Monday, 15 April 2019

~ सम्बलपुर की एक शाम ~

बस में बैठे उस व्यक्ति से मैंने पूछा - क्या रेल्वे स्टेशन तक जाने के लिए अभी आॅटो मिल जाएगी?
उसने कहा - नहीं यहाँ से शेयरिंग में तो नहीं मिलेगा आपको जाना है तो ज्यादा पैसे देकर आॅटो बुक करना पड़ेगा। हां एक बात और, आपको लिफ्ट जरूर मिल जाएगा इतनी गारंटी है।
उसकी लिफ्ट वाली बात को सच मानते हुए मैं तीन किलोमीटर के उस रास्ते में पैदल चलता गया, 6 घंटे के बस के सफर के बाद भूख भी लग रही थी और थकान भी। शहर को देखता गया, रास्तों पर चलता गया, एक पुराना शहर, छोटी-छोटी गलियां, आंगन पर बैठे खुशमिजाज लोग, ठीक कुछ घर, फिर कुछ दुकानें, फिर कोई एक बड़ा सा घर। शायद इस पुराने शहर को किसी ने ज्यादा नहीं छेड़ा है, बड़े लम्बे अरसे से लोगों को वैसा ही रहने ही दिया है, किसी पुराने सांस्कृतिक नगर से गुजरने पर ऐसा ही अहसास होता है, निस्संदेह इस अहसास के भीतर अपनी एक विसंगति छुपी हुई है, दारूणता भी, जो लंबे समय से इस संस्कृति का हिस्सा रही है।
खैर...
ठीक ऐसा पहले अल्मोड़ा की गलियों में महसूस हुआ था, और उससे भी कहीं ज्यादा इलाहाबाद (वर्तमान नाम - प्रयाग) की उन संकरी गलियों में। सचमुच कुछ शहरों की अपनी एक ऐसी पहचान होती है जो विकास रूपी मानकों यानि सड़कों, वाहनों, ईमारतों और चकाचौंध वाली जीवनशैली से उतना समझौता नहीं कर पाती, वह बार-बार अपनी सांस्कृतिक पहचान को हमेशा सामने लाकर खड़ा कर देती है।

शहर को देखते हुए यह ध्यान ही नहीं रहा कि लिफ्ट भी लिया जा सकता था, कितने दुपहिए वाहन तो गुजर रहे थे, मैप पर नजर डालने से पता चला कि एक किलोमीटर से अधिक की चलाई हो चुकी है, मैंने अभी तक लिफ्ट के लिए किसी को पीछे मुड़कर देखा भी नहीं है क्योंकि उतनी भी थकान और भूख नहीं है कि तीन किलोमीटर पैदल न चल सकूं। ये विचार मन में जैसे ही आया उसके ठीक कुछ क्षण पश्चात् एक मोपेड आकर रूकी, पीछे कुछ सामान बंधा हुआ था। मोपेड पर बैठा गर्मी और सर्दी को बराबर झेलता आया एक हंसमुख सा चेहरा, वास्तव में संघर्ष को परिभाषित करता हुआ उसका चौड़ा स्मृति पटल, आँखों में चश्मा, साधारण से कपड़े, तकरीबन चालीस की उमर और मोपेड पर ग्रिल में बंधी एक‌ पोटली; कोई छोटे से किराने की दुकान लगाने वाला व्यापारी सा लगा मुझे वो।
चलो बैठो, कहाँ जाना है - उसने कहा।
रेल्वे स्टेशन जा रहा हूं - मैंने उत्तर दिया।
चलो बैठो। और मैं जैसे-तैसे उसके सामान के बीच जगह बनाकर उसकी मोपेड में बैठ गया।
अच्छा कितने बजे ट्रेन है,
रात के बारह बजे - मैंने कहा।
बहुत टाइम है अभी, ठीक है चलो फिर रास्ते में एक मंदिर पड़ेगा, दो मिनट माथा टेकूंगा, आपको भी घुमा लेता हूं, देख लेना आप भी, सम्बलपुर का बहुत अच्छा मंदिर है, जो भी इधर से गुजरता है, इस वैष्णो देवी मंदिर में जरूर आता है। मंदिर दर्शन करके फिर रेल्वे स्टेशन चले जाएँगे। ठीक है ना?
अरे नहीं, आप तकलीफ मत कीजिए मैं चला जाऊँगा, मुझे आदत है, पैदल चलने की। जब तक मैं ये बात कह रहा था, उसकी मोपेड वैष्णो देवी मंदिर के द्वार पर पहुंच चुकी थी। हमने मंदिर दर्शन किया, कुछ सेकेंड के लिए उसके हावभाव को देखते हुए आश्चर्य भी हुआ, लेकिन उतना नहीं हुआ क्योंकि इससे पहले न जाने कितने अनजान मुझे मिले थे जो अचानक मिल जाते मदद करते और निकल जाते, मुझे लगता है उनके लिए ऐसे मदद कर देना एक सामान्य सी बात होती है। तो मैं भी इसे एक सामान्य सी घटना मान कर पूरे मन से मंदिर दर्शन करने लगा। वैष्णो देवी के इस छोटे से मंदिर को देखकर अनायास ही जम्मू का मां वैष्णो देवी मंदिर याद आ गया, पूरे चौदह किलोमीटर की चढ़ाई थी, फरवरी के महीने में तो गये थे, रात के दस बजे जो चढ़ाई शुरू की थी, सुबह 4 बजे माता के दर्शन किए थे, कितना सुखद था शरीर को कोण बनाते हुए झुकाकर गुफा के बीच से होकर जाना, एक डिग्री ठंड में सुन्न हो चुके नंगे पाँवों से चलते हुए माता रूपी उन छोटे पत्थरों के दर्शन करना, पहाड़ों में तो ऊंचाईयों में ऐसे प्रतीक रूप में ही मंदिर होते हैं। वहां गये हुए पाँच साल से भी अधिक हो गये। खैर मैं अब पहाड़ों के ख्याल से वापस लौटता हूं।
मैंने उस व्यापारी भाई को कहा कि आप वैष्णो देवी गये हैं, जम्मू में जो है।
उसने कहा - मैं तो भाईसाब हर साल जाता हूं, पूरा हमारा ग्रुप जाता है, बहुत से परिवार मिल कर जाते हैं। सबको‌ लेकर मैं जाता हूं, और ये जो मंदिर है यहाँ शाम को‌ एक बार जरूर आता हूं।
अच्छा सुनिए मैं चलता हूं, स्टेशन पास में ही है, मैं चला‌ जाऊँगा - गूगल मैप पर कुछ चार सौ मीटर की दूरी देखने के बाद मैंने उससे कहा।
उसने कहा - अरे नहीं। मेरा तो रोज का रास्ता है, असल में ये जो पोटली का सामान है, ये मुझे रास्ते में छोड़ना था, इसलिए देरी हो गई नहीं तो मैं आपको बहुत पहले ही मिल जाता, आपको इतना एक‌ किलोमीटर भी नहीं चलना पड़ता, आपने जहाँ से पैदल चलना शुरू किया था, मैं वहीं आपको मिल जाता।
अच्छा, आपका उधर स्टेशन में कुछ काम है क्या, अगर नहीं तो रहने दीजिए,‌ क्यों तकलीफ करते हैं, मैं चला जाऊँगा।
उसने कहा - नहीं आप बैठिए मैं छोड़ देता हूं।
सम्बलपुर रेल्वे स्टेशन सामने था‌।
अच्छा ठीक है इधर ये एक बढ़िया रेस्टोरेंट है, अच्छा खाना मिलता है, उधर स्टेशन के अंदर भी फूड कोर्ट है, वहाँ भी अच्छा खाना मिलता है, खा लीजिएगा‌ - ऐसा कहते हुए वह वापस चला गया।
उस वक्त मेरे मुंह से सिवाय एक शुक्रिया के अलावा और कुछ भी नहीं निकल पाया।

इस शहर में यह मैं पहली बार आया हूं, देखने के नाम पर सिर्फ एक मंदिर और दूर गाँव के किनारे बना एक सुंदर सा रेल्वे स्टेशन ही देख पाया हूं, शायद यह भारत का एकलौता ऐसा रेल्वे स्टेशन होगा जहाँ स्टेशन के अंदर भी छोटे-छोटे गार्डन बने हुए हैं।
हां स्टेशन तक आते आते थोड़ा ही सही इस शहर का मिजाज भी देख लिया, कि कैसे अपनी सांस्कृतिक विरासत के बल‌ पर एक शहर अपने ही राज्य की राजधानी तक को अलग होने की चुनौती देने से भी नहीं घबराता।

सम्बलपुर की इस मजबूत सांस्कृतिक विरासत को स्मृतियों में कैद करने के पश्चात् अपनी यात्रा के पुराने अनुभवों को मैं याद करते हुए यह सोच रहा था कि आखिरी बार कब मुझे ऐसे जिंदादिल लोग मिले थे। फिर मैंने स्टेशन की साफ सफाई और खूबसूरती को देखते हुए खुद से कहा - चलो अब कुछ खा लिया जाए, उसने चाहा तो ऐसे लोग मिलते रहेंगे।

वैष्णो देवी मंदिर, संबलपुर

संबलपुर रेल्वे जंक्शन

संबलपुर रेल्वे स्टेशन


फूड प्लाजा

प्लेटफाॅर्म, संबलपुर जंक्शन

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