Sunday, 24 June 2018

- भाई एसडीएम स्तर का अधिकारी है और बहन मुनस्यारी की सड़कों में पागलों की तरह घूमती है -


                         कुछ दिन पहले ये दीदी मेरे सामने से गुजरी, इस धुंधली तस्वीर को आपके सामने अपलोड करने के लिए माफी चाहता हूं, लेकिन मुझे ये जरूरी लगा सो कर रहा हूं। तो जब वो दीदी मेरे सामने से गुजरीं तो मेरे हाथ में चिप्स का पैकेट था, उन्होंने मुझे देखते ही चिप्स के पैकेट की ओर ईशारा किया, अपने हाथों से और चेहरे के हावभाव से बार-बार ईशारा किया, आप चाहें तो सुविधा के लिहाज से इन लक्षणों के आधार पर उन्हें पागल/मेंटल कह सकते हैं। जब मैं उनको चिप्स देने के लिए हाथ बढ़ाने जैसा किया, वो चिप्स को पैकेट को अपने साथ ले गई और तेजी से भाग गई‌। एक पल के लिए कुछ समझ नहीं आया क्योंकि मुझे वो हावभाव से कहीं से भी पागल जैसी तो नहीं लगी। सच कहूं‌ मुझे तो पहली‌ नजर में दया, करूणा, हताशा, उपेक्षा, विवशता आदि भाव दिखाई‌ दिए।
                        मैंने फिर अपने स्थानीय साथियों से उस महिला के बारे में पूछा, उन्होंने बताया कि ये लड़की पागल है, पास के गाँव में रहती है, अभी साल भर पहले तो इसकी शादी भी हुई है, लड़का भी सीधा साधा हुआ, अभी यहीं संविदा में काम करता है, ले देकर आठ-दस हजार रूपया महीना कमाता है,‌ साथ ही बाजा बजाने का काम भी करता है, अब वो कहां से इलाज के पैसे लाए, वो भी परेशान सा रहता है। और सबसे बड़े कमीने तो इसके दो बड़े भाई हैं, एक तो एसडीएम स्तर का अधिकारी है और जो दूसरा है वो भी ठीक-ठाक‌ सरकारी नौकरी में है, दोनों देहरादून या शायद हल्द्वानी में जाकर बस गये हैं, और आगे सुनिए उन्होंने आज तक अपने माता पिता और बहन को एक रूपये की आर्थिक सहायता नहीं की है बल। और तो और पिछले दशक भर से उन्होंने मुनस्यारी में कदम नहीं रखा हैं, अब वो किस मुंह से कदम रखेंगे।
                         दूसरे स्थानीय साथी ने बीच में बात काटते हुए कहा - यार! ये लड़की अभी एक डेढ़ महीने बहुत सही थी, बीच-बीच में फिर ऐसी हो जाती है, घूमते रहती है, किसी से भी मांगकर खा लेती है। इलाज के पैसे नहीं हैं वरना ये कब का ठीक हो जाती, इसके भाई लोग थोड़ी सी मदद कर देते तो इसका इलाज हो जाता, लेकिन वे लोग तो अपना नाम‌, अपनी प्रतिष्ठा देखने वाले हुए, इसलिए यहाँ तो आते ही नहीं। वे सोच रहे होंगे कि इसको लेकर जाएंगे तो हमारी बदनामी होगी, हमारी औकात कम हो जाएगी फिर। वे दोनों भाई यहीं इसी विवेकानंद विद्या मंदिर से पढ़ के ऊपर उठे हैं लेकिन अब तो उनके पांव जमीन में नहीं है, क्या कहा जाए।
                        मैंने फिर पूछा कि इनकी उम्र क्या होगी अभी और इनके साथ ये स्थिति कैसे निर्मित हुई तो साथियों ने बताया-
अभी तो 32-35 साल की होंगी। यार ये लड़की इंटर के दिनों में बहुत ज्यादा होनहार थीं, पढ़ाई से लेकर खेलकूद सब में अव्वल नंबर। लेकिन फिर पता नहीं 12th पास करने के बाद या शायद ग्रेजुएशन के दौरान क्या जो ऐसा हुआ, थोड़ी पगली सी हो गई। कुछ गलत हुआ होगा, हुई होगी कोई घटना। यार पहाड़ के लोगों का यही तो हुआ, कुछ अप्रत्याशित सा हो भी जाता है तो मन में लेकर वर्षों तक बैठे रहते हैं, किसी को बताते भी तो नहीं हैं, और धीरे-धीरे पागल से हो जाते हैं, गाँवों में इधर-उधर भटकते रहते हैं। कितने ऐसे लोग हैं यार भाई, हर गाँव में आपको एक‌‌ दो ऐसे लोग मिल ही जाएंगे।

                        मेरे साथियों की बात मुझे शत प्रतिशत सही लगी। क्योंकि मैंने खुद बहुत से ऐसे लोगों को देखा है, उनसे बात की है, अधिकतर लड़के भी ऐसे हैं जो थोड़े मेंटल से हैं, मेंटल क्या मैं तो उन्हें ऐसा नहीं मानता, आपकी समझ और सुविधा के लिए ऐसा लिखना जो पड़ रहा है। तो ऐसे लोगों को देखकर यही लगता है कि ये तो बहुत अच्छी स्थिति में है, ये तो बस कुछ महीनों के इलाज से ठीक हो जाएंगे। पूरे भरोसे से कहता हूं, वे ठीक हो जाएंगे। इतने भरोसे से इसलिए भी कह रहा हूं क्योंकि मैंने खुद अपने परिवार में ऐसा होते देखा है।
कुछ वर्ष पहले की बात है, मेरी मां घर में अकेली पड़ गई, यानि कुछ महीनों के लिए ऐसी स्थिति निर्मित हो गई कि सब अपने काम के सिलसिले में बाहर। मां लगभग एक डेढ़ महीने घर में अकेली रहीं। मुझे तो इस पूरी स्थिति के बारे में पता ही नहीं चलने दिया गया। तो हुआ यूं कि ऐसे महीनों घर में अकेले रह के मां को psychiatric समस्या आ गई। रोने लगती, बाइक की आवाज तक से डर जाती, रात रात भर बुरे सपने और नींद का नाम नहीं। फिर दवाईयों का सिलसिला चला, उससे तो कुछ खास हुआ नहीं, फिर जब घर में थोड़ी चहल-पहल हुई तो फिर धीरे-धीरे मैंने माता जी के हावभाव में थोड़ा बदलाव देखा, बहुत छोटे-छोटे बदलाव जो शायद मैं ही देख पा रहा था, मैंने सोचा कि सबसे असली दवाई तो यही है फिर हमने इस बीच माताजी को अपने माइके भेज दिया। वहां वो कुछ दिन रहकर आई, जब वो लौटकर आईं तो आप यकीन नहीं करेंगे वो पूरी तरह से ठीक हो चुकी थीं।
मुझे लगता है कि मेरी माता के ठीक होने में दवाईयों का योगदान तो है ही साथ ही हमारे अपनत्व का भी बहुत बड़ा योगदान है, दोनों चीजें बराबर चलती रहीं इसलिए वो बहुत जल्द ठीक हो गईं।

इन पहाड़ी गाँवों के उन सभी लोगों को भी इन दोनों प्रकार के दवाइयों की जरूरत है, अगर ऐसा हुआ तो वे बहुत जल्द ही ठीक हो जाएंगे, और ये दीदी भी पूरी तरह से ठीक हो जाएंगी जिन्होंने राह चलते मुझसे चिप्स का पैकेट मांगा था।

Friday, 15 June 2018

~ ऐसा लगा जैसे मैंने पहाड़ को थोड़ा भी नहीं समझा है ~

रोज की तरह कल नंदा देवी मंदिर परिसर जाना हुआ, वहाँ से जब मैं नीचे उतर रहा था तो मंदिर परिसर के मुख्य द्वार पर एक पोस्टर लगा हुआ था, वह पोस्टर सप्ताह भर पहले हुए किसी एवेंट से संबंधित था। उस पोस्टर को वहाँ चिपका देखकर मेरे मन में दो ख्याल आए, पहला यह कि ये कार्यक्रम तो कब का समाप्त हो चुका है, तो इसे यहाँ से निकाला जा सकता है, दूसरा यह कि मंदिर परिसर के मुख्य द्वार पर यह कहीं से भी सही नहीं लग रहा है, यूं कहें कि अशोभनीय सा लगा।
अब जैसे ही मैं उस पोस्टर को वहाँ से निकाल‌ रहा था, उतने ही समय वहाँ से दो महिलाएँ गुजर रही थी, उन्होंने मुझे आश्चर्य भाव से कहा - भैया आप पोस्टर को क्यों निकाल रहे हैं। वैसे पहाड़ के लोग आश्चर्य के भाव से ही पूछते हैं, गुस्से या धमकाने का भाव आपको मिलेगा ही नहीं। मैंने उन्हें जवाब में कहा - दीदी ये प्रोग्राम तो हो चुका है।
फिर उन्होंने कहा - फिर भी क्यों निकाला भैया।
मैं उनके इस सवाल‌ से चुप सा हो गया, मैंने आंखे फेर ली और वहीं हमारे एक दोस्त की गाड़ी में बैठकर वहाँ से निकल गया। गाड़ी एक किलोमीटर से अधिक चल चुकी थी, मुझे अचानक महसूस हुआ कि ये मैंने क्या कर दिया। मुझे उनका बोलने का तरीका,उनके चेहरे के भाव याद आने लगे। फिर मैंने अपने दोस्त को बहाना मारकर गाड़ी रोकने को कहा और उसे आगे जाने को‌ कह दिया। अब वहाँ से मैं पैदल वापस उन दो महिलाओं के पास गया। मुझे पता नहीं क्यों ऐसा महसूस हो रहा था कि शायद मेरे द्वारा उन्हें चोट पहुंची है। मैं जब उनके पास पहुंचा तो मैंने उन्हें पहाड़ी परंपरा के अनुसार दोनों हाथों से नमस्ते करते हुए कहा - दीदी, मैं कोई बाहर से आने वाला टूरिस्ट जैसा नहीं हूं। पिछले चार साल से यहां आ रहा हूं, यहाँ बच्चों को मुफ्त में पढ़ाता भी हूं, यहाँ के लोगों के जीवनस्तर को सुधारने के लिए प्रयास भी कर रहा हूं, मुझे टूरिस्ट मत समझना दीदी, मैं तो अब यहीं का‌ हो गया हूं। शायद मेरे पोस्टर निकालने से आपको अच्छा नहीं लगा होगा, मुझे माफ कर दीजिएगा। मैं उसे वापस फिर से वहीं चिपका देता हूं, इसलिए मैं वापस लौटकर आया हूं।
दीदी ने मुस्कुराते हुए जवाब में कहा - अरे! नहीं भैया, वो तो पुराना हो चुका है, उसको और क्या चिपकाना हुआ, रहने दो। फिर उन्होंने चिंता जाहिर करने के भाव से कहा - लोग तो इन पहाड़ों का पता नहीं क्या क्या कर जाते हैं भैया। बाहर से लोग आकर फूल, पौधे तहस नहस करते हैं, तोड़कर ले जाते हैं। पता नहीं क्या क्या उल्टा पुल्टा जो करते हैं लोग, कैसा जो मजा आता होगा उनको ऐसा करके।
ऐसा कहते हुए उन्होंने एक‌ विस्मयकारी मुस्कुराहट फेरी और उतने ही समय वहाँ सामान जोहने वाली मैक्स की एक गाड़ी आ रही थी, उन्होंने हाथ फेरते हुए उस गाड़ी को रोका और दौड़ते हंसते उसमें लिफ्ट लेकर वो चली गईं। उस मैक्स की गाड़ी के ठीक पीछे से जो एक टूरिस्ट गाड़ी आ रही थी, उसमें बैठे कुछ लोग इस दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर रहे थे, मुझे पता नहीं क्यों उन टूरिस्ट लोगों के इस तरीके को देखकर हंसी आ गई।
आपको लग रहा होगा कि एक पुराने पोस्टर फाड़ने को लेकर, यानि इतनी छोटी सी बात के लिए कौन इतनी मेहनत करे। ये भी कोई बात हुई क्या। लेकिन आप पहाड़ को समझने की कोशिश करेंगे तो लगेगा कि ये ध्यान देने योग्य बात है। मैंने पहाड़ी लोगों के मन को देखा है, वे अपने में मस्त रहते हैं, वे आपसे कभी नाराज नहीं होंगे, वे आपको बस प्रेमभाव से बोल देंगे, अब वो हम पर होता है कि हम सही गलत समझ पाते हैं या नहीं। काश, काश मुझमें ये क्षमता होती कि दीदी के उस अपनेपन और सरलता से परिपूर्ण भाषायी अंदाज, उस बोलने के तरीके को आपके सामने लिख कर बता पाता, काश मैं भाषायी विस्तार दे पाता उनके चेहरे की उस मासूमियत को। आप भी कहते कि दुनिया में आज भी ऐसी चीजें बची हुई हैं क्या?
खैर..।
उस दीदी ने जब मुझसे कहा कि पोस्टर का डेट जा चुका है, फिर भी आपने क्यों फाड़ा भैया? इसका सीधा सा अर्थ यह था कि मुझे कोई हक नहीं बनता है कि मैं उस पोस्टर को‌ वहाँ से हटाऊं। यानि उन्होंने तो मुझे अन्य लोगों की तरह एक बाहरी असभ्य टूरिस्ट ही समझा होगा। उनके ऐसा सवाल करने का सिर्फ और सिर्फ यही अर्थ हुआ कि उस पोस्टर को निकालना कम‌ से कम मेरे अधिकार क्षेत्र में तो नहीं था। यानि मैं कौन हुआ उनके सही गलत का निर्धारण करने वाला।
असल में बात सिर्फ उस टुच्चे से पोस्टर को हटाने की नहीं है, पिछले कुछ सालों से जो बाहर से यहाँ टूरिस्ट आते थे, उन्होंने खूब उत्पात मचाया हुआ है, कोई खेतों में राजमा, जड़ी बूटी आदि की पौध को उखाड़ कर ले जाते, फल हुआ नहीं रहता था और तोड़ देते। बाहरी लोगों के स्वार्थ और लिप्सा की वजह से ऐसी चीजें लगातार होती आई है तो लोगों के मन में भी यही बैठ गया है कि अधिकतर बाहर मैदानों से आने वाले टूरिस्ट तो ऐसे ही होते हैं। मैं पूरे भरोसे से कहता हूं कि अगर इतिहास में ऐसी बदमाशियां नहीं हुई होती तो उस दीदी को मेरे पोस्टर फाड़ने पर सवाल नहीं करना पड़ता।
उनका मुझे सवाल करना इस बात का संकेत था कि -
- आप कैसे से जो हो गये हैं,
- पहाड़ को भी अपने शहरों की तरह समझने लगते हैं,
- आपके बस का नहीं हुआ हम‌ पहाड़ी लोगों के मन को समझना।

Monday, 11 June 2018

Life @ Munsyari

Life @ Munsyari

मुनस्यारी फिर से अंधकारमय। 5 घंटे से अधिक हो चुके हैं। अब कल सुबह तक लाइट आने से रही। कल‌‌ भी कितने टाइम तक लाइट आएगी कोई भरोसा नहीं है। पहाड़ों का जीवन बहुत दुखमय है र, अपार कठिनाइयों से भरा है। कभी भी बारिश कभख भी ओले, कपड़े तक नहीं सूख पाते, आखिर कितना लिखा जाए। बस ये हिमालय की खूबसूरती को देख के ही मन संतुष्ट कर लेने वाली बात है।

Life @ Munsyari

मुनस्यारी में मेरे ठंड झेलने की कैपेसिटी का‌ अंदाजा आप इसी से लगाइए कि मैं इस बार जैकेट तक लेकर नहीं आया हूं। अभी तापमान 8'c न्यूनतम और अधिकतम 25'c है। आने वाले दिनों में तापमान में बढ़ोतरी तो होगी नहीं, गिरावट ही होगी। अब यहाँ दो ही तरह का मौसम होता है एक ठंड दूसरा बरसात।

सचमुच जुदा है हिमालय को सामने से देखने का ये एहसास।
एक कवि द्वारा रची गई सुंदर कविता या लाख रूपये के कैमरे से खींची गई तस्वीर भी हिमालय की इस खूबसूरती को बयां नहीं कर सकती। हिमालय के इस एहसास को महसूस करने के लिए तुम्हें इसे सामने अपनी आंखों से ही देखना होगा।

मुनस्यारी में सामान्य वर्ग के लोगों का हाल‌ वही है, जो बस्तर में आदिवासियों का है। यहाँ सामान्य वर्ग के लोगों का दशकों से हो रहे शोषण का आप इसी से अंदाजा लगाइए कि अधिकतर होटल में काम करने वाले, गाड़ी चालक, पत्थर फोड़ने वाले, मजदूरी करने वाले अधिकांशतः सामान्य वर्ग के लोग ही हैं।

मुनस्यारी में समाज सेवा के नाम पर गजब का विरोधाभास है। यहाँ समाजसेवा का ऐसा पैटर्न चलता है जो आपको पूरे भारत में कहीं नहीं मिलेगा। यहाँ तो सेवा शब्द की एक अलग ही परिभाषा गढ़ दी गई है।
एक ऐसी सेवा जिसका अपना एक दायरा है, कुछ तय सीमित लोग हैं। उसके अलावे बाकी लोग दर दर की ठोकरें खाते रहें, इन्हें कोई सरोकार नहीं।
समाजसेवियों का भी एजेंडा निर्धारित है कि ये फलां फलां लोग हैं, हमें इन्हें ही आसमान की ऊंचाइयों तक ले जाना है, बाकी इसके अलावे कोई मरता भी रहे हमें क्या। और तो और शहर गंदा होता रहे, हमें क्या।
अजी हां, देश समाज ऐसे ही बनता है, अरे ऐसे में सिर्फ और सिर्फ खाई बनती है, जिसमें एक न एक दिन हमें और आपको ही गिरना है।
सीधे एक लाइन में कहा जाए तो ये समाजसेवी समसजसेवक न होकर जातिसेवक हैं। और जातिसेवक भी इतने प्रतिबध्द और ईमानदार ठहरे कि इनको मुनस्यारी के लोगों और यहाँ की समस्याओं से कोई मतलब नहीं।
इन तथाकथित जातिसेवियों के पास हिमनगरी मुनस्यारी का महिमा मंडन करने के‌ लिए वही दशकों से चली आ रही दो चार सूक्तियां हैं,
जैसे कि , स्वर्ग जैसा मुनस्यारी, सार संसार एक मुनस्यार, रंगीलो जोहार मेरो मुनस्यार, आदि आदि। बस इसी से खानापूर्ति हो जाती है।
इन्हीं वाक्यों से मुनस्यारी की ऐसी सैकड़ों नालियाँ भी साफ हो जाएंगी, सच तो ये है कि ऐसी नाली रूपी गंदगी जोंक की तरह हमारे मन मस्तिष्क में भी जगह बना चुकी है।
बाकी स्वर्ग तो है ही बल अपना मुनस्यारी। कितना भी उत्पात मचा लो स्वर्ग ही रहने वाला हुआ।



पता नहीं चंद पैसों और सुविधाओं के लिए, अधिकतर दिखावे और भेड़चाल में आकर लोग कैसे इन खूबसूरत वादियों से यानि अपनी जड़ों से पलायन कर जाते हैं। कैसे छोड़ जाते हैं संयुक्त परिवार, दादी-नानी का लाड़ प्यार, पर्व, त्यौहार, कौतिक(मेले), ये हवा, पानी। कैसे त्याग कर चले जाते हैं इस संस्कृति को, कहां से लाते होंगे ऐसा करने का हौसला, कैसे जुटाते होंगे इतनी हिम्मत। मेरा बस चले तो मैं एक‌ वक्त का खाना खाकर इस संस्कृति का लालन‌‌ पालन‌ कर दूं।
‌‌‌‌‌‌‌ अगस्त 2017 में मैंने यहाँ के‌ लोगों की जीवनशैली और यहाँ की संस्कृति को करीब से जानने के लिए, यहाँ की समस्याओं की बेहतर समझ बनाने के लिए लगातार 9 दिन तक एक‌ ही‌ वक्त का खाना खाया था‌। नौ दिनों के दरम्यान शारीरिक तपस्या से ज्यादा मेरे पड़ोसियों के अपनेपन से जूझना, उनके लगातार चाय नाश्ते खाने के लिए पूछना ये सबसे बड़ी चुनौती थी, हर दिन सुबह शाम झूठ बोलना यानि 15-20 झूठ तो मैंने बोले ही होंगे कि हां मैंने नाश्ता कर लिया है, मैंने खाना खा लिया है।

In picture - फाइनली, चार दिनों के बाद पानी आना शुरू हो गया है। हमने कपड़े भी धो लिए हैं साथ ही ठंडे पानी से खुद को भी धो लिया है। स्नोफाल के वक्त नहाते थे तो ये ठंड क्या चीज है, "इट्स जस्ट ए स्टेट आॅफ माइंड"।


जब मैं पहली बार मुनस्यारी आया था तो एक बार रात को अपनी ही सांस लेने की साफ आवाज सुनकर घबरा गया था, यानि रात को यहां इतनी ज्यादा शांति रहती है। एक चूं की भी आवाज नहीं। 

"सबसे शक्तिवान ही सबसे बुध्दिमान"

मुनस्यारी में ये कहावत कहीं कहीं सटीक बैठती है। असल में यहां एक छोटे से व्यापारी हैं, उन्हें यहां आए ज्यादा समय नहीं हुआ है, बहुत ही मेहनती व्यक्ति हैं, मैं उनका नाम बदलकर उन्हें रोशन नाम से संबोधित करता हूं। रोशन जी बाहर से आए हैं, मतलब यहीं उत्तराखण्ड के ही किसी दूसरे जिले से हैं। उनकी मेहनत को देखकर कुछ लोग यानि कुछ व्यापारी वर्ग के सदस्य इतने आहत हुए कि उनको दुकान बंद कर सामान समेटने तक की धमकी दे डाली, क्योंकि उनके द्वारा की गई मेहनत से, नवाचार से क्षेत्रवासियों का तो भला हो ही रहा है, साथ ही उन गिने चुने दुकानदारों पर आने वाले ग्राहक कम हुए हैं जो ठीक उसी व्यापार में हैं जिस व्यापार में रोशन जी हैं। तो वे दुकानदार अपने बाहुबल का इस्तेमाल करते हुए दबाव बनाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।
रोशन जी भले और नेक आदमी हैं, किसी से ज्यादा कुछ बोलते नहीं हैं, कहीं इधर-उधर जाते भी नहीं, चुपचाप अपना काम करते रहते हैं, पब्लिक डोमेन में इस तरह रोशन जी के बारे में लिखने से उनके सामने और कोई विपदा न आए, इसलिए मैं उनके पेशे को लेकर भी गोपनीयता बरत रहा हूं।
बस रोशन जी के बारे में इतना ही कहूंगा कि पूरे मुनस्यारी में मैंने इतना मेहनती, इतना लगनशील व्यक्ति आजतक नहीं देखा। ये बात सिर्फ मैं नहीं कहता, मुनस्यारी के और भी बहुत से लोग कहते हैं।

जब से उनको कुछ लोग बोलकर गये हैं कि यहाँ से चले जाओ, तब से वे दिन रात काम कर रहे हैं। एक दिन तो सुबह 5 बजे उनके दुकान की लाइट जल रही थी, मैं मार्निंग वाक‌ के लिए जा रहा था, मैंने देखा फिर बाद में लौटकर जब उनसे पूछा तो पता चला कि आज वे सोने के लिए अपने कमरे में गए ही नहीं हैं। उन्होंने कहा कि कई कई दिन तो बस सुबह 6 बजे से 9 बजे तक सोने के लिए चले जाते हैं, सचमुच उनके चेहरे की लकीरों को देखकर कोई भी बता सकता है कि ये व्यक्ति दिन रात खुद को तपा रहा है। मैंने जब उनसे इतना अधिक काम‌ करने की वजह पूछी तो उन्होंने कहा - सर जी काम थोड़ा ज्यादा था, अब यहाँ तो देखो कितने दिन के लिए जो हैं, जब तक हैं जम‌ के काम कर लेना हुआ, फिर हम चलें वापिस अपने गांव घर और क्या।
आखिर उन्हें ऐसा क्यों बोलना पड़ा, कहां सोया है मुनस्यारी का नागरिक समाज।
स्थानीय लोगों को सोचना चाहिए, ऐसे मेहनतकश लोगों से ईर्ष्या भाव न रखकर इनसे तो सीख लेनी चाहिए। लेकिन मुनस्यारी के कुछ जो छटे किस्म के बदमाश हैं उनकी तो आदत हुई कि खुद तो कुछ करना है नहीं और जो कुछ बेहतरी का काम कर रहे हैं उनके‌ लिए सिर्फ और सिर्फ परेशानियाँ खड़ी करनी है।

हमारे लिए ये कितनी शर्म‌ की बात है कि पहाड़ के आदमी को ही पहाड़ में ऐसी चीजें झेलनी पड़ रही है, फिर कोई क्यों न‌ करे पलायन। और लोग फिर सोशल मीडिया में, सभा, सम्मेलन, सेमिनार में रोना रोते हैं कि गाँव खाली हो रहे, पलायन हो रहा वगैरह वगैरह।
बात सिर्फ मुनस्यारी की नहीं है, ऐसी छोटी बड़ी जो भी समस्याएं जिस भी क्षेत्र में हैं, ये हर उस क्षेत्र के नागरिक समाज की जिम्मेदारी है कि‌ ऐसे लोगों को‌ वे पहचानें, उनसे बात करें और फिर कहें कि भाई जी आप अपना काम करें, हम‌ आपके साथ खड़े हैं।

Wednesday, 6 June 2018

~ ये मंदिर परिसर तो मेरे लिए मां समान है ~

साल भर के अंतराल के बाद मेरी मुलाकात देव सिंह पापड़ा (रिटायर्ड आर्मीमैन) जी से हुई जो मुनस्यारी के पापड़ी-पैकुती गाँव के मूल निवासी हैं, वे अकेले ही पिछले कई सालों से डानाधार स्थित माँ नंदा देवी मंदिर की देखरेख करते आ रहे हैं।

मैं - यार दा, पहचाना?

देव सिंह जी - हां आप हर साल तो आते ही हो यहाँ।

मैं - जी और अभी मंदिर परिसर में सब ठीक?

देव सिंह जी - हां, सब ठीक ही हुआ।

मैं - ये बताइए वहाँ जो किनारे में पानी के स्टोरेज के लिए जो आयताकार गड्ढा बनवाया है आपने, उस पर लोगों ने दारू की बोतलें फोड़ रखी है? कुछ करवा दो यार उसका। वही एक जगह बड़ी खराब हो रखी है।

देव सिंह - अब मैं कितनों को समझाऊं, जिसे शराब पीकर बोतल‌ फोड़नी ही है, उसे कोई कैसे रोके। मैंने तो यहाँ के रखरखाव के‌ लिए, यहां की समस्याओं को लेकर कितने मंत्रियों को खत लिखा, पर कुछ नहीं होने वाला हुआ। तब मुझे लगा कि जो करना है, मुझे ही करना है।

मैं - अच्छा। ठीक है, ये बताइए, अभी जो मंदिर परिसर की ये सुंदरता है, आपके भगीरथ प्रयास के कारण ही आज ये मुनस्यारी का सबसे फेमस टूरिस्ट स्पाॅट बन चुका है, तो ये पहले से ऐसा था क्या?

देव सिंह जी - अरे नहीं तो। पहले यहां जानवर,घोड़े, खच्चर आया करते थे, जहाँ आज जो आपको ये फूल दिख रहे हैं उसके जगह कांटे ही कांटे थे, कांच ही कांच था। लोहे के ये जो बाड़े थे, इसको भी सब उखाड़ कर ले गये, चुराकर बेच दिया, पता नहीं क्या किया, ये टंकी को ढंकने का जो लोहे का ढक्कन था, वो भी लोग ले गये। वो वहाँ मंदिर के गेट का पल्ला भी ले गये, इसे तो मैंने दुबारा बनवाया।

मैं - तो इन सबके लिए आपको गाँव के लोगों ने सहयोग दिया होगा?

देव सिंह जी - नहीं। गाँव वालों ने कोई सहयोग नहीं दिया।

मैं - अच्छा, बाहर के कुछ लोगों ने सहयोग किया होगा फिर?

देव सिंह जी - बाहर वालों ने भी नहीं किया। मैंने तो इसे मां की कृपा समझकर अपने बलबूते खुद ही काम करता रहा। जब उन्होंने मेरे सिर में पटक‌ दिया कि आपने आवाज उठाया तो आप ही झेल लो, तो मैंने उसे झेल लिया। लोग ये कहते थे कि ये फौजी बुड्ढू भाग जाएगा, ये कुछ नहीं कर सकता है। मैंने जो है अपने दिल से लगाकर, अपने लगन से करके दिखाया उनको।‌ मैंने कहा कि पांच साल से रहूंगा और करके दिखाया।

मैं - तो आप यहाँ इस मंदिर परिसर को कब से संभाल‌ रहे हैं?

देव सिंह जी - मैं यहाँ 2013-14 से हूं।

मैं - जी, अच्छा।

देव सिंह जी - लाइट के‌ लिए भी कुछ नहीं किया तो फिर मैंने गांव वालों से लड़ाई करके दो लाइट यहाँ पर लाया, एक वहाँ गेट पर लगाया और दूसरा यहाँ लगाया।

मैं - यार दाज्यू, लोगों तक मैं आपकी बात पहचाऊंगा।

देव सिंह जी - यहाँ तो मेरा ऐसा है न कि जो चढा़वे का पैसा है, दानपेटी का, वो सारा इकट्ठा करके जो भी कुछ होता है, उसी से मैं ये हर साल होने वाले मेले का पूरा आयोजन ये जितना भी चूना, गेरू, पेंट सब उसी से कराता हूं, मैं इसके लिए किसी को‌ मांगता नहीं हूं, किसी के आगे हाथ नहीं फैलाता हूं।

मैं - यहाँ के प्रशासन से किसी प्रकार का कोई सहयोग नहीं मिलता?

देव सिंह जी - कोई कुछ नहीं। ये सब ऐसी हैं, सढ़े हुए आदमी हैं। आते हैं, जाते हैं।

मैं - पिछले बार जो एसडीएम थे उनसे आपने तो सहयोग के लिए बात की थी क्या?

देव सिंह जी - हां, एक बार क्या हुआ कि वो इन्क्वायरी करने जैसा यहाँ आए थे, मैं इधर गार्डन की कुराई कर रहा था। उन्होंने मुझे कहा - आप मडुवे की रोटी बनाओ, यहाँ का लोकल सब्जी बनाओ, टेंट लगाने की व्यवस्था बनाओ।

मैं - यानि ज्ञान देकर चले गये।

देव सिंह जी - हां और बोले कि उसमें से जो भी फायदा होगा, उसमें से चार भाग करके उसका एक भाग ब्लाक को देंगे, एक भाग गांव को‌ देंगे, एक भाग हम लेंगे और एक भाग आपको देंगे।

मैं - हद है।

देव सिंह जी - मैंने तो सर पकड़ किया। उस समय बस हां‌ हां करते गया, दूसरा मैंने उन्हें एक शब्द नहीं बोला। वो अपना बोलकर चले गये फिर दुबारा न तो कभी मिले न ही इस बारे में कोई बात हुई।

मैं - तो फिर अभी और क्या सोचा?

देव सिंह जी - ऐसा है कि ये मंदिर परिसर तो मेरे लिए मां समान है, अब मां की सेवा करने में क्या सोचना।


Maa Nanda devi temple, Munsyari

Dev Singh Papra ji inspecting the temple premise