प्रथम अध्याय में सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय की विभिन्न अवस्थाओं का, मनुस्मृति के आविर्भाव तथा उसकी परम्परा के प्रवर्तन का, इसके पढ़ने के अधिकारी तथा फल के वर्णन के उपरान्त अध्याय के अन्त में ग्रन्थ की विषयसूची का उल्लेख हुआ है।
द्वितीय अध्याय में आर्यों के निवास-प्रदेश आर्यावर्त की उत्तर, दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम सीमाओं का, वहां की जलवायु का, वहां के निवासियों के उच्च चरित्र का, व्यक्ति के सर्वतोमुखी विकास के लिए अपनाये जाने वाले सोलह संस्कारों का, ज्ञान के महत्त्व का तथा विद्याध्ययन काल में ब्रह्मचारी के लिए गुरुकुल में आचरणीय एवं पालनीय नियमों का उल्लेख हुआ है।
तृतीय अध्याय में गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के अन्तर्गत आठ प्रकार के विवाहों का, कन्या की पात्रता का, श्राद्ध के लिए निमन्त्रित किये जाने वाले ब्राह्मण की योग्यता का तथा श्राद्ध में परोसे जाने वाले द्रव्यों की उपयुक्तता-अनुपयुक्तता का वर्णन हुआ है।
चतुर्थ अध्याय में गृहस्थ के लिए अपनायी जाने योग्य आदर्श आचार-संहिता का, निषिद्ध कर्मों से बचने का तथा चरित्र की रक्षा के प्रति सदैव सतर्क रहने का वर्णन हुआ है। इस अध्याय में गृहस्थ को जितेन्द्रिय होने के साथ-साथ दान देने में अत्यन्त उदार होने का सुझाव भी दिया गया है।
पञ्चम अध्याय में अभक्ष्य पदार्थों में मांस को प्रमुख मानते हुए उसके सेवन में दोषों का, वेदविहित हिंसा को अहिंसा मानने का, ज्ञान, तप, अग्नि आदि बारह शुद्धिकारक पदार्थों का, अर्थशुद्धि—ईमानदारी से धन कमाने—को ही सबसे बड़ी शुद्धि मानने का, देह के बारह मलों का तथा स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों के आदर्श रूप का वर्णन हुआ है।
षष्ठ अध्याय में वानप्रस्थ के लिए आचरणीय नियमों—मद्य-मांस आदि का सेवन न करना, संग्रह से बचना, कष्टों को प्रसन्नतापूर्वक सहना, प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव रखना, सबको अभयदान देना, निन्दा-स्तुति से बंचना, आलस्य का परित्याग, सन्ध्या-वन्दनादि के प्रति सतर्क रहना तथा मोक्ष-प्राप्ति के प्रति सचेष्ट रहने का तथा संन्यास आश्रम की महत्ता का वर्णन हुआ है।
सप्तम अध्याय में राजा के लिए आचरणीय धर्मों का, दण्ड की महत्ता का, मन्त्रियों से परामर्श करने की रीति का, दूतों की ईमानदारी की परख का, दुर्ग-रचना-पद्धति का, राज्य की उपयुक्त व्यवस्था की विधि का, कर-निर्धारण की प्रणाली को न्यायसंगत बनाने का, प्रजा की सुख-समृद्धि के प्रति सतर्क एवं सचेष्ट रहने के अतिरिक्त राजनीति—साम, दाम, भेद तथा दण्ड—के प्रयोग की व्यावहारिकता का वर्णन हुआ है।
अष्टम अध्याय में राजा को प्रजा के विवादों को निपटाने के लिए समुचित विधि को अपनाने का, अपराधियों को दण्ड देने का, धर्मविरुद्ध साक्ष्य देने वाले तथा मिथ्याव्यवहार करने वालों को अनुशासित करने का, दण्ड देते समय व्यक्ति के स्तर तथा अपराध की मात्रा पर विचार करने का और सीमा तथा कोश आदि की सुरक्षा के प्रति सावधान रहने का परामर्श दिया है।
नवम अध्याय में स्त्रियों और पुरुषों के एक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों एवं अधिकारों का, आपत्काल में स्त्रियों को नियोग द्वारा सन्तान उत्पन्न करने के अधिकार का, पिता की सम्पत्ति के उत्तराधिकारी का, पुत्र के अभाव में उत्तराधिकारी बनने वालों में वरीयता का, बारह प्रकार के पुत्रों में उत्तरोत्तर वरीयता का तथा दूसरों के अधिकार का हरण करने वालों को दण्डित करने का वर्णन हुआ है।
दशम अध्याय में मानव जाति को चार वर्णों में विभक्त करके चारों वर्णों के कर्तव्यों का, भिन्न वर्ण के पुरुष द्वारा भिन्न वर्ण की स्त्री से उत्पन्न सन्तान (वर्णसंकर) की सामाजिक स्थिति का, चारों वर्णों के आपद्धर्मों का तथा आपत्काल में चारों वर्णों के लोगों द्वारा नियत धर्म के पालन की प्रशंसा का वर्णन किया गया है।
एकादश अध्याय में जाने-अनजाने विहित कर्मों का त्याग और निषिद्ध कर्मों का अनुष्ठान करने पर प्रायश्चित्तों का, मांस आदि अभक्ष्य-भक्षण, मदिरा आदि सेवन तथा अगम्यागमन प्रभृति पातकों, गोवध, ब्रह्महत्या प्रभृति और महापातकों के करने पर उनके दण्डस्वरूप प्राजापत्य, अतिकृच्छ्र तथा चान्द्रायण प्रभृति विविध प्रायश्चित्तों का, वेदाभ्यास, तप और ज्ञान की महत्ता आदि का वर्णन हुआ है।
द्वादश अध्याय में शरीरोत्पत्ति का, स्वर्गलाभ और नरक-प्राप्ति कराने वाले कर्मों का, अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त करने वाले कर्मों का, तप और विद्या के फल का, शास्त्रों में अप्राप्य का, विद्वान् ब्राह्मण द्वारा निर्णय कराने का, ब्रह्मवेत्ता की पहचान का तथा परमपद की प्राप्ति के उपाय तथा सर्वत्र समदृष्टि का वर्णन हुआ है।
द्वितीय अध्याय में आर्यों के निवास-प्रदेश आर्यावर्त की उत्तर, दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम सीमाओं का, वहां की जलवायु का, वहां के निवासियों के उच्च चरित्र का, व्यक्ति के सर्वतोमुखी विकास के लिए अपनाये जाने वाले सोलह संस्कारों का, ज्ञान के महत्त्व का तथा विद्याध्ययन काल में ब्रह्मचारी के लिए गुरुकुल में आचरणीय एवं पालनीय नियमों का उल्लेख हुआ है।
तृतीय अध्याय में गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के अन्तर्गत आठ प्रकार के विवाहों का, कन्या की पात्रता का, श्राद्ध के लिए निमन्त्रित किये जाने वाले ब्राह्मण की योग्यता का तथा श्राद्ध में परोसे जाने वाले द्रव्यों की उपयुक्तता-अनुपयुक्तता का वर्णन हुआ है।
चतुर्थ अध्याय में गृहस्थ के लिए अपनायी जाने योग्य आदर्श आचार-संहिता का, निषिद्ध कर्मों से बचने का तथा चरित्र की रक्षा के प्रति सदैव सतर्क रहने का वर्णन हुआ है। इस अध्याय में गृहस्थ को जितेन्द्रिय होने के साथ-साथ दान देने में अत्यन्त उदार होने का सुझाव भी दिया गया है।
पञ्चम अध्याय में अभक्ष्य पदार्थों में मांस को प्रमुख मानते हुए उसके सेवन में दोषों का, वेदविहित हिंसा को अहिंसा मानने का, ज्ञान, तप, अग्नि आदि बारह शुद्धिकारक पदार्थों का, अर्थशुद्धि—ईमानदारी से धन कमाने—को ही सबसे बड़ी शुद्धि मानने का, देह के बारह मलों का तथा स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों के आदर्श रूप का वर्णन हुआ है।
षष्ठ अध्याय में वानप्रस्थ के लिए आचरणीय नियमों—मद्य-मांस आदि का सेवन न करना, संग्रह से बचना, कष्टों को प्रसन्नतापूर्वक सहना, प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव रखना, सबको अभयदान देना, निन्दा-स्तुति से बंचना, आलस्य का परित्याग, सन्ध्या-वन्दनादि के प्रति सतर्क रहना तथा मोक्ष-प्राप्ति के प्रति सचेष्ट रहने का तथा संन्यास आश्रम की महत्ता का वर्णन हुआ है।
सप्तम अध्याय में राजा के लिए आचरणीय धर्मों का, दण्ड की महत्ता का, मन्त्रियों से परामर्श करने की रीति का, दूतों की ईमानदारी की परख का, दुर्ग-रचना-पद्धति का, राज्य की उपयुक्त व्यवस्था की विधि का, कर-निर्धारण की प्रणाली को न्यायसंगत बनाने का, प्रजा की सुख-समृद्धि के प्रति सतर्क एवं सचेष्ट रहने के अतिरिक्त राजनीति—साम, दाम, भेद तथा दण्ड—के प्रयोग की व्यावहारिकता का वर्णन हुआ है।
अष्टम अध्याय में राजा को प्रजा के विवादों को निपटाने के लिए समुचित विधि को अपनाने का, अपराधियों को दण्ड देने का, धर्मविरुद्ध साक्ष्य देने वाले तथा मिथ्याव्यवहार करने वालों को अनुशासित करने का, दण्ड देते समय व्यक्ति के स्तर तथा अपराध की मात्रा पर विचार करने का और सीमा तथा कोश आदि की सुरक्षा के प्रति सावधान रहने का परामर्श दिया है।
नवम अध्याय में स्त्रियों और पुरुषों के एक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों एवं अधिकारों का, आपत्काल में स्त्रियों को नियोग द्वारा सन्तान उत्पन्न करने के अधिकार का, पिता की सम्पत्ति के उत्तराधिकारी का, पुत्र के अभाव में उत्तराधिकारी बनने वालों में वरीयता का, बारह प्रकार के पुत्रों में उत्तरोत्तर वरीयता का तथा दूसरों के अधिकार का हरण करने वालों को दण्डित करने का वर्णन हुआ है।
दशम अध्याय में मानव जाति को चार वर्णों में विभक्त करके चारों वर्णों के कर्तव्यों का, भिन्न वर्ण के पुरुष द्वारा भिन्न वर्ण की स्त्री से उत्पन्न सन्तान (वर्णसंकर) की सामाजिक स्थिति का, चारों वर्णों के आपद्धर्मों का तथा आपत्काल में चारों वर्णों के लोगों द्वारा नियत धर्म के पालन की प्रशंसा का वर्णन किया गया है।
एकादश अध्याय में जाने-अनजाने विहित कर्मों का त्याग और निषिद्ध कर्मों का अनुष्ठान करने पर प्रायश्चित्तों का, मांस आदि अभक्ष्य-भक्षण, मदिरा आदि सेवन तथा अगम्यागमन प्रभृति पातकों, गोवध, ब्रह्महत्या प्रभृति और महापातकों के करने पर उनके दण्डस्वरूप प्राजापत्य, अतिकृच्छ्र तथा चान्द्रायण प्रभृति विविध प्रायश्चित्तों का, वेदाभ्यास, तप और ज्ञान की महत्ता आदि का वर्णन हुआ है।
द्वादश अध्याय में शरीरोत्पत्ति का, स्वर्गलाभ और नरक-प्राप्ति कराने वाले कर्मों का, अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त करने वाले कर्मों का, तप और विद्या के फल का, शास्त्रों में अप्राप्य का, विद्वान् ब्राह्मण द्वारा निर्णय कराने का, ब्रह्मवेत्ता की पहचान का तथा परमपद की प्राप्ति के उपाय तथा सर्वत्र समदृष्टि का वर्णन हुआ है।