तो भाईसाहब आपको पुर्नविचार करने की आवश्यकता है।


जहाँ तक बात हुक्के की है, हरियाणा के लोगों के लिए हुक्का सिर्फ गुड़ और तम्बाकू का मिश्रण भर नहीं है, यह सामाजिकता समरसता का प्रतीक है, हरियाणा के सामाजिक ताने-बाने की कल्पना बिना हुक्के के नहीं की जा सकती है। यहाँ हुक्का नशा नहीं है, नशे के तौर पर देखा भी नहीं जाता है, आप हरियाणा में कहीं भी जाए, आपको चौपाल, गली, नुक्कड़ हर जगह लोग हुक्के के साथ गोला बनाकर चर्चा करते हुए दिख जाएंगे। लेकिन क्या पूरा देश हरियाणा है, क्या किसी दूसरे राज्य का नदी किनारा हरियाणा है, क्या एक धर्म‌ के नशे में आकंठ डूबे अतिसंवेदनशील आस्थावान देश में हुक्के को लेकर इतनी सहजता संभव है, इस पर भी तो हुक्का पीने वालों को सोचना चाहिए। उसमें भी गंगा के तराई क्षेत्र का ऐसा इलाका जहाँ हजारों लोग आकर परिवार के साथ बैठते हैं, आस्था वाली चीज को अलग करके भी देखा जाए तो ऐसी जगहों में हुक्का लेकर जाने से परहेज किया जाना चाहिए। आप सहज हैं, ठीक है, लेकिन आपके आसपास वाले सहज नहीं है, उनके लिए ये खुलेआम एक नशा ही है, आप उनकी नजर में नशेड़ी हैं। इतना तो अपने आसपास के लोगों का, उस माहौल का सम्मान करना ही चाहिए। 


जो आपके यहाँ सही है, सहजता वाली चीज है। वही चीज किसी दूसरे जगह में, एक दूसरे भूगोल में असहजता का प्रतीक माना जाता है। भारत अजीब किस्म की विविधताओं और जटिलताओं से भरा देश है। जैसे उदाहरण के लिए उत्तराखण्ड की स्थानीय भाषा में दादाजी के लिए जो शब्द प्रयुक्त होता है, वही शब्द उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में महिलाओं के स्तन के लिए प्रयोग किया जाता है। सोचकर देखिए कोई उत्तराखण्ड का बाशिंदा सार्वजनिक मंच में उड़ीसा आकर अपनी स्थानीय भाषा में चिल्लाकर अपने दादाजी को बुलाए तो कैसी स्थिति निर्मित होगी। जुआ शब्द के लिए जो मेरी बोली में स्थानीय शब्द है, वह कर्नाटक के कुछ इलाकों में पुरुष जननांगों के लिए प्रयोग किया जाता है, मैं तो एक बार महिलाओं के सामने शर्मिंदा होते-होते बचा था। ऐसे वाकये मेरे साथ बहुत बार हुए क्योंकि मेरी तीन अलग-अलग मातृभाषा रही और नई भाषाओं के प्रति गहरा लगाव रहा। 


देश की विविधता की न्यूनतम समझ बनाने के लिए व्यक्ति को चाहिए कि कम से कम वह जिस भाषाई, सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश में पला बढ़ा है, उससे इतर एक बिल्कुल अलग सांस्कृतिक परिवेश में एक बार रहकर देखे। भले व्यक्ति बहुत जगह ना घूमे, लेकिन एक बिल्कुल नये जगह में जहाँ की भाषा, पहनावा, पर्व-त्यौहार, खान-पान और लोक-व्यवहार के तरीके बिल्कुल अलग हैं, ऐसे जगह में वह कुछ समय बिताए, यह अनुभव उसे लेना चाहिए। इससे व्यवहार में लचीलापन आता है, लंबे समय से मन मस्तिष्क जिन धारणाओं को लाद कर चल रहा होता है, वह धारणाएँ टूटती है। बहुत कुछ नया होता है, हम नये होते हैं।


अंत में हुक्के वाले मुद्दे पर बस इतना ही कहना है कि नदी किनारे या जंगल में हुक्का पीना, दारू पीना, चिकन पार्टी करना सबजेक्टिव है, बहुत लोग करते हैं। लेकिन उनके ऐसा करने से आसपास के लोगों को परेशानी न हो, एकांत में स्वांत सुखाय वाली चीज हो तो बेहतर है, इतनी सी बात का तो ध्यान रखा ही जा सकता है। 





Friday, 9 July 2021

बैंगन वाली मैगी -

जम्बूद्वीप का राष्ट्रीय भोज मैगी वैसे तो हर जगह अलग-अलग तरीके से बनाया जाता है, पाँच छ:ह तरीके मुझे खुद आते हैं, लेकिन मैगी में बैंगन भी डालते हैं ये मैंने पहली बार देखा। धनौल्टी में खाई गई मैगी की यह तस्वीर प्रतीकात्मक है, इसका बैंगन वाली मैगी से कोई संबंध नहीं है।

तो हुआ यूं कि उस दिन मैं दिल्ली से आगरा जा रहा था, सिर्फ ताजमहल देखने नहीं, आगरा देखने जा रहा था, बहुत सारा पेठा भी तो खाना था। आगरा पहुंचने के बाद अगली सुबह नाश्ता करने एक जगह रूका। मेरी हमेशा से आदत रही है कि खान-पान को लेकर बहुत ज्यादा नखरे नहीं रहते हैं, जो जैसा मिला चुपचाप खा लिया। शरीर भी बिना नखरा किए हर तरह का खाना पचा लेता है। तो एक जगह कहीं बैठ गया तो जो‌ ठीकठाक मिल गया, खा लेता हूं, कौन फिर दूसरी जगह जाए, समय बर्बाद करे, ऊर्जा बर्बाद करे। तो ऐसे ही एक रेस्टोरेंट में बैठा था, मैन्यू देखा तो मैंने कहा - आलू पराठा बन जाएगा क्या? अब पता नहीं मेरा यह सवाल उस रेस्टोरेंट के मालिक और उसके वर्कर तक अलग-अलग तरीके से पहुंच गया होगा। मेरे इतना कहने पर वर्कर आया, उसने‌ कहा - हाँ बन जाएगा। मैंने कहा - अच्छा ठीक है रूको बताता हूं। फिर मैंने उसे दो मिनट बाद बुलाकर कहा - एक वैज मैगी बना दो। वह चला गया।

कुछ देर बाद मैं क्या देखता हूं कि मेरे टेबल के सामने आलू पराठा है। 

मैंने कहा - भाई मैगी कही थी, आलू पराठा का बस पूछा था। 

मालिक ने उसे जोर का डांटा और कहने लगा - अबे! ज्यादा सुनता है क्या, चल मैगी बना। 

मैंने मालिक को कहा - कोई समस्या नहीं, पराठे भी छोड़ जाओ वो भी खा लूंगा, अगर यह नहीं निकलेगा तो। 

मालिक ने‌ कहा - नहीं, ठीक है। मैगी बन जाएगी।

कुछ देर बाद मेरी वैज मैगी बनकर आई। उसकी तस्वीर तो मैं नहीं ले पाया था, लेकिन उसका जो हुलिया था, यहाँ लिखकर बता रहा हूं। थाली के शेप की प्लेट में फैला हुआ था। पीला, हरा, लाल, भूरा, बैंगनी क्या रंग नहीं था उस मैगी में। चम्म्च से कुरेदने पर पता चला कि उसमें सिर्फ बैंगन ही नहीं है बल्कि चुकंदर, हरा मटर, प्याज और पत्तागोभी भी है, इन सब्जियों ने मैगी के साथ उबलते हुए गलते हुए क्या कहर ढाया होगा, कैसा रस छोड़ा होगा, अंदाजा लगाइए। स्वाद का तो अब क्या ही कहूं मैं, आज भी याद करता हूं तो ऐसा लगता है जैसे कोई मेरे स्वाद कलिकाओं को नोच रहा है, फिर भी मैंने उन रंग बिरंगे असास्वादिक तत्वों को हटाकर थोड़ी बहुत मैगी खा ली, अब भूख भी लगी थी, पराठा भी वापस जा चुका था, दुबारा बोलने का मन भी नहीं किया, खान-पान को लेकर नखरे ना के बराबर ही रहते हैं लेकिन उस दिन तो परीक्षा ही हो गई थी। बाकी उत्तराखण्ड हिमाचल के पहाड़ों में बनने वाली वैज मैगी की बात ही कुछ और है। और रही बात मैगी के प्रकार की तो आप मुझे लैमन मैगी बनाने का कोनॅस्यर कह सकते हैं। ताजी मूली की टापिंग्स वाली मैगी की रेसेपी की चर्चा कभी और।।


Veg maggi in Dhanoulti, Uttarakhand