इस काॅलेज या यूं कहें कि इस यूनिवर्सिटी की सबसे बढ़िया जो चीज थी, वो थी यहाँ की लाइब्रेरी। इतनी बढ़िया लाइब्रेरी मध्य भारत में शायद ही किसी काॅलेज में होगी, किताबों का भी ठीक-ठाक कलेक्शन था। लेकिन मसला यह था कि स्टूडेंट आते ही नहीं थे, किताबें थी, सुंदर इंफ्रास्ट्रक्चर था, लेकिन पढ़ने वाले ही नदारद। माहौल ऐसा बन चला था कि लाइब्रेरी में भी लोग किताबें निकालकर बैठ तो जाते लेकिन पाँच मिनट बाद इयरफोन निकाल के फिल्में वीडियो मनोरंजन शुरू। इतनी आजादी तो जेएनयू में भी नहीं होगी, जितनी केटीयू में थी। लाइब्रेरी में एक हरे रंग का सोफा हुआ करता, सबको उसी में बैठना होता, बैल की तरह खींच खींचकर उस आरामदायक भारी सोफे को छात्र इस कोने से उस कोने ढकेलने में ही मशगूल रहते।
सामान्यतः हम जब किसी भी काॅलेज में एडमिशन लेते हैं, तो लाइब्रेरी कार्ड अनिवार्य रूप से सबका बन जाता है, लेकिन ये केटीयू था, ऐसा नहीं है कि यहाँ नहीं बनता था, बन के सढ़ भी जाता था, लोग पास-आउट हो जाते, लेकिन कार्ड लेने नहीं जाते थे। बिना लाइब्रेरी कार्ड के भी कई लोग काम चला लेते थे। मैं खुद एक दो लोगों का लाइब्रेरी कार्ड इस्तेमाल करता था, अब चूंकि एक कार्ड में सिर्फ दो किताबें इशू होती थी, तो मैं सोचता था कि बढ़िया नाॅवेल कहानी वगैरह का कलेक्शन है तो दो कार्ड से चार किताबें ले लेता। एक बार ऐसे ही मैंने चार किताबें ली, लाइब्रेरी वाली मैडम ने एंट्री करते वक्त मुझे ऐसे घूरा जैसे मैं चरस का व्यापार करता हूं, क्योंकि किताबें इशू कराना मतलब बहुत बड़ी चीज होती थी, क्योंकि बहुत विरले ही लोग ये कांड यहाँ करते थे। और मजे की बात ये कि जिन किताबों को मैं इशू कराया, उनका पिछला इशू डेट किसी का तीन साल पुराना तो किसी का पाँच साल पुराना हुआ करता जबकि विश्वस्तरीय किताबें थी। एक तो वो महापंडित राहुल की वोल्गा से गंगा किताब थी, जो कि मुझे महाकूड़ा लगी, मैक्सिम गोर्की की मां, एक प्रेमचंद का कथासार और एक दोस्तोवोस्की की कोई किताब थी। असली हादसा तो तब हुआ जब मैं कुछ दिनों के बाद इन किताबों को वापस लौटाने के लिए लाइब्रेरी गया। भालू के मार्फत सुस्त उस मैडम ने कहा - अभी-अभी तो लिए थे, मैंने कहा हो गया जितना पढ़ना था, पढ़ लिया। उन्होंने कहा- सब पढ़ लिए। मैंने कहा- हाँ एक छोड़के सब पढ़ लिया। अब वो अड़ गई, आखिर तक मानने को तैयार ही नहीं हुई। फिर मैंने कहा- बस आप कृपा करके ये बुक रिटर्न ले लो, मैं तो मजाक कर रहा था, इतना कोई कैसे पढ़ सकता है और फिर उन्होंने किताबें वापस ले ली।
यूनिवर्सिटी में एक छोटा सा कैंटीन था, जो कि असल में कैंटीन के नाम पर सरासर एक धोखा था, वहाँ सिर्फ चाय और मैगी के अलावा कुछ खास नहीं मिलता था। लोग रहेंगे ही नहीं तो कैंटीन बढ़ेगा कैसे।इस काॅलेज में आकर तो मानो जुगाड़ शब्द भी पानी माँगता था ऐसी स्थिति थी क्योंकि यहाँ Zero percent attendance में भी रेगुलर स्टूडेंट पेपर दिला सकता था, वो भी पचास सौ रूपए फाइन के साथ। वह फाइन भी थोड़ा सा प्रोटेस्ट करने से माफ हो जाता था, बताओ इतनी आजादी और कहाँ मिलेगी। मेरा खुद का 0.00% attendance था।
काॅलेज के ठीक पास में छात्र-छात्राओं का एक फेमस अड्डा हुआ करता था ऐनीकट। जहाँ वे एक दूसरे के ऊपर पानी की बौछार करने जाते। जीवन यहीं तक सीमित था, कुछ लोग एनीकट में जाकर घंटों बैठे रहते और जीवन का अधकचरा सा लक्ष्य बुनते रहते और जिनकी सेटिंग होती उनके लिए तो लाइब्रेरी का भीमकाय हरा सोफा था ही। बाकी जो थोड़ा बहुत पढ़ भी लेते थे, या कहीं छोटी-मोटी नौकरी कर रहे होते वे छालीवुड के सेलिब्रिटी की तरह कभी कभार काॅलेज शक्ल दिखाने आ जाते थे।
अटल साहब की एक कविता यूनिवर्सिटी का कुलगीत हुआ करती था। लेकिन सही मायनों में कुलगीत से कहीं अधिक कुछ सूक्तियों ( वन-लाइनर) और कुछ एक नयी-नयी शब्दावलियों का प्रचलन जोरों पर था, या यूं कहें कि कुछ अलग ही किस्म के तकिया-कलाम थे जिसे समय-समय पर खाली ठलहा बैठे यहाँ के ही होनहार छात्रों ने बना रखा था। जैसे कि - " सम्मान में कमी ", " हल्का टच " , " रगड़-घंस " , " फग्गिडा " आदि-आदि।
किसी भी काॅलेज की वस्तुस्थिति या दुर्गति का अंदाजा लगाना हो तो वहाँ के बाबू का रोल देखना चाहिए। क्योंकि जिस काॅलेज की भद्द पीट चुकी होती है, वहाँ के बाबू के ऊपर स्वत: ही जिम्मेदारियाँ बढ़ने लग जाती हैं। तो हमारे यहाँ भी ऐसा एक पटेल नाम का बाबू हुआ करता, छात्र से लेकर प्रोफेसर हर किसी की जुबान में उसी का नाम होता, क्योंकि झाड़ू पोछा करने वालों के बाद एक यही व्यक्ति बच जाता था जो अपना काम सही ढंग से करता था।
एग्जाम के एक दो दिन पहले गूगल से पढ़कर हम पाइंटर्स बना लेते और पास हो जाते। कई बार तो टेस्ट पेपर में छात्र एक दूसरे से यह तक पूछते कि सब्जेक्ट का नाम क्या है। टीचर भी सुनकर मुस्कुरा देते क्योंकि वो भी यहीं इसी मिट्टी के बाय प्रोडक्ट थे, कभी-कभी फाइनल एग्जाम में भी लोग सब्जेक्ट का पूरा नाम स्पेलिंग सहित पूछ लेते। बात यहां तक खत्म नहीं हुई, हमारे यहाँ इसका भी नेक्सट लेवल था। फाइनल एग्जाम में जब कुलपति, विभागाध्यक्ष चक्कर लगाने आते तो परीक्षार्थियों से पूछते - और बढ़िया न है न पेपर, दिलाओ बढ़िया मजे से दिलाओ यार, एक दो सवाल थोड़ा इधर उधर हो सकता है। ऐसा लगता मानो किसी रेस्तरां में बैठे हों और रेस्तरां का मालिक ही आकर खाने के स्वाद के बारे में पूछ रहा हो। कभी-कभी ऐसा लगता कि बस अभी चरण धोकर इनकी पूजा की जाए, ऐसा लगता मानो किसी ने पचास नारियल का चढ़ावा लगाया होगा, तपस्या की होगी, तभी ऐसे क्यूट दिव्यपुरूष अवतरित हुए होंगे, जो कि हमारा इतना ख्याल रखते हैं। कुल मिला के बहुत निराला काॅलेज था।
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