मुझे नहीं लगता कि भारत के आम किसान ने कभी भी Climate Change के लिए या धरती को खत्म करने के लिए कोई काम किया हो।अगर किसान धरती को नुकसान पहुंचाते हैं या शोषण करते भी हैं तो इसके पीछे बाजार का दबाव हावी होता है। अगर बाजार का दबाव हट जाए तो कोई किसान धरती को नुकसान नहीं पहुंचाएगा।
जानबूझ के कोई किसान ऐसा नहीं करता, उसकी प्रवृति ऐसी नहीं है फिर भी समाधान का बोझ उसी के कंधों पर है, उसी को जिम्मेदार माना जाता है।
Climate Change के नाम पर, पर्यावरण के नाम पर दुनिया भर में हजारों सेमिनार होते हैं, चर्चाएँ होती हैं, किताबें लिखी जा रही हैं, बुकलेट छाप के बांटे जा रहे हैं लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि चर्चाओं से, थ्योरीज से, तर्कों से क्या धरती को खत्म होने से बचाया जा सकता है?
उत्तर बहुत ही सरल और स्पष्ट है- नहीं बचाया जा सकता, कतई नहीं बचाया जा सकता।
बिना वास्तविक धरातल में प्रयासों को घटित किए हुए हम धरती को खत्म होने से नहीं बचा सकते।
अभी जो भी धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक स्थितियां, गतियाँ, रूझान, दिशाएँ हैं वे सब दूर-दूर तक समाधान की संभावनाएँ भी नहीं दिखाती। उल्टे समाधान को और मुश्किल बनाती हैं, इतना मुश्किल कि असंभव सा दिखता है।
अब चूंकि भारतवर्ष बड़े लंबे समय से गुलाम रहा है और गुलामी में अभिव्यक्ति का स्वातंत्र्य नहीं होता, जो हो रहा है उसकी प्रक्रिया देने के अवसर नहीं मिलते इसलिए हम भारतीयों को आक्रोश व प्रतिक्रियात्मक बातें अच्छी लगती है और हमें क्षणिक नशे का आनंद भी देती है।
किन्तु क्या तर्क, प्रतिक्रियाएं इत्यादि हमें अपना जीवनशैली बदलने के लिए कोई आदर्श या प्रेरणा दे पाती है?
क्या हम अपना जीवनशैली बदल पाते हैं?
सच तो ये है नहीं कर पाते, नहीं दे पाते.
आज मानव जीवन ऐसे मोड़ पर आ खड़ा है कि करो या मरो की स्थिति है इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
मानव जाति के हर मनुष्य को अपने हिस्से की जिम्मेदारी को जीना होगा। दूसरा जिये या न जिये किन्तु हमें जीना होगा और ये जो जीना है वास्तविक धरातल पर होगा शब्दों में नहीं, तर्कों से नहीं, सिध्द करने से नहीं।
जीवंतता से जीना होगा अपने हिस्से की जिम्मेदारी।
हम ये नहीं कह सकते कि जब तक दूसरा नहीं जियेगा हम नहीं जियेंगे, दूसरा जिये या न जिये हमें जीना है।और हो सके तो अपनी जी कर के दूसरे के बदले भी जी लेना है।
समाधान के प्रयासों को धरातल में घटित कराने की अपनी जिम्मेदारी को हमें हर हालत में सुनिश्चित करना ही होगा। हममें से हर कोई देश का प्रधानमंत्री नहीं हो सकता, किन्तु हममें से हर कोई अपने हिस्से की जिम्मेदारी तो जी सकता है।
जितनी भी हमारी जिम्मेदारी जो भी हमारी स्थिति, जो हमारी गति है उसके आधार पर जितना हो सके उतना तो हमें करना ही होगा।
साभार - विवेक उमराव
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