Wednesday, 29 April 2020

कोटा से लाए बच्चे और सरकारी तंत्र की हकीकत

                          इंजीनियर, डाॅक्टर बनने की रेस में अच्छे काॅलेज की चाह लिए वे बच्चे जो कोटा से अपने घरों को लौटे हैं, उनके प्रति अपनी अभिव्यक्ति में इतनी भी निर्दयता ना लाएँ कि आप खुद से नफरत करने लग जाएँ। एक के प्रति सहानुभूति और संवेदनशीलता के लिए अगर किसी अन्य के प्रति निंदा और घृणा का भाव लाने की जरूरत पड़ रही है तो सीवर में डालिए अपनी जागरूकता और संवेदनशीलता। उन‌ बच्चों की उम्र 17 से 20 के बीच की होगी। इस उम्र में इन्होंने क्या ही दुनिया देखी होगी, इस उम्र में तो छुटपुट ख्वाहिशें उपजनी शुरू होती हैं। कौन सा काॅलेज कैसा कोर्स कुछ भी ढंग से पता नहीं होता है, जैसा माता-पिता, समाज ने रास्ता दिखा दिया, अधिकतर बच्चे मशीन बनने निकल पड़ते हैं, और आज के सुविधाभोगी दौर में, जिसके भोगी आप भी बराबर हैं, इसमें आप उनसे दुनियावी समझ की उम्मीद लगाने के लिए जुट जाते हैं, धन्य हैं आप। और धन्य हैं वे बच्चे भी जिन्हें इस छोटी सी उम्र में सरकारी तंत्र की असल हकीकत की एक बढ़िया झलक देखने मिल रही है, अब इसे उनकी खुशकिस्मती कहें या बदकिस्मती, लेकिन चीजों को वे भी देख समझ रहे हैं।

                           खैर...बाकी राज्यों का नहीं पता लेकिन हमारे राज्य में तो क्वारन्टीन के नाम पर अस्तबल और गौशाला जैसी जगह में उन्हें रूकवाया गया है तो एक हिसाब से उनकी नाराजगी भी जायज है। फग्गिडे पत्रकारों से निवेदन है कि अगर इतनी ही तड़ है तो उस तंत्र के खिलाफ भी दो शब्द बोलें जो इस अव्यवस्था के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं। चीजें हमेशा वैसी नहीं होती है, जैसी ऊपरी स्तर पर दिखाई देती हैं। अगर बच्चे बोल रहे हैं, कोई शिकायत कर रहे हैं इसका अर्थ सिर्फ यह कैसे हो गया कि वे नाजायज माँग कर रहे, साफ टायलेट और बिस्तर की ही तो माँग कर रहे हैं। दोनों पक्षों को क्यों नहीं एक बार देखा जाना चाहिए। समस्या अगर कहीं है तो वह सिस्टम की समस्या है। लेकिन इन भाट चारणों की हिम्मत कहाँ कि उन खामियों के खिलाफ दो शब्द भी बोल पाएँ। टूटे हुए दरवाजे, उखड़े टाइल्स, खराब टायलेट शीट, यह बर्बादी, यह संगठित लूट किसी ने किसी के आबाद होने का प्रमाण हैं, इतनी सी बात ये अभिव्यक्ति के पुरोधा नाशपीटे लोग क्यों नहीं समझ पाते हैं।

Monday, 27 April 2020

काश कोरोना तुम दिखाई देते -

काश! कोरोना तुम दिखाई देते,
काश! तुम हाॅलीवुड फिल्मों का कोई एक डरावना कीड़ा होते,
काश तुम्हारे होने से मिर्गी जैसा अटैक आता,
या मुंह से विषपान पश्चात् श्वेत झाग निकलता,
या फिर पूरा शरीर काला पड़ जाता,
या लाल चितकबरा सा डरावना दिखता,
काश तुम थोड़े अलग से, विचित्र से होते,
लेकिन तुम अति सामान्य हो,
सर्दी, खाँसी, ज्वर से ही जीवनलीला समाप्त कर रहे हो,
हमें सामान्य की आदत कभी रही नहीं,
इसलिए भी हम भारतीयों को तुम्हें समझने में बड़ी समस्या हो रही है,
भले ही अभी तुम लाखों लोगों की मृत्यु का कारण बन चुके हो,
फिर भी तुम अभी भी हमारी आम समझ से कोसों दूर हो,
क्योंकि तुम बड़े ही सरल तरीके से, सामान्य तरीके से खेल रहे हो।
हमको लाॅकडाउन,क्वारंनटीन,सोशल डिस्टेंसिंग ये सब नहीं समझ आता,
ये गलत बात है, तुम्हें भारत जैसे देशों में दूसरा रूप धरना चाहिए,
हम विश्वगुरू हैं, इसलिए हमारी विनती है।
हे! कोरोना, भले मौत दो, लेकिन कुछ चमत्कार सा करके दो।
ताकि हम तुम्हें और तुम्हारे इस विकराल रूप को समझ पाएं।

छत्तीसगढ़ शासन द्वारा राशन वितरण और उसकी हकीकत -

छत्तीसगढ़ शासन नगर निगम के माध्यम से शहरी इलाकों में राशन वितरण कर रही है। आप एक फोन कीजिए, आपके घर तक राशन पहुंचा दिया जाएगा। तो हुआ यूं कि कल एक प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे दोस्त से बात हुई। वह फिलहाल शहर में अपने किराए के कमरे में ही है, घर नहीं गया है। बता रहा था कि उसके वार्ड में भी राशन बाँटने की प्रक्रिया नगर निगम द्वारा संचालित की जा रही थी। पार्षद ने आकर एक नंबर दे दिया कि इस नंबर पर फोन कर आप अपना नाम, पता और आधार कार्ड का नंबर रजिस्टर करवा लें, कुछ एक दिन बाद गाड़ी आएगी और राशन दे जाएगी। अब खेल यह है कि पूरे एक वार्ड के लिए एक ही नंबर है, संपर्क के लिए वह एक ही व्यक्ति है जो कि फोन भी नहीं उठाता है। अब दोस्त जो है आज के सामाजिक पैटर्न के हिसाब से पढ़ा-लिखा है, इतना पढ़ा-लिखा है कि अपने हिस्से का राशन लेकर ही मानेगा‌। लाॅकडाउन में खाली समय भी है, तो पीछे ही लग गया, फोन पर फोन लगाता ही रहा। ऐसा करते हुए उसने चार बार निगम से राशन ले लिया। उसने बताया कि चार बार में उसे लगभग कुल 1300 रूपए का राशन मिला है, जिसमें 20 किलो चावल, 4 किलो आटा, 2 लीटर तेल और आलू है, ध्यान रहे कि मेरा दोस्त उतना जरूरतमंद नहीं है फिर भी उसने बराबर राशन समेटा है। अब जब उसने बाहर आस पड़ोस के लोगों से राशन मिलने के बारे में पूछा तो पता चला कि अधिकतर लोगों को राशन मिला ही नहीं है। शायद उन लोगों ने एक दो बार फोन मिलाया होगा फिर जाने दिया होगा। दोस्त ने बताया कि जितना राशन उसने इकट्ठा किया, उसने सारा कुछ जरूरतमंदों को जाकर दे दिया। साथ ही दोस्त ने एक बड़ी बात कही - " सरकार मुफ्त में सेवा दे रही है, लोग ही बेवकूफ हैं, लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। "

आमजन को हमेशा की तरह बेवकूफ घोषित होता देखकर मेरे मन में कितने ही प्रश्न उठने शुरू हो गये। मैंने कहा -

- क्या हर कोई तुम्हारे इतना समझदार है जिसको सरकारी तंत्र की लूपहोल्स, खामियाँ पता है?
- हर कोई क्या तुम्हारी तरह उस व्यक्ति को फोन करने के लिए पीछे पड़ सकता है?
- अगर तुम राशन पा लेते हो और कोई दूसरा तुम्हारी तरह ऐसा नहीं कर पाता है, इसका अर्थ यह कैसे हो गया कि तुम ज्यादा समझदार और जागरूक हो गये और बाकी बचे वे लोग बेवकूफ हो गये? क्या नगर निगम की इसमें कोई गलती नहीं, उनकी कोई जवाबदेहिता नहीं?
- जब सरकार मुफ्त में ही दे रही है तो क्या सही तरीके से बिना भेदभाव के घर पहुंचाने की उनकी जिम्मेदारी नहीं देनी चाहिए?
- क्या फोन करने का सिस्टम इसलिए नहीं बना है कि राशन के नाम पर लूट मचाई जा सके?
- जो अनभिज्ञ हैं, उनके हिस्से का सामान न देकर उन्हें कब तक बेवकूफ घोषित करके उनका अपमान किया जाएगा?

Sunday, 19 April 2020

केटीयू पुराण

इस काॅलेज या यूं कहें कि इस यूनिवर्सिटी की सबसे बढ़िया जो चीज थी, वो थी यहाँ की लाइब्रेरी। इतनी बढ़िया लाइब्रेरी मध्य भारत में शायद ही किसी काॅलेज में होगी, किताबों का भी ठीक-ठाक कलेक्शन था। लेकिन मसला यह था कि स्टूडेंट आते ही नहीं थे, किताबें थी, सुंदर इंफ्रास्ट्रक्चर था, लेकिन पढ़ने वाले ही नदारद। माहौल ऐसा बन चला था कि लाइब्रेरी में भी लोग किताबें निकालकर बैठ तो जाते लेकिन पाँच मिनट बाद इयरफोन निकाल के फिल्में वीडियो मनोरंजन शुरू। इतनी आजादी तो जेएनयू में भी नहीं होगी, जितनी केटीयू में थी। लाइब्रेरी में एक हरे रंग का सोफा हुआ करता, सबको उसी में बैठना होता, बैल की तरह खींच खींचकर उस आरामदायक भारी सोफे को छात्र इस कोने से उस कोने ढकेलने में ही मशगूल रहते।

सामान्यतः हम जब किसी भी काॅलेज में एडमिशन लेते हैं, तो लाइब्रेरी कार्ड अनिवार्य रूप से सबका बन जाता है, लेकिन ये केटीयू था, ऐसा नहीं है कि यहाँ नहीं बनता था, बन के सढ़ भी जाता था, लोग पास-आउट हो जाते, लेकिन कार्ड लेने नहीं जाते थे। बिना लाइब्रेरी कार्ड के भी कई लोग काम चला लेते थे। मैं खुद एक दो लोगों का लाइब्रेरी कार्ड इस्तेमाल करता था, अब चूंकि एक कार्ड में सिर्फ दो किताबें इशू होती थी, तो मैं सोचता था कि बढ़िया नाॅवेल कहानी वगैरह का कलेक्शन है तो दो कार्ड से चार किताबें ले लेता। एक बार ऐसे ही मैंने चार किताबें ली, लाइब्रेरी वाली मैडम ने एंट्री करते वक्त मुझे ऐसे घूरा जैसे मैं चरस का व्यापार करता हूं, क्योंकि किताबें इशू कराना मतलब बहुत बड़ी चीज होती थी, क्योंकि बहुत विरले ही लोग ये कांड यहाँ करते थे। और मजे की बात ये कि जिन किताबों को मैं इशू कराया, उनका पिछला इशू डेट किसी का तीन साल पुराना तो किसी का पाँच साल पुराना हुआ करता जबकि विश्वस्तरीय किताबें थी। एक तो वो महापंडित राहुल की वोल्गा से गंगा किताब थी, जो कि मुझे महाकूड़ा लगी, मैक्सिम गोर्की की मां, एक प्रेमचंद का कथासार और एक दोस्तोवोस्की की कोई किताब थी। असली हादसा तो तब हुआ जब मैं कुछ दिनों के बाद इन किताबों को वापस लौटाने के लिए लाइब्रेरी गया। भालू के मार्फत सुस्त उस मैडम ने कहा - अभी-अभी तो लिए थे, मैंने कहा हो गया जितना पढ़ना था, पढ़ लिया। उन्होंने कहा- सब पढ़ लिए। मैंने कहा- हाँ एक छोड़के सब पढ़ लिया। अब वो अड़ गई, आखिर तक मानने को तैयार ही नहीं हुई। फिर मैंने कहा- बस आप कृपा करके ये बुक रिटर्न ले लो, मैं तो मजाक कर रहा था, इतना कोई कैसे पढ़ सकता है और फिर उन्होंने किताबें वापस ले ली।

यूनिवर्सिटी में एक छोटा सा कैंटीन था, जो कि असल में कैंटीन के नाम पर सरासर एक धोखा था, वहाँ सिर्फ चाय और मैगी के अलावा कुछ खास नहीं मिलता था। लोग रहेंगे ही नहीं तो कैंटीन बढ़ेगा कैसे।इस काॅलेज में आकर तो मानो जुगाड़ शब्द भी पानी माँगता था ऐसी स्थिति थी क्योंकि यहाँ Zero percent attendance में भी रेगुलर स्टूडेंट पेपर दिला सकता था, वो भी पचास सौ रूपए फाइन के साथ। वह फाइन भी थोड़ा सा प्रोटेस्ट करने से माफ हो जाता था, बताओ इतनी आजादी और कहाँ मिलेगी। मेरा खुद का 0.00% attendance था।

काॅलेज के ठीक पास में छात्र-छात्राओं का एक फेमस अड्डा हुआ करता था ऐनीकट। जहाँ वे एक दूसरे के ऊपर पानी की बौछार करने जाते। जीवन यहीं तक सीमित था, कुछ लोग एनीकट में जाकर घंटों बैठे रहते और जीवन का अधकचरा सा लक्ष्य बुनते रहते और जिनकी सेटिंग होती उनके लिए तो लाइब्रेरी का भीमकाय हरा सोफा था ही। बाकी जो थोड़ा बहुत पढ़ भी लेते थे, या कहीं छोटी-मोटी नौकरी कर रहे होते वे छालीवुड के सेलिब्रिटी की तरह कभी कभार काॅलेज शक्ल दिखाने आ जाते थे।

अटल साहब की एक कविता यूनिवर्सिटी का कुलगीत हुआ करती था। लेकिन सही मायनों में कुलगीत से कहीं अधिक कुछ सूक्तियों ( वन-लाइनर) और कुछ एक नयी-नयी शब्दावलियों का प्रचलन जोरों पर था, या यूं कहें कि कुछ अलग ही किस्म के तकिया-कलाम थे जिसे समय-समय पर खाली ठलहा बैठे यहाँ के ही होनहार छात्रों ने बना रखा था। जैसे कि - " सम्मान में कमी ", " हल्का टच " , " रगड़-घंस " , " फग्गिडा " आदि-आदि।

किसी भी काॅलेज की वस्तुस्थिति या दुर्गति का अंदाजा लगाना हो तो वहाँ के बाबू का रोल देखना चाहिए। क्योंकि जिस काॅलेज की भद्द पीट चुकी होती है, वहाँ के बाबू के ऊपर स्वत: ही जिम्मेदारियाँ बढ़ने लग जाती हैं। तो हमारे यहाँ भी ऐसा एक पटेल नाम का बाबू हुआ करता, छात्र से लेकर प्रोफेसर हर किसी की जुबान में उसी का नाम होता, क्योंकि झाड़ू पोछा करने वालों के बाद एक यही व्यक्ति बच जाता था जो अपना काम सही ढंग से करता था।

एग्जाम के एक दो दिन पहले गूगल से पढ़कर हम पाइंटर्स बना लेते और पास हो जाते। कई बार तो टेस्ट पेपर में छात्र एक दूसरे से यह तक पूछते कि सब्जेक्ट का नाम क्या है। टीचर भी सुनकर मुस्कुरा देते क्योंकि वो भी यहीं इसी मिट्टी के बाय प्रोडक्ट थे, कभी-कभी फाइनल एग्जाम में भी लोग सब्जेक्ट का पूरा नाम स्पेलिंग सहित पूछ लेते। बात यहां तक खत्म नहीं हुई, हमारे यहाँ इसका भी नेक्सट लेवल था। फाइनल एग्जाम में जब कुलपति, विभागाध्यक्ष चक्कर लगाने आते तो परीक्षार्थियों से पूछते - और बढ़िया न है न पेपर, दिलाओ बढ़िया मजे से दिलाओ यार, एक दो सवाल थोड़ा इधर उधर हो सकता है। ऐसा लगता मानो किसी रेस्तरां में बैठे हों और रेस्तरां का मालिक ही आकर खाने के स्वाद के बारे में पूछ रहा हो। कभी-कभी ऐसा लगता कि बस अभी चरण धोकर इनकी पूजा की जाए, ऐसा लगता मानो किसी ने पचास नारियल का चढ़ावा लगाया होगा, तपस्या की होगी, तभी ऐसे क्यूट दिव्यपुरूष अवतरित हुए होंगे, जो कि हमारा इतना ख्याल रखते हैं। कुल मिला के बहुत निराला काॅलेज था।

KTU Campus


Thursday, 9 April 2020

Why Corona?

इतने दिनों से घर में बैठकर हमने धरती पर थोड़ा बहुत उपकार तो किया ही है, साथ ही साथ अब हम सबको इस एक बात पर भी आम सहमति बना ही लेनी चाहिए कि इस कोरोना नाम के वायरस को हमने ही धरती पर लाया है, हम मनुष्यों के सम्मिलित प्रयासों से ही यह अस्तित्व में आया है।

पहले जिस धरती को बचाने के लिए करोड़ों अरबों रूपयों लगते थे, मानव संसाधन लगते थे, पढ़े-लिखे प्रकाण्ड विद्वानों की एक पूरी फौज की आवश्यकता होती थी, इतना कुछ प्रचंच होता था, अब उस धरती को मुफ्त में ही बचाया जा सकता है। वह चाहे अनपढ़ अनगढ़ कोई भी हो, हर कोई बचा सकता है, किसी भी प्रकार के विशेष योग्यता महानता की आवश्यकता नहीं रह गई है। प्रकृति कभी भी भेदभाव नहीं करती है और उसने किया भी नहीं है, सबको तो बराबर मौका दिया है, हर कोई घर बैठे ही धरती बचाने में योगदान दे सकता है। ऐसा सुयोग फिर कभी इस जनम में दुबारा मिले न मिले। इसलिए जितना अधिक हो सके घर बैठे ही धरती बचाने में महती भूमिका निभाते चलिए।

जब यह सब कुछ ठीक हो जाएगा, तो कुछ महीने साल बाद जब कभी हमारे पास कुछ जमा पैसे आ जाएं तो मन कहेगा कि एक दो घर अलग-अलग शहरों में और बना लिया जाए, किराया मिलने का शौक पूरा होगा या फिर सुविधाओं की बढ़ोत्तरी के नाम पर कुछ एक गाड़ियां और ले ली जाए या फिर ऐसा ही बहुत कुछ। जब कभी लगे कि सुविधाएँ बढ़ाने की इस जद्दोजहद में हम असुविधाओं बैचेनियों को खुला आमंत्रण दे रहे हैं, तो हमें समय रहते पुनर्विचार कर ही लेना चाहिए।

अगली बार जब हर घर से निकलेंगे, कुछ खरीददारी करने भी जाएंगे तो अगर हमारे मन में यह ध्यान आए कि हमारे बहुत कुछ चीजें ना खरीदने से भी धरती पर उपकार हो सकता है, तो इसे हमें सहजता से स्वीकारने की जरूरत है। जब हम प्रकृति को बचाने के नाम पर ही कुंठा शांत करने हेतु हजारों किलोमीटर की यात्रा करेंगे, संसाधन खर्चते हुए अगर बीच में हमें यह आभास हो जाए कि यह सब ना करके भी तो हम धरती को बचाने में योगदान दे सकते हैं तो हमें चाहिए की हम तुरंत अपने कदम वापस खींच लें।

अगर हम अपने ही जीवन में कुछ छोटे-छोटे बदलाव कर लें, खुद से ही प्रयास करना शुरू कर दें तो हमें अलग से धरती को बचाने के लिए मौके तलाशने की जरूरत नहीं पड़ेगी, हमारी धड़कन खुद ही हमसे द्वंद पैदा करवाएगी, हमें रूककर पहचानने की जरूरत है कि क्या यह सचमुच हमारे लिए जरूरी है, अगर नहीं तो हमें लौटना होगा, हमें अपने अस्तित्व की रक्षा करनी होगी।

आज समय ऐसा है कि हममें से अधिकांश लोगों को कुछ न कुछ करना ही होता है, यानि रेस में आकंठ डूबकर साबित करने की यह होड़ चाहे वह समाज के लिए हो, देश के लिए हो या धरती के लिए हो, कुछ कर गुजरने के इस नशे में, इस अतिवादिता में इस बात का भी ध्यान रहे कि हम इतना भी आगे ना निकल जाए कि हमें बार-बार अपनी सत्यता साबित करनी पड़े, अपना चरित्रचित्रण करना पड़े, ढकोसलों का सहारा लेना पड़े, खोखला जीवन जीने को विवश होना पड़े।

वायरस अलग-अलग रूप लिए थोड़ा-थोड़ा हम सबके भीतर विद्यमान है, हमें उसे देखने की जरूरत है, पहचानने की जरूरत है, उसके पैदा होने से लेकर, बनने, फैलने, द्विगुणित होने की प्रक्रिया को शिथिल करने की जरूरत है, उससे खुद को पृथक करने की जरूरत है। अगर हम खुद से यह पहल नहीं करते हैं तो यह एक समय के बाद हमें लीलने के लिए फिर से नया अवतार लेकर आ जाएगा।

हमें आखिर में समझना होगा कि अगर हम धीरे-धीरे सुधार की ओर नहीं बढ़ेंगे तो प्रकृति फिर से हमें महीनों क्या, वर्षों घरों में बंद रहने के लिए विवश कर देगी, हमारे अस्तित्व को चुनौती देते हुए फिर से हमें घुटनों के बल खड़ा कर देगी और तब हमें वह गूगल से लाशों की गिनती करने लायक भी नहीं छोड़ेगी।‌