इतने दिनों से घर में बैठकर हमने धरती पर थोड़ा बहुत उपकार तो किया ही है, साथ ही साथ अब हम सबको इस एक बात पर भी आम सहमति बना ही लेनी चाहिए कि इस कोरोना नाम के वायरस को हमने ही धरती पर लाया है, हम मनुष्यों के सम्मिलित प्रयासों से ही यह अस्तित्व में आया है।
पहले जिस धरती को बचाने के लिए करोड़ों अरबों रूपयों लगते थे, मानव संसाधन लगते थे, पढ़े-लिखे प्रकाण्ड विद्वानों की एक पूरी फौज की आवश्यकता होती थी, इतना कुछ प्रचंच होता था, अब उस धरती को मुफ्त में ही बचाया जा सकता है। वह चाहे अनपढ़ अनगढ़ कोई भी हो, हर कोई बचा सकता है, किसी भी प्रकार के विशेष योग्यता महानता की आवश्यकता नहीं रह गई है। प्रकृति कभी भी भेदभाव नहीं करती है और उसने किया भी नहीं है, सबको तो बराबर मौका दिया है, हर कोई घर बैठे ही धरती बचाने में योगदान दे सकता है। ऐसा सुयोग फिर कभी इस जनम में दुबारा मिले न मिले। इसलिए जितना अधिक हो सके घर बैठे ही धरती बचाने में महती भूमिका निभाते चलिए।
जब यह सब कुछ ठीक हो जाएगा, तो कुछ महीने साल बाद जब कभी हमारे पास कुछ जमा पैसे आ जाएं तो मन कहेगा कि एक दो घर अलग-अलग शहरों में और बना लिया जाए, किराया मिलने का शौक पूरा होगा या फिर सुविधाओं की बढ़ोत्तरी के नाम पर कुछ एक गाड़ियां और ले ली जाए या फिर ऐसा ही बहुत कुछ। जब कभी लगे कि सुविधाएँ बढ़ाने की इस जद्दोजहद में हम असुविधाओं बैचेनियों को खुला आमंत्रण दे रहे हैं, तो हमें समय रहते पुनर्विचार कर ही लेना चाहिए।
अगली बार जब हर घर से निकलेंगे, कुछ खरीददारी करने भी जाएंगे तो अगर हमारे मन में यह ध्यान आए कि हमारे बहुत कुछ चीजें ना खरीदने से भी धरती पर उपकार हो सकता है, तो इसे हमें सहजता से स्वीकारने की जरूरत है। जब हम प्रकृति को बचाने के नाम पर ही कुंठा शांत करने हेतु हजारों किलोमीटर की यात्रा करेंगे, संसाधन खर्चते हुए अगर बीच में हमें यह आभास हो जाए कि यह सब ना करके भी तो हम धरती को बचाने में योगदान दे सकते हैं तो हमें चाहिए की हम तुरंत अपने कदम वापस खींच लें।
अगर हम अपने ही जीवन में कुछ छोटे-छोटे बदलाव कर लें, खुद से ही प्रयास करना शुरू कर दें तो हमें अलग से धरती को बचाने के लिए मौके तलाशने की जरूरत नहीं पड़ेगी, हमारी धड़कन खुद ही हमसे द्वंद पैदा करवाएगी, हमें रूककर पहचानने की जरूरत है कि क्या यह सचमुच हमारे लिए जरूरी है, अगर नहीं तो हमें लौटना होगा, हमें अपने अस्तित्व की रक्षा करनी होगी।
आज समय ऐसा है कि हममें से अधिकांश लोगों को कुछ न कुछ करना ही होता है, यानि रेस में आकंठ डूबकर साबित करने की यह होड़ चाहे वह समाज के लिए हो, देश के लिए हो या धरती के लिए हो, कुछ कर गुजरने के इस नशे में, इस अतिवादिता में इस बात का भी ध्यान रहे कि हम इतना भी आगे ना निकल जाए कि हमें बार-बार अपनी सत्यता साबित करनी पड़े, अपना चरित्रचित्रण करना पड़े, ढकोसलों का सहारा लेना पड़े, खोखला जीवन जीने को विवश होना पड़े।
वायरस अलग-अलग रूप लिए थोड़ा-थोड़ा हम सबके भीतर विद्यमान है, हमें उसे देखने की जरूरत है, पहचानने की जरूरत है, उसके पैदा होने से लेकर, बनने, फैलने, द्विगुणित होने की प्रक्रिया को शिथिल करने की जरूरत है, उससे खुद को पृथक करने की जरूरत है। अगर हम खुद से यह पहल नहीं करते हैं तो यह एक समय के बाद हमें लीलने के लिए फिर से नया अवतार लेकर आ जाएगा।
हमें आखिर में समझना होगा कि अगर हम धीरे-धीरे सुधार की ओर नहीं बढ़ेंगे तो प्रकृति फिर से हमें महीनों क्या, वर्षों घरों में बंद रहने के लिए विवश कर देगी, हमारे अस्तित्व को चुनौती देते हुए फिर से हमें घुटनों के बल खड़ा कर देगी और तब हमें वह गूगल से लाशों की गिनती करने लायक भी नहीं छोड़ेगी।
Badiya
ReplyDeleteShukriya
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ReplyDeleteAwesome ��✊��.. keep writing..
ReplyDeleteThankyou aish
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