Life of a Fellow -
चार लोग - करते क्या हो?
मैं - फेलोशिप है। समाजकार्य जैसा कुछ कुछ, यही मोटा-मोटा समझिए।
चार लोग - मतलब ये नौकरी ही है या कुछ और?
मैं - नौकरी ही है मान के चलिए, सोशल वर्क को और कैसे ही बताया जाए।
चार लोग - समझा नहीं। ये सब मतलब कहाँ से मिल गया।
मैं - परीक्षा दी है, चयन हुआ, फिर इंटरव्यू हुआ है, पूरे भारत के अलग अलग कोनों से 17 लोगों का चयन हुआ है, दुर्भाग्य से उसमें से एक मैं भी हूं। लोगों को इन सब के बारे में शायद इसलिए भी ज्यादा नहीं पता होता क्योंकि ऐसे अजीब से किसी पक्ष को जानने का प्रयास नहीं किया गया।
चार लोग - अच्छा, इसमें आप लोग करते क्या हो, मैं समझ नहीं पा रहा हूं।
मैं - गाँव, शहर दोनों स्तर पर समाज के पिछड़े तबकों के लिए काम, आपदा, बाढ़, भूस्खलन आदि के समय युध्दस्तर पर राहत कार्य। फिलहाल तो इतना ही समझिए।
चार लोग - अच्छा। इसमें सैलरी वगैरह मिलेगी कि ऐसे ही है।
मैं - मिलेगी, क्यों नहीं मिलेगी। इतनी तो मिलती ही है कि समाज के चार लोगों के द्वारा दी जा रही गालियाँ पचा सकें। गलती आपकी नहीं है कि आपके मन में ऐसे सवाल आते हैं। असल में लोगों को यही लगता है कि समाज के लिए काम करने वालों को खाने और रहने के लिए पैसों की जरूरत नहीं होती, उन्हें तो भूखा मर जाना चाहिए, संघर्ष करते ही खत्म हो जाना चाहिए। ऐसी ही तरह की सोच होती होगी तभी सैलरी के मिलने न मिलने पर सवाल खड़ा किया जाता है।
चार लोग - चलो बढ़िया है, हम तो बस पूछ रहे थे यार।
मैं - कोई बात नहीं। ऐसे सवाल पूछते रहा कीजिए। इसी बहाने समाज की हकीकत तो पता चलती है। और एक निवेदन है कि सवाल ये भी करिए कि आखिर हम जैसे सिरफिरे लोग को इन सब फेलोशिप की जरूरत क्यों पड़ती है। ये भी सवाल करिए कि ये सामाजिक संस्थानों की जरूरत क्यों पड़ती है, इनका वजूद क्यों है। कहिए सरकार से, नेताओं से, सरकारी कुर्सियों पर बैठे आकाओं से कि वे इतना काम तो कर ही दें कि सामाजिक संस्थानों के अस्तित्व पर संकट आ जाए। और फिर समाज को इनकी जरूरत ही ना पड़े। हम तो यही चाहते हैं कि ऐसा हो जाए।
चार लोग - करते क्या हो?
मैं - फेलोशिप है। समाजकार्य जैसा कुछ कुछ, यही मोटा-मोटा समझिए।
चार लोग - मतलब ये नौकरी ही है या कुछ और?
मैं - नौकरी ही है मान के चलिए, सोशल वर्क को और कैसे ही बताया जाए।
चार लोग - समझा नहीं। ये सब मतलब कहाँ से मिल गया।
मैं - परीक्षा दी है, चयन हुआ, फिर इंटरव्यू हुआ है, पूरे भारत के अलग अलग कोनों से 17 लोगों का चयन हुआ है, दुर्भाग्य से उसमें से एक मैं भी हूं। लोगों को इन सब के बारे में शायद इसलिए भी ज्यादा नहीं पता होता क्योंकि ऐसे अजीब से किसी पक्ष को जानने का प्रयास नहीं किया गया।
चार लोग - अच्छा, इसमें आप लोग करते क्या हो, मैं समझ नहीं पा रहा हूं।
मैं - गाँव, शहर दोनों स्तर पर समाज के पिछड़े तबकों के लिए काम, आपदा, बाढ़, भूस्खलन आदि के समय युध्दस्तर पर राहत कार्य। फिलहाल तो इतना ही समझिए।
चार लोग - अच्छा। इसमें सैलरी वगैरह मिलेगी कि ऐसे ही है।
मैं - मिलेगी, क्यों नहीं मिलेगी। इतनी तो मिलती ही है कि समाज के चार लोगों के द्वारा दी जा रही गालियाँ पचा सकें। गलती आपकी नहीं है कि आपके मन में ऐसे सवाल आते हैं। असल में लोगों को यही लगता है कि समाज के लिए काम करने वालों को खाने और रहने के लिए पैसों की जरूरत नहीं होती, उन्हें तो भूखा मर जाना चाहिए, संघर्ष करते ही खत्म हो जाना चाहिए। ऐसी ही तरह की सोच होती होगी तभी सैलरी के मिलने न मिलने पर सवाल खड़ा किया जाता है।
चार लोग - चलो बढ़िया है, हम तो बस पूछ रहे थे यार।
मैं - कोई बात नहीं। ऐसे सवाल पूछते रहा कीजिए। इसी बहाने समाज की हकीकत तो पता चलती है। और एक निवेदन है कि सवाल ये भी करिए कि आखिर हम जैसे सिरफिरे लोग को इन सब फेलोशिप की जरूरत क्यों पड़ती है। ये भी सवाल करिए कि ये सामाजिक संस्थानों की जरूरत क्यों पड़ती है, इनका वजूद क्यों है। कहिए सरकार से, नेताओं से, सरकारी कुर्सियों पर बैठे आकाओं से कि वे इतना काम तो कर ही दें कि सामाजिक संस्थानों के अस्तित्व पर संकट आ जाए। और फिर समाज को इनकी जरूरत ही ना पड़े। हम तो यही चाहते हैं कि ऐसा हो जाए।
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