हरिद्वार में हर की पौड़ी में जो गंगाजी के किनारे हर शाम आरती होती है, यह उस समय की तस्वीर है। तस्वीर कुंभ के बहुत पहले दिसंबर 2020 की है। आरती के समय की यह सामान्य भीड़ है, अमूमन हर की पौड़ी में गंगा आरती के समय इतनी भीड़ रहती ही है।
अब इस भीड़ से इतर आरती के बाद के समय की बात करते हैं, वही समय जब हरिद्वार के आम लोग घर से निकलकर सुकून के लिए गंगा किनारे शाम को आकर बैठते हैं, जिसमें बच्चे बूढ़े जवान सभी हैं। उनको केन्द्र में रख कर देखा जाए तो जो हुक्के वाली चीज हरियाणा के लोगों द्वारा गंगा के घाट किनारे शुरू की गई, उसी घाट के किनारे जहाँ आम लोग शांति से कुछ समय बिताने आते हैं, कहीं से भी सही नहीं है। हुक्के से गंगा की पवित्रता भंग होने वाली बात बेतुकी है, और इस बात को जो बढ़ा चढ़ाकर जो हरियाणा बनाम हरिद्वार किया जा रहा है, उस पर बात नहीं करते हैं, आम लोग बेवजह परेशान हो रहे हैं वो ज्यादा बड़ा मुद्दा है। आप नशा कर रहे हैं, आप मस्ती कर रहे हैं, आप कुछ भी कर रहे हैं, उसे अगर आप निजी न करते हुए सार्वजनिक करते हैं, और उसमें भी आप स्थानीय लोगों के लिए असुविधा का कारण बनते हैं, तो भाईसाहब आपको पुर्नविचार करने की आवश्यकता है।
जहाँ तक बात हुक्के की है, हरियाणा के लोगों के लिए हुक्का सिर्फ गुड़ और तम्बाकू का मिश्रण भर नहीं है, यह सामाजिकता समरसता का प्रतीक है, हरियाणा के सामाजिक ताने-बाने की कल्पना बिना हुक्के के नहीं की जा सकती है। यहाँ हुक्का नशा नहीं है, नशे के तौर पर देखा भी नहीं जाता है, आप हरियाणा में कहीं भी जाए, आपको चौपाल, गली, नुक्कड़ हर जगह लोग हुक्के के साथ गोला बनाकर चर्चा करते हुए दिख जाएंगे। लेकिन क्या पूरा देश हरियाणा है, क्या किसी दूसरे राज्य का नदी किनारा हरियाणा है, क्या एक धर्म के नशे में आकंठ डूबे अतिसंवेदनशील आस्थावान देश में हुक्के को लेकर इतनी सहजता संभव है, इस पर भी तो हुक्का पीने वालों को सोचना चाहिए। उसमें भी गंगा के तराई क्षेत्र का ऐसा इलाका जहाँ हजारों लोग आकर परिवार के साथ बैठते हैं, आस्था वाली चीज को अलग करके भी देखा जाए तो ऐसी जगहों में हुक्का लेकर जाने से परहेज किया जाना चाहिए। आप सहज हैं, ठीक है, लेकिन आपके आसपास वाले सहज नहीं है, उनके लिए ये खुलेआम एक नशा ही है, आप उनकी नजर में नशेड़ी हैं। इतना तो अपने आसपास के लोगों का, उस माहौल का सम्मान करना ही चाहिए।
जो आपके यहाँ सही है, सहजता वाली चीज है। वही चीज किसी दूसरे जगह में, एक दूसरे भूगोल में असहजता का प्रतीक माना जाता है। भारत अजीब किस्म की विविधताओं और जटिलताओं से भरा देश है। जैसे उदाहरण के लिए उत्तराखण्ड की स्थानीय भाषा में दादाजी के लिए जो शब्द प्रयुक्त होता है, वही शब्द उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में महिलाओं के स्तन के लिए प्रयोग किया जाता है। सोचकर देखिए कोई उत्तराखण्ड का बाशिंदा सार्वजनिक मंच में उड़ीसा आकर अपनी स्थानीय भाषा में चिल्लाकर अपने दादाजी को बुलाए तो कैसी स्थिति निर्मित होगी। जुआ शब्द के लिए जो मेरी बोली में स्थानीय शब्द है, वह कर्नाटक के कुछ इलाकों में पुरुष जननांगों के लिए प्रयोग किया जाता है, मैं तो एक बार महिलाओं के सामने शर्मिंदा होते-होते बचा था। ऐसे वाकये मेरे साथ बहुत बार हुए क्योंकि मेरी तीन अलग-अलग मातृभाषा रही और नई भाषाओं के प्रति गहरा लगाव रहा।
देश की विविधता की न्यूनतम समझ बनाने के लिए व्यक्ति को चाहिए कि कम से कम वह जिस भाषाई, सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश में पला बढ़ा है, उससे इतर एक बिल्कुल अलग सांस्कृतिक परिवेश में एक बार रहकर देखे। भले व्यक्ति बहुत जगह ना घूमे, लेकिन एक बिल्कुल नये जगह में जहाँ की भाषा, पहनावा, पर्व-त्यौहार, खान-पान और लोक-व्यवहार के तरीके बिल्कुल अलग हैं, ऐसे जगह में वह कुछ समय बिताए, यह अनुभव उसे लेना चाहिए। इससे व्यवहार में लचीलापन आता है, लंबे समय से मन मस्तिष्क जिन धारणाओं को लाद कर चल रहा होता है, वह धारणाएँ टूटती है। बहुत कुछ नया होता है, हम नये होते हैं।
अंत में हुक्के वाले मुद्दे पर बस इतना ही कहना है कि नदी किनारे या जंगल में हुक्का पीना, दारू पीना, चिकन पार्टी करना सबजेक्टिव है, बहुत लोग करते हैं। लेकिन उनके ऐसा करने से आसपास के लोगों को परेशानी न हो, एकांत में स्वांत सुखाय वाली चीज हो तो बेहतर है, इतनी सी बात का तो ध्यान रखा ही जा सकता है।