मुनस्यारी में काँच की बढ़ती हुई मात्रा को देखते हुए इसे रिसायकलिंग के लिए यहाँ से बाहर ले जाना अब जरूरी हो गया है।। इससे पहले कि ये छोटा सा काम असंभव सा दिखने लगे, सबको मिल-जुलकर इस समस्या को दूर करना ही होगा। ये काम पेपरबाजी, आर्टिकलबाजी, फोटोबाजी, एनजीओगिरी या नेतागिरी से प्रेरित न होकर आपके हमारे यानि जनसाधारण के धरातलीय प्रयास से होगा।
वास्तविक धरातल पर अगर बात की जाए तो मुनस्यारी से काँच इकट्ठा कर हम हल्द्वानी तक किसी ट्रक में लाद कर भेज दें ऐसा सोचना बेवकूफी भरा उपाय होगा इसके अलावा और कुछ नहीं। इसीलिए इस पूरी प्रक्रिया को कई चरणों में तोड़ने की आवश्यकता है।
उदाहरण के लिए जैसे मुनस्यारी में सैकड़ों दुकाने हैं इतने घर हैं कमरे हैं कुछ आफिस हैं। माने कहने का अर्थ ये कि लोगों के बीच जाकर, उनसे बात कर, उनका विश्वास अर्जित कर कोई एक ऐसी खाली जगह सुनिश्चित की जाए जहाँ काँच की बोतलों को इकट्ठा किया जा सके। फिर ये बोतलें मुनस्यारी से रिसाइकल होने के लिए एक चरणबद्ध प्रक्रिया से आगे भेज दी जाएगी।
समाधान जिन चार चरणों में संपन्न होगा वो कुछ इस प्रकार है-
1)मुनस्यारी से थल-
इस बात से शायद ही कोई इंकार करेगा कि मुनस्यारी से थल का रास्ता सबसे अधिक दुर्गम है, और बरसात के समय में लैंडस्लाइड को ध्यान में रखते हुए काँच भेजना मुमकिन नहीं, ये वाकई जोखिम भरा काम होगा। ठीक ऐसा ही जोखिम बर्फबारी के कुछ महीनों में है। कुल मिलाकर अगर मोटा मोटा देखा जाए तो पाँच महीने हटाकर भी सात महीने हमारे पास हैं, इस बीच आसानी से मुनस्यारी से थल को गाड़ियां आ सकती है। मुनस्यारी से काँच भेजने की जिम्मेदारी सिर्फ थल तक ही होगी, वहाँ उनका काम समाप्त हुआ।
2)थल से बागेश्वर-
ठीक मुनस्यारी की तरह थल वालों की जिम्मेदारी भी बागेश्वर तक ही होगी। अब यहां थल वालों की जिम्मेदारी दुगुनी हो जाती है। वो ऐसे कि काँच मुनस्यारी से आया है उसे भी आगे भेजना है और थल में भी जमा हुए काँच को इकट्ठा कर आगे भेजना है। लेकिन अब थल वालों के लिए आगे का रास्ता मुनस्यारी की अपेक्षा थोड़ा सुगम ही होगा इसलिए कोई समस्या वाली बात नहीं है।
3) बागेश्वर से अल्मोड़ा-
ठीक वैसी ही प्रकिया यहां भी दुहरायी जाएगी।
4) अल्मोड़ा से हल्द्वानी-
ये आखरी पड़ाव है यहां से काँच रिसाइकल होने के लिए फैक्ट्री में जाएगा। अच्छा यहां इस एक बात को लेकर संशय है कि अब चूंकि अल्मोड़ा मैदानी इलाके से सबसे पास है तो यहां से हल्द्वानी काँच पहले भी रिसाइकल होने के लिए जाता रहा है या नहीं इस बारे में जिन्हें जानकारी हो वे स्पष्ट करें।
ये तो पूरा रोडमैप तैयार हो गया, अब कैसे इसे धरातल में उतारा जाए, और इसमें क्या क्या समस्याएँ आ सकती है, इस पर ध्यान देने से जो बातें सामने आ रही है वो कुछ इस तरह है -
a) पैसे का लेन-देन -
अब चूंकि इस काम में आमदनी कम और लोक-कल्याण की भावना ज्यादा है तो इसमें पैसे को लेकर ज्यादा समस्या नहीं होगी। फिर भी इस समस्या का एक त्वरित उपाय है। अब जैसे मुनस्यारी से गाड़ी थल तक आएगी। उसका जो भी हिसाब किताब है थल में ही पूरा होगा। मुनस्यारी से काँच भेजने वालों को हल्द्वानी तक कितना काँच पहुंचा इससे कोई मतलब नहीं। ठीक कुछ ऐसा आगे भी होगा।
b) काँच कौन इकट्ठा करे -
काँच इकट्ठा करने का काम आप करेंगे, मैं करूंगा, ये जनता करेगी। समस्या हमने तैयार की है तो नि:संदेह इसे ठीक भी हम ही करेंगे अब चूंकि ये कोई सौदेबाजी या फायदे वाला काम तो है नहीं कि कोई देवदूत या एनजीओ वाला टपक जाए। सो काम हमें करना है। और क्या ये भी कोई काम है, बोतलें एक किसी जगह में इकट्ठी करनी है। मेरा सुझाव है कि सबसे पहले इस काम की शुरूआत एक मुहिम की तरह स्कूली बच्चों के द्वारा हो। इससे शराब और उससे होने वाले दुष्प्रभाव को लेकर गजब का परिवर्तन होगा। जब कोई स्कूली बच्चा अपने ही घर से बोतलें जमा कर आगे भेजेगा तो उसके घर में शराब पीने वालों में शर्मिंदगी आएगी और फिर शराब और उससे होने वाले नुकसान को लेकर चेतना आएगी। कुल मिलाकर ये कदम एक तरह से शराबबंदी का भ्रूण तैयार करने में भी उपयोगी साबित हो सकता है।
c) किसकी गाड़ी में जाएगा काँच -
जहां तक मुझे याद आ रहा है बिल्डिंग मटेरियल वाली गाड़ियां रामनगर से मुनस्यारी तक आती है। हमने देखा कि बहुत सी ऐसी बड़ी गाड़ियां हैं जो मुनस्यारी से खाली निकलती है। खाली गाड़ियां नहीं भी मिली तो भी कौन सा रोज काँच भेजना है। कम से कम एक ट्रक कांच इकट्ठा होने में पंद्रह बीस दिन का समय लग ही जाएगा। लोक-कल्याण की भावना से काँच भी इकट्ठा होगा, लोग खुलकर सामने आएंगे, गाड़ियों की व्यवस्था भी होगी और काँच गाड़ी में लादकर मुनस्यारी से आगे जाएगा भी।
d) जागरूकता की समस्या -
शुरूआत में लोगों को इस मुहिम से जोड़ने में समस्या आ सकती है। फिर भी मुझे नहीं लगता कि पहाड़ में ऐसे छोटे से काम के लिए जागरूकता को लेकर कोई ज्यादा समस्या पैदा होगी। क्योंकि ये वही समाज है जो आज भी सवारी गाड़ियों के माध्यम से चंद खीरे और दूध की बोतलें सौ सौ किलोमीटर दूर अपने रिश्तेदारों के पास भेजते हैं, ये वही समाज है जहाँ आज भी विश्व में सबसे ज्यादा संयुक्त परिवार है, ये वही समाज है जो बिना किसी दिखावे के, बिना किसी सांगठनिक सहयोग के सैकड़ों सालों से पहाड़ों में पत्थर तोड़कर पगडंडियां बनाते आये हैं। ऐसी जिस समाज की बनावट है। ऐसे जीवन मूल्यों को जो समाज आत्मसात किए हुए है, उस समाज से इतनी अपेक्षा तो की जा सकती है कि वह संगठित होकर काँच की इन बोतलों को रिसाइकलिंग के लिए बाहर भेज दे।
वास्तविक धरातल पर अगर बात की जाए तो मुनस्यारी से काँच इकट्ठा कर हम हल्द्वानी तक किसी ट्रक में लाद कर भेज दें ऐसा सोचना बेवकूफी भरा उपाय होगा इसके अलावा और कुछ नहीं। इसीलिए इस पूरी प्रक्रिया को कई चरणों में तोड़ने की आवश्यकता है।
उदाहरण के लिए जैसे मुनस्यारी में सैकड़ों दुकाने हैं इतने घर हैं कमरे हैं कुछ आफिस हैं। माने कहने का अर्थ ये कि लोगों के बीच जाकर, उनसे बात कर, उनका विश्वास अर्जित कर कोई एक ऐसी खाली जगह सुनिश्चित की जाए जहाँ काँच की बोतलों को इकट्ठा किया जा सके। फिर ये बोतलें मुनस्यारी से रिसाइकल होने के लिए एक चरणबद्ध प्रक्रिया से आगे भेज दी जाएगी।
समाधान जिन चार चरणों में संपन्न होगा वो कुछ इस प्रकार है-
1)मुनस्यारी से थल-
इस बात से शायद ही कोई इंकार करेगा कि मुनस्यारी से थल का रास्ता सबसे अधिक दुर्गम है, और बरसात के समय में लैंडस्लाइड को ध्यान में रखते हुए काँच भेजना मुमकिन नहीं, ये वाकई जोखिम भरा काम होगा। ठीक ऐसा ही जोखिम बर्फबारी के कुछ महीनों में है। कुल मिलाकर अगर मोटा मोटा देखा जाए तो पाँच महीने हटाकर भी सात महीने हमारे पास हैं, इस बीच आसानी से मुनस्यारी से थल को गाड़ियां आ सकती है। मुनस्यारी से काँच भेजने की जिम्मेदारी सिर्फ थल तक ही होगी, वहाँ उनका काम समाप्त हुआ।
2)थल से बागेश्वर-
ठीक मुनस्यारी की तरह थल वालों की जिम्मेदारी भी बागेश्वर तक ही होगी। अब यहां थल वालों की जिम्मेदारी दुगुनी हो जाती है। वो ऐसे कि काँच मुनस्यारी से आया है उसे भी आगे भेजना है और थल में भी जमा हुए काँच को इकट्ठा कर आगे भेजना है। लेकिन अब थल वालों के लिए आगे का रास्ता मुनस्यारी की अपेक्षा थोड़ा सुगम ही होगा इसलिए कोई समस्या वाली बात नहीं है।
3) बागेश्वर से अल्मोड़ा-
ठीक वैसी ही प्रकिया यहां भी दुहरायी जाएगी।
4) अल्मोड़ा से हल्द्वानी-
ये आखरी पड़ाव है यहां से काँच रिसाइकल होने के लिए फैक्ट्री में जाएगा। अच्छा यहां इस एक बात को लेकर संशय है कि अब चूंकि अल्मोड़ा मैदानी इलाके से सबसे पास है तो यहां से हल्द्वानी काँच पहले भी रिसाइकल होने के लिए जाता रहा है या नहीं इस बारे में जिन्हें जानकारी हो वे स्पष्ट करें।
ये तो पूरा रोडमैप तैयार हो गया, अब कैसे इसे धरातल में उतारा जाए, और इसमें क्या क्या समस्याएँ आ सकती है, इस पर ध्यान देने से जो बातें सामने आ रही है वो कुछ इस तरह है -
a) पैसे का लेन-देन -
अब चूंकि इस काम में आमदनी कम और लोक-कल्याण की भावना ज्यादा है तो इसमें पैसे को लेकर ज्यादा समस्या नहीं होगी। फिर भी इस समस्या का एक त्वरित उपाय है। अब जैसे मुनस्यारी से गाड़ी थल तक आएगी। उसका जो भी हिसाब किताब है थल में ही पूरा होगा। मुनस्यारी से काँच भेजने वालों को हल्द्वानी तक कितना काँच पहुंचा इससे कोई मतलब नहीं। ठीक कुछ ऐसा आगे भी होगा।
b) काँच कौन इकट्ठा करे -
काँच इकट्ठा करने का काम आप करेंगे, मैं करूंगा, ये जनता करेगी। समस्या हमने तैयार की है तो नि:संदेह इसे ठीक भी हम ही करेंगे अब चूंकि ये कोई सौदेबाजी या फायदे वाला काम तो है नहीं कि कोई देवदूत या एनजीओ वाला टपक जाए। सो काम हमें करना है। और क्या ये भी कोई काम है, बोतलें एक किसी जगह में इकट्ठी करनी है। मेरा सुझाव है कि सबसे पहले इस काम की शुरूआत एक मुहिम की तरह स्कूली बच्चों के द्वारा हो। इससे शराब और उससे होने वाले दुष्प्रभाव को लेकर गजब का परिवर्तन होगा। जब कोई स्कूली बच्चा अपने ही घर से बोतलें जमा कर आगे भेजेगा तो उसके घर में शराब पीने वालों में शर्मिंदगी आएगी और फिर शराब और उससे होने वाले नुकसान को लेकर चेतना आएगी। कुल मिलाकर ये कदम एक तरह से शराबबंदी का भ्रूण तैयार करने में भी उपयोगी साबित हो सकता है।
c) किसकी गाड़ी में जाएगा काँच -
जहां तक मुझे याद आ रहा है बिल्डिंग मटेरियल वाली गाड़ियां रामनगर से मुनस्यारी तक आती है। हमने देखा कि बहुत सी ऐसी बड़ी गाड़ियां हैं जो मुनस्यारी से खाली निकलती है। खाली गाड़ियां नहीं भी मिली तो भी कौन सा रोज काँच भेजना है। कम से कम एक ट्रक कांच इकट्ठा होने में पंद्रह बीस दिन का समय लग ही जाएगा। लोक-कल्याण की भावना से काँच भी इकट्ठा होगा, लोग खुलकर सामने आएंगे, गाड़ियों की व्यवस्था भी होगी और काँच गाड़ी में लादकर मुनस्यारी से आगे जाएगा भी।
d) जागरूकता की समस्या -
शुरूआत में लोगों को इस मुहिम से जोड़ने में समस्या आ सकती है। फिर भी मुझे नहीं लगता कि पहाड़ में ऐसे छोटे से काम के लिए जागरूकता को लेकर कोई ज्यादा समस्या पैदा होगी। क्योंकि ये वही समाज है जो आज भी सवारी गाड़ियों के माध्यम से चंद खीरे और दूध की बोतलें सौ सौ किलोमीटर दूर अपने रिश्तेदारों के पास भेजते हैं, ये वही समाज है जहाँ आज भी विश्व में सबसे ज्यादा संयुक्त परिवार है, ये वही समाज है जो बिना किसी दिखावे के, बिना किसी सांगठनिक सहयोग के सैकड़ों सालों से पहाड़ों में पत्थर तोड़कर पगडंडियां बनाते आये हैं। ऐसी जिस समाज की बनावट है। ऐसे जीवन मूल्यों को जो समाज आत्मसात किए हुए है, उस समाज से इतनी अपेक्षा तो की जा सकती है कि वह संगठित होकर काँच की इन बोतलों को रिसाइकलिंग के लिए बाहर भेज दे।
Panchachuli Peaks, Munsyari, Uttarakhand |
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