Friday, 14 July 2017

~ मुनस्यारी से एक माफीनामा ~

                        आज ये इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मुझे ऐसा लग रहा है कि इस जगह के बारे में लोगों को बताकर, यहां की खूबसूरती दिखाकर, भले ही मेरी बात कुछ थोड़े लोगों तक ही पहुंची हो लेकिन फिर भी मैंने यहां का बहुत बड़ा नुकसान कर दिया है।
                        असल में महीने भर पहले हम एक पहाड़ी गांव को गये थे। वहां एक दादी ने मेरे कैमरे को देखते ही नाराजगी जताई और बंद करने को कहा। मुझे उस नाराजगी का मर्म समझने में काफी समय लग गया। मानो वो दादी मुझसे मन ही मन कह रहीं हों कि आपने मशीनों से घिरकर अपनी जिंदगी नर्क बना ली है अब ये सब यहां मत आजमाइए।
                        सोचता हूं अभी तक मैंने मुनस्यारी से जुड़ी जितनी तस्वीरें, वीडियो या अन्य जानकारियां जो भी मैंने सोशल मीडिया के माध्यम से यहां बांट दी है। उन सबको हमेशा के लिए हटा दूं। लेकिन अब हटाने का क्या फायदा, अब तो आप देख ही चुके हैं।
                         फिर भी आपमें इंसानियत होगी तो कभी मत आइएगा इन जगहों पर। आइएगा तो भी एक सभ्य इंसान की तरह वरना नहीं। भूखे भेड़िए के भेष में आएंगे और नुकसान पहुंचा के चले भी जाएंगे बाकी लोगों की तरह तो भी कोई क्या कर सकता है। अब इस बात का डर रोज सताने लगा है कि टूरिज्म के चक्कर में मुनस्यारी का हाल शिमला, मनाली, नैनीताल, लद्दाख, श्रीनगर जैसा न हो जाए। वहशीपन लिए भीड़ की मानसिकता कब कहाँ अपनी जड़ें जमा ले। कुछ कह नहीं सकते।
                         टूरिज्म का आज जैसा माहौल बनाया जा रहा है उससे कैसे कोई जगह बर्बाद हो जाती है इसका सबसे बड़ा उदाहरण लद्दाख है। खासकर "थ्री इड्यिट्स" फिल्म के बाद लद्दाख जाने वालों का हुजूम बढ़ता ही गया ठीक ऐसा ही कुछ "ये जवानी है दीवानी" फिल्म के बाद मनाली के साथ हुआ लेकिन सबसे अधिक नुकसान लद्दाख को ही हुआ। वहां का रहन-सहन, खान-पान, वहां की पूरी संस्कृति आज खतरे में है। आज लगभग हर युवा के लिए जिंदगी का सपना सा है कि एक बार लेह-लद्दाख जाकर खुद को संतुष्ट कर ले।
आप सोच रहे होंगे कि भाई हम तो अपनी बाइक, अपनी कार लेकर बस घूमने गये थे। किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया।
                         पर आपको ये कभी नहीं दिखाई देगा कि जिन बंदरों को आप के अंदर का मूर्ख समाजसेवी रास्ते में कहीं रूककर बिस्किट और चिप्स खिला देता है वही बंदर बाद में इन चीजों के लिए लूट मचाते हैं। जो जंगली जानवर बढ़िया फल, कंद-मूल से चलते थे, आपने उनको भी नहीं बख्शा, उनकी आदतें बिगाड़ दी, वो भी चंद तस्वीरों के लिए। अब चूंकि आपकी हवस इतनी ज्यादा है कि आप ये सब कुछ नजरअंदाज कर जाते हैं।
लद्दाख में आफ रोड गाड़ियों को अपने एडवेंचर के लिए आप कहीं भी ले जाते हैं। आपको इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं है कि आप छिपकली सांप आदि सरीसृपों के अंडों को, जमीन में घोसलें बनानी वाली छोटे पक्षियों के अंडे और कुछ छोटे स्तनपायी जीवों को अपनी गाड़ी से कुचल रहे होते हैं।
                          आप अपनी एसयूवी कार लेकर लद्दाख के छिछले पानी में, नदी के किनारों में दौड़ाते हैं, यूट्यूब के वीडियो मटेरियल के लिए। लेकिन आप ये नहीं देख पाते कि आपकी इस एक हरकत से पर्यावरण का कितना नुकसान होता है। आपके गाड़ी के चक्के ऊपरी मिट्टी को भारी नुकसान पहुंचाते हैं, उस पानी में उगे जलीय पौधों एवं जलीय जीवों के भ्रूण(अंडे) को कुचल जाते हैं और आपको खबर ही नहीं। आपके गाड़ियों के बार-बार हार्न बजाने से रेसिंग करने तक, ऐसी न जाने कितनी हरकते हैं, इन सबसे पहाड़ों को इन कोमल चट्टानों को कितना दूरगामी नुकसान पहुंचता है, इसे आप कहाँ देख पाएंगे। आजकल जो हाई सस्पेंशन वाली कारें बनती हैं उनका तो विज्ञापन वाला वीडियो भी बिना नदी नालों को नुकसान किए नहीं बन पाता। जैसा देखा वैसा सीखा वाला तर्जुमा है।
                            असल में देखा जाए तो अधिकतर लोग पहाड़ घूमने नहीं आते। वे तो पहाड़ों को, इन नदियों को, इन खूबसूरत वादियों को अपनी रखैल समझते हैं,जी भर के अपने क्षणिक सुख के लिए अमुक जगह को निचोड़ते हैं अपनी हवस रूपी भूख से। शराब पिया और फेक दिया कहीं भी बोतल, पानी की बोतल भी, चिप्स वगैरह की पन्नी भी। और तो और जहां टूरिज्म नामक भूत पहुंचा वहां उस जगह की फूड हैबिट को ही लील लिया, न जाने ऐसे कितने तरीकों से नुकसान पहुंचता है।

 

"हमारी सुविधाएं जितनी बढ़ती जाती है उसी के साथ हमारी जिम्मेदारियां भी उतनी ही बढ़ जाती है।" हम प्रकृति की इस साम्यावस्था को कब समझेंगे?


                             अच्छा स्थानीय फूड हैबिट को नुकसान कुछ इस तरह पहुंचा कि जिन गांवों में सड़कें नहीं पहुंच पाई हैं वहां भी फास्ट फूड की छोटी-छोटी दुकाने खुल गई इसलिए नहीं खुली कि फास्ट फूड उनके शौक की चीज है और उसके बिना वे रह नहीं सकते बल्कि इसलिए कि बाहर से कोई टूरिस्ट अगर आएगा तो वह अवश्य फास्ट फूड खाएगा ही। आज के जमाने के हिसाब से तो यही सबसे बेहतर विकल्प प्रचलन में है। लेकिन टूरिस्ट एक सीजन में ही आएगा, बाकी समय कैसे किया जाए इस फास्ट फूड का। तो इस समस्या का समाधान भी मानसिकता कर देती है और वो ये कि गांव का व्यक्ति शहर के व्यक्ति को अपने से अधिक कुशल, सभ्य और बुध्दिमान समझता है इस चक्कर में वो अपने खान-पान रहन-सहन,तौर-तरीकों को छोटा समझता है। और शहरी खानपान उसे अमृत तुल्य लगने लगता है। और कुछ इस तरह वो भी फास्ट फूड को अपने जीवन का हिस्सा बना लेता है।
आज आप उत्तर भारत के किसी भी पर्वतीय इलाके में जाएं आपको भले वहां खाने को कुछ मिले न मिले लेकिन नूड्ल्स और मोमो की दुकानें अवश्य मिल जाएंगी।
                             आपने तो सालों तक दिन रात काम किया, नाइट शिफ्ट भी किया है। लाइफ में बहुत कुछ देखा है, काफी संघर्ष किया है, जीतोड़ मेहनत की है तब जाकर सफलता के मुकाम पर पहुंचे हैं। अब जब इतना कुछ किया है तो थोड़ा सुकून भी चाहिए, अपनी मानसिक थकान मिटाने आप पहाड़ आएंगे, ऐश करेंगे। जीवन में आपने इतना त्याग,इतना समर्पण कर दिया कि नंगापन मचाने का तो अब तो मानो आपके पास सर्टिफिकेट है, अब चूंकि आपके पास अनाब-शनाब पैसे हैं और इन पैसों से आपको नाना प्रकार की सुविधाएं भोगनी है तो आपके भूख की चिंता लोगों में इतनी ज्यादा है कि आपके हिसाब से खानपान तैयार होता है, बाहर से चीजें मंगाई जाने लगती है, स्थानीय फूड-हैबिट की ऐसी की तैसी। आलीशान होटल तैयार होते हैं, शराब और शबाब की जुगत लगाई जाती है वगैरह वगैरह।
आप आएंगे नुकसान रूपी बटन दबाकर अपनी आत्मलिप्सा भुनाएंगे और फिर चले जाएंगे। और जाकर कुछ अपने साथियों के साथ जानकारियां साझा करेंगे तब तक एक पूरा का पूरा शहर आपकी भूख के मुताबिक तैयार होने लगेगा।
                            कई लोग स्वयं की खोज में निकला हूं वाली नौटंकी लेकर चलते हैं और वो भी पर्यावरण की खूब ऐसी-तैसी करते हैं। और मन ही मन #peace #serenity की चोचलेबाजी करके घर वापस लौटते हैं। आज मानव मन इतना अधिक संवेदनशील कैसे हो गया है कि जिस हैशटैग से पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है बाद में उसी हैशटैग से पर्यावरण को बचाने का रोना रोता है।
खैर कितना लिखा जाए...

आखिरी बात ये कि ...
मुझे कभी नहीं लगा कि हमारे आसपास के वातावरण की ऐसी छोटी-छोटी चीजें जानने-समझने के लिए किसी पढ़ाई या विशेषज्ञता की जरूरत है। बस नेकनीयती हो तो काम बन पड़ता है। जब गांव का अनपढ़ किसान इन चीजों का ख्याल कर सकता है तो आप और हम क्यों नहीं। आप और हम तो वैसे भी पढ़े-लिखे हैं।
और अगर आप मेरे इस माफीनामे को स्वीकार करते हैं तो इन छोटी-छोटी चीजों पर जरूर ध्यान दीजिएगा। क्योंकि ज्वालामुखी एक दिन में तैयार नहीं होता वो तो हमेशा अंधेरे से घिरा होता है और जब फूटता है तो उसी अंधेरे को उजाले में तब्दील कर देता है और हम आश्चर्यचकित हो उठते हैं।

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