हमें देखना होगा, समझना होगा कि हम अपने आसपास के लोगों से कैसा बर्ताव करते हैं।
हमें देखना होगा, समझना होगा एक सफाईकर्मी और उसके काम को भी, और यह भी कि हम उससे किस अंदाज में बात कर रहे होते हैं, अगर हम उसे हेय समझते हैं तो इसकी वजह उसका ठीक से सफाई नहीं कर पाना होता है या फिर इसलिए कि Hierarchy में वो हमसे नीचे है, इसलिए तुच्छ है। हमें यह फर्क करके देखना होगा।
हमें देखना होगा, समझना होगा, एक आॅटोचालक/रिक्शाचालक को भी जो हमें अपनी सुविधाएँ देता है, और जब वो हमारी जरूरत बनता है तो हम उसे बुलाते हैं तब हमारे द्वारा उसे "ऐ आॅटो/रिक्शा" कहना, इस टोन में शोषण का भाव रहता है या नहीं।
हमें देखना होगा, समझना होगा बाजार में सब्जी बेचने वाले कोंचिए को भी कि उसे हम क्या समझते हैं, किस तरीके से बात करते हैं और वही सामान अगर किसी बड़े माॅल में खरीदने जाते हैं तो हममें किस प्रकार के भाव उमड़ते हैं, इसकी पड़ताल करनी होगी।
हमें देखना होगा, समझना होगा रोडसाइड में काम कर रहे मैकेनिक लोगों को भी जो हमारी शोषण वाली मानसिकता से दो चार होते हैं, और उनके साथ ही कार के एक बड़े शोरूम में ड्रेस पहने हुए कर्मचारियों को भी जिनके सामने हम थोड़ी सी कम गुंडई दिखा पाते हैं। हमें यह फर्क समझना होगा।
हमें देखना होगा, समझना होगा एक भोजनालय या रेस्तराँ में काम करने वाले श्रमिकों को भी जो हमें खाना देकर हमारी भूख मिटाते हैं। जब इन्हें हम पानी मांगने या टेबल की सफाई करने के वास्ते बुलाते हैं तो हमें इसमें यह देखना होगा कि एक सामान्य से भोजनालय और एक बड़े एसी रेस्तराँ में, वहाँ कार्यरत लोगों के प्रति हमारे बर्ताव में कोई अंतर दिखाई पड़ता है या नहीं।
हमें देखना होगा, समझना होगा, एक बस कंडक्टर को भी जो अपनी पूरी दंबगाई के साथ सवारी लादता है, लेकिन तब यहाँ हम खामोश रहते हैं, वह क्षण प्रतिक्षण हमारी मानसिकता को ललकार रहा होता है, लेकिन यहाँ हम कुछ नहीं कह पाते हैं, क्योंकि वह हमसे शोषित होने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं दिखाई पड़ता। इसलिए प्रायः हम ऐसे लोगों पर शाब्दिक हमला करने से परहेज करते हैं।
हमें देखना होगा, समझना होगा, हमारे आसपास मौजूद श्रम के उन सभी आयामों को, जिनका हम आए दिन तिरस्कार कर बहुत बेहतर महसूस कर रहे होते हैं।
हमें देखना होगा, समझना होगा यह भी कि शोषण सिर्फ कोई घोषित नेता या चयनित अधिकारी कर्मचारी ही नहीं करता है। हजारों वर्षों से चली आ रही शोषण की परंपरा जो हमें विरासत में मिलती है, इसका निर्वहन हम सब अपनी अपनी ताकत और जरूरत के हिसाब से बराबर करते हैं, पूरी क्रूरता के साथ करते हैं और ऐसा करने के लिए यह कहीं से भी जरूरी नहीं होता कि हम कोई बड़े नेता, व्यापारी या अधिकारी हों। हम खुद को राजा जैसा महसूस कराने के लिए अपने नीचे कुचलने के लिए चंद लोग खोज ही लेते हैं, और यह भूख हमारे भीतर एक शोषक को, सामंत को हमेशा जिंदा रखती है।
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