Wednesday, 26 July 2017

- मुनस्यारी में काँच की समस्या का समाधान -

                             मुनस्यारी में काँच की बढ़ती हुई मात्रा को देखते हुए इसे रिसायकलिंग के लिए यहाँ से बाहर ले जाना अब जरूरी हो गया है।। इससे पहले कि ये छोटा सा काम असंभव सा दिखने लगे, सबको मिल-जुलकर इस समस्या को दूर करना ही होगा। ये काम पेपरबाजी, आर्टिकलबाजी, फोटोबाजी, एनजीओगिरी या नेतागिरी से प्रेरित न होकर आपके हमारे यानि जनसाधारण के धरातलीय प्रयास से होगा।
                            वास्तविक धरातल पर अगर बात की जाए तो मुनस्यारी से काँच इकट्ठा कर हम हल्द्वानी तक किसी ट्रक में लाद कर भेज दें ऐसा सोचना बेवकूफी भरा उपाय होगा इसके अलावा और कुछ नहीं। इसीलिए इस पूरी प्रक्रिया को कई चरणों में तोड़ने की आवश्यकता है।
                            उदाहरण के लिए जैसे मुनस्यारी में सैकड़ों दुकाने हैं इतने घर हैं कमरे हैं कुछ आफिस हैं। माने कहने का अर्थ ये कि लोगों के बीच जाकर, उनसे बात कर, उनका विश्वास अर्जित कर कोई एक ऐसी खाली जगह सुनिश्चित की जाए जहाँ काँच की बोतलों को इकट्ठा किया जा सके। फिर ये बोतलें मुनस्यारी से रिसाइकल होने के लिए एक चरणबद्ध प्रक्रिया से आगे भेज दी जाएगी।

समाधान जिन चार चरणों में संपन्न होगा वो कुछ इस प्रकार है-

1)मुनस्यारी से थल-
इस बात से शायद ही कोई इंकार करेगा कि मुनस्यारी से थल का रास्ता सबसे अधिक दुर्गम है, और बरसात के समय में लैंडस्लाइड को ध्यान में रखते हुए काँच भेजना मुमकिन नहीं, ये वाकई जोखिम भरा काम होगा। ठीक ऐसा ही जोखिम बर्फबारी के कुछ महीनों में है। कुल मिलाकर अगर मोटा मोटा देखा जाए तो पाँच महीने हटाकर भी सात महीने हमारे पास हैं, इस बीच आसानी से मुनस्यारी से थल को गाड़ियां आ सकती है। मुनस्यारी से काँच भेजने की जिम्मेदारी सिर्फ थल तक ही होगी, वहाँ उनका काम समाप्त हुआ।

2)थल से बागेश्वर-
ठीक मुनस्यारी की तरह थल वालों की जिम्मेदारी भी बागेश्वर तक ही होगी। अब यहां थल वालों की जिम्मेदारी दुगुनी हो जाती है। वो ऐसे कि काँच मुनस्यारी से आया है उसे भी आगे भेजना है और थल में भी जमा हुए काँच को इकट्ठा कर आगे भेजना है। लेकिन अब थल वालों के लिए आगे का रास्ता मुनस्यारी की अपेक्षा थोड़ा सुगम ही होगा इसलिए कोई समस्या वाली बात नहीं है।

3) बागेश्वर से अल्मोड़ा-
ठीक वैसी ही प्रकिया यहां भी दुहरायी जाएगी।

4) अल्मोड़ा से हल्द्वानी-
ये आखरी पड़ाव है यहां से काँच रिसाइकल होने के लिए फैक्ट्री में जाएगा। अच्छा यहां इस एक बात को लेकर संशय है कि अब चूंकि अल्मोड़ा मैदानी इलाके से सबसे पास है तो यहां से हल्द्वानी काँच पहले भी रिसाइकल होने के लिए जाता रहा है या नहीं इस बारे में जिन्हें जानकारी हो वे स्पष्ट करें।


ये तो पूरा रोडमैप तैयार हो गया, अब कैसे इसे धरातल में उतारा जाए, और इसमें क्या क्या समस्याएँ आ सकती है, इस पर ध्यान देने से जो बातें सामने आ रही है वो कुछ इस तरह है -

a) पैसे का लेन-देन -
अब चूंकि इस काम में आमदनी कम और लोक-कल्याण की भावना ज्यादा है तो इसमें पैसे को लेकर ज्यादा समस्या नहीं होगी। फिर भी इस समस्या का एक त्वरित उपाय है। अब जैसे मुनस्यारी से गाड़ी थल तक आएगी। उसका जो भी हिसाब किताब है थल में ही पूरा होगा। मुनस्यारी से काँच भेजने वालों को हल्द्वानी तक कितना काँच पहुंचा इससे कोई मतलब नहीं। ठीक कुछ ऐसा आगे भी होगा।

b) काँच कौन इकट्ठा करे -
काँच इकट्ठा करने का काम आप करेंगे, मैं करूंगा, ये जनता करेगी। समस्या हमने तैयार की है तो नि:संदेह इसे ठीक भी हम ही करेंगे अब चूंकि ये कोई सौदेबाजी या फायदे वाला काम तो है नहीं कि कोई देवदूत या एनजीओ वाला टपक जाए। सो काम हमें करना है। और क्या ये भी कोई काम है, बोतलें एक किसी जगह में इकट्ठी करनी है। मेरा सुझाव है कि सबसे पहले इस काम की शुरूआत एक मुहिम की तरह स्कूली बच्चों के द्वारा हो। इससे शराब और उससे होने वाले दुष्प्रभाव को लेकर गजब का परिवर्तन होगा। जब कोई स्कूली बच्चा अपने ही घर से बोतलें जमा कर आगे भेजेगा तो उसके घर में शराब पीने वालों में शर्मिंदगी आएगी और फिर शराब और उससे होने वाले नुकसान को लेकर चेतना आएगी। कुल मिलाकर ये कदम एक तरह से शराबबंदी का भ्रूण तैयार करने में भी उपयोगी साबित हो सकता है।

c) किसकी गाड़ी में जाएगा काँच -
जहां तक मुझे याद आ रहा है बिल्डिंग मटेरियल वाली गाड़ियां रामनगर से मुनस्यारी तक आती है। हमने देखा कि बहुत सी ऐसी बड़ी गाड़ियां हैं जो मुनस्यारी से खाली निकलती है। खाली गाड़ियां नहीं भी मिली तो भी कौन सा रोज काँच भेजना है। कम से कम एक ट्रक कांच इकट्ठा होने में पंद्रह बीस दिन का समय लग ही जाएगा। लोक-कल्याण की भावना से काँच भी इकट्ठा होगा, लोग खुलकर सामने आएंगे, गाड़ियों की व्यवस्था भी होगी और काँच गाड़ी में लादकर मुनस्यारी से आगे जाएगा भी।

d) जागरूकता की समस्या -
शुरूआत में लोगों को इस मुहिम से जोड़ने में समस्या आ सकती है। फिर भी मुझे नहीं लगता कि पहाड़ में ऐसे छोटे से काम के लिए जागरूकता को लेकर कोई ज्यादा समस्या पैदा होगी। क्योंकि ये वही समाज है जो आज भी सवारी गाड़ियों के माध्यम से चंद खीरे और दूध की बोतलें सौ सौ किलोमीटर दूर अपने रिश्तेदारों के पास भेजते हैं, ये वही समाज है जहाँ आज भी विश्व में सबसे ज्यादा संयुक्त परिवार है, ये वही समाज है जो बिना किसी दिखावे के, बिना किसी सांगठनिक सहयोग के सैकड़ों सालों से पहाड़ों में पत्थर तोड़कर पगडंडियां बनाते आये हैं। ऐसी जिस समाज की बनावट है। ऐसे जीवन मूल्यों को जो समाज आत्मसात किए हुए है, उस समाज से इतनी अपेक्षा तो की जा सकती है कि वह संगठित होकर काँच की इन बोतलों को रिसाइकलिंग के लिए बाहर भेज दे।

Panchachuli Peaks, Munsyari, Uttarakhand

 

Monday, 24 July 2017

पाना भवन - बादनी गांव

                           प्रत्येक किसान अपने खेत का वैज्ञानिक होता है और वो खेत उसकी प्रयोगशाला। किसान की इस प्रयोगशाला से धरती को, पर्यावरण को, व्यक्ति विशेष को कोई खतरा नहीं, कोई नुकसान नहीं। अब चूंकि किसान अपनी जरूरत के अनुसार धरती का पोषण करता है शोषण नहीं ( अगर आज बाजार के दबाव को हटा कर देखा जाए तो), तो उसका यह काम वाकई धरती को बचाने का एक धरातलीय प्रयास है। किसान का यह विज्ञान कार्ल मार्क्स के कथन "गणित विज्ञान की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है" से भी कहीं आगे है।
मजेदार बात ये भी कि किसान का यह वैज्...ञानिक पहलू एकपक्षीय है क्योंकि उसके विज्ञान में सिर्फ वरदान का पक्ष है अभिशाप का पक्ष नगण्य है।

नोट:- इनके गांव तक जाने के लिए कोई रोड नहीं है, पैदल खड़े पहाड़ चढ़कर ही पहुंचा जा सकता है।


गौशाला


प्रसाधन और स्नानागार की भी सुविधा है


 आंगन


दादी पशुओं के लिए चारा लाद कर ले जाती हुई, यह चारा वो चार-पांच किलोमीटर दूर जंगल से लेकर आती हैं।


पाना जी के घर का एक खूबसूरत सा कमरा- 1


पाना जी के घर का एक खूबसूरत सा कमरा- 2


पाना जी की भतीजी


पाना जी के पिता मुनस्यारी तहसील के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने एयरफोर्स ज्वाइन किया था। साथ ही इन्होंने पैराशूट से गोरीपार से मुनस्यारी पैराग्लाउडिंग की थी जो कि अपने आप में एक कीर्तिमान है।


चिलकोट(मुनस्यारी) की दुर्गम पहाड़ियों में दो पागल किसान। जो हमारे साथ में हैं वे बादनी गांव के हैं जिन्होंने आर्ड्रिनेंस फैक्ट्री की नौकरी छोड़ी, पहाड़ लौटे और किसानी का फैसला लिया।
पाना भवन

Friday, 14 July 2017

~ मुनस्यारी से एक माफीनामा ~

                        आज ये इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मुझे ऐसा लग रहा है कि इस जगह के बारे में लोगों को बताकर, यहां की खूबसूरती दिखाकर, भले ही मेरी बात कुछ थोड़े लोगों तक ही पहुंची हो लेकिन फिर भी मैंने यहां का बहुत बड़ा नुकसान कर दिया है।
                        असल में महीने भर पहले हम एक पहाड़ी गांव को गये थे। वहां एक दादी ने मेरे कैमरे को देखते ही नाराजगी जताई और बंद करने को कहा। मुझे उस नाराजगी का मर्म समझने में काफी समय लग गया। मानो वो दादी मुझसे मन ही मन कह रहीं हों कि आपने मशीनों से घिरकर अपनी जिंदगी नर्क बना ली है अब ये सब यहां मत आजमाइए।
                        सोचता हूं अभी तक मैंने मुनस्यारी से जुड़ी जितनी तस्वीरें, वीडियो या अन्य जानकारियां जो भी मैंने सोशल मीडिया के माध्यम से यहां बांट दी है। उन सबको हमेशा के लिए हटा दूं। लेकिन अब हटाने का क्या फायदा, अब तो आप देख ही चुके हैं।
                         फिर भी आपमें इंसानियत होगी तो कभी मत आइएगा इन जगहों पर। आइएगा तो भी एक सभ्य इंसान की तरह वरना नहीं। भूखे भेड़िए के भेष में आएंगे और नुकसान पहुंचा के चले भी जाएंगे बाकी लोगों की तरह तो भी कोई क्या कर सकता है। अब इस बात का डर रोज सताने लगा है कि टूरिज्म के चक्कर में मुनस्यारी का हाल शिमला, मनाली, नैनीताल, लद्दाख, श्रीनगर जैसा न हो जाए। वहशीपन लिए भीड़ की मानसिकता कब कहाँ अपनी जड़ें जमा ले। कुछ कह नहीं सकते।
                         टूरिज्म का आज जैसा माहौल बनाया जा रहा है उससे कैसे कोई जगह बर्बाद हो जाती है इसका सबसे बड़ा उदाहरण लद्दाख है। खासकर "थ्री इड्यिट्स" फिल्म के बाद लद्दाख जाने वालों का हुजूम बढ़ता ही गया ठीक ऐसा ही कुछ "ये जवानी है दीवानी" फिल्म के बाद मनाली के साथ हुआ लेकिन सबसे अधिक नुकसान लद्दाख को ही हुआ। वहां का रहन-सहन, खान-पान, वहां की पूरी संस्कृति आज खतरे में है। आज लगभग हर युवा के लिए जिंदगी का सपना सा है कि एक बार लेह-लद्दाख जाकर खुद को संतुष्ट कर ले।
आप सोच रहे होंगे कि भाई हम तो अपनी बाइक, अपनी कार लेकर बस घूमने गये थे। किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया।
                         पर आपको ये कभी नहीं दिखाई देगा कि जिन बंदरों को आप के अंदर का मूर्ख समाजसेवी रास्ते में कहीं रूककर बिस्किट और चिप्स खिला देता है वही बंदर बाद में इन चीजों के लिए लूट मचाते हैं। जो जंगली जानवर बढ़िया फल, कंद-मूल से चलते थे, आपने उनको भी नहीं बख्शा, उनकी आदतें बिगाड़ दी, वो भी चंद तस्वीरों के लिए। अब चूंकि आपकी हवस इतनी ज्यादा है कि आप ये सब कुछ नजरअंदाज कर जाते हैं।
लद्दाख में आफ रोड गाड़ियों को अपने एडवेंचर के लिए आप कहीं भी ले जाते हैं। आपको इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं है कि आप छिपकली सांप आदि सरीसृपों के अंडों को, जमीन में घोसलें बनानी वाली छोटे पक्षियों के अंडे और कुछ छोटे स्तनपायी जीवों को अपनी गाड़ी से कुचल रहे होते हैं।
                          आप अपनी एसयूवी कार लेकर लद्दाख के छिछले पानी में, नदी के किनारों में दौड़ाते हैं, यूट्यूब के वीडियो मटेरियल के लिए। लेकिन आप ये नहीं देख पाते कि आपकी इस एक हरकत से पर्यावरण का कितना नुकसान होता है। आपके गाड़ी के चक्के ऊपरी मिट्टी को भारी नुकसान पहुंचाते हैं, उस पानी में उगे जलीय पौधों एवं जलीय जीवों के भ्रूण(अंडे) को कुचल जाते हैं और आपको खबर ही नहीं। आपके गाड़ियों के बार-बार हार्न बजाने से रेसिंग करने तक, ऐसी न जाने कितनी हरकते हैं, इन सबसे पहाड़ों को इन कोमल चट्टानों को कितना दूरगामी नुकसान पहुंचता है, इसे आप कहाँ देख पाएंगे। आजकल जो हाई सस्पेंशन वाली कारें बनती हैं उनका तो विज्ञापन वाला वीडियो भी बिना नदी नालों को नुकसान किए नहीं बन पाता। जैसा देखा वैसा सीखा वाला तर्जुमा है।
                            असल में देखा जाए तो अधिकतर लोग पहाड़ घूमने नहीं आते। वे तो पहाड़ों को, इन नदियों को, इन खूबसूरत वादियों को अपनी रखैल समझते हैं,जी भर के अपने क्षणिक सुख के लिए अमुक जगह को निचोड़ते हैं अपनी हवस रूपी भूख से। शराब पिया और फेक दिया कहीं भी बोतल, पानी की बोतल भी, चिप्स वगैरह की पन्नी भी। और तो और जहां टूरिज्म नामक भूत पहुंचा वहां उस जगह की फूड हैबिट को ही लील लिया, न जाने ऐसे कितने तरीकों से नुकसान पहुंचता है।

 

"हमारी सुविधाएं जितनी बढ़ती जाती है उसी के साथ हमारी जिम्मेदारियां भी उतनी ही बढ़ जाती है।" हम प्रकृति की इस साम्यावस्था को कब समझेंगे?


                             अच्छा स्थानीय फूड हैबिट को नुकसान कुछ इस तरह पहुंचा कि जिन गांवों में सड़कें नहीं पहुंच पाई हैं वहां भी फास्ट फूड की छोटी-छोटी दुकाने खुल गई इसलिए नहीं खुली कि फास्ट फूड उनके शौक की चीज है और उसके बिना वे रह नहीं सकते बल्कि इसलिए कि बाहर से कोई टूरिस्ट अगर आएगा तो वह अवश्य फास्ट फूड खाएगा ही। आज के जमाने के हिसाब से तो यही सबसे बेहतर विकल्प प्रचलन में है। लेकिन टूरिस्ट एक सीजन में ही आएगा, बाकी समय कैसे किया जाए इस फास्ट फूड का। तो इस समस्या का समाधान भी मानसिकता कर देती है और वो ये कि गांव का व्यक्ति शहर के व्यक्ति को अपने से अधिक कुशल, सभ्य और बुध्दिमान समझता है इस चक्कर में वो अपने खान-पान रहन-सहन,तौर-तरीकों को छोटा समझता है। और शहरी खानपान उसे अमृत तुल्य लगने लगता है। और कुछ इस तरह वो भी फास्ट फूड को अपने जीवन का हिस्सा बना लेता है।
आज आप उत्तर भारत के किसी भी पर्वतीय इलाके में जाएं आपको भले वहां खाने को कुछ मिले न मिले लेकिन नूड्ल्स और मोमो की दुकानें अवश्य मिल जाएंगी।
                             आपने तो सालों तक दिन रात काम किया, नाइट शिफ्ट भी किया है। लाइफ में बहुत कुछ देखा है, काफी संघर्ष किया है, जीतोड़ मेहनत की है तब जाकर सफलता के मुकाम पर पहुंचे हैं। अब जब इतना कुछ किया है तो थोड़ा सुकून भी चाहिए, अपनी मानसिक थकान मिटाने आप पहाड़ आएंगे, ऐश करेंगे। जीवन में आपने इतना त्याग,इतना समर्पण कर दिया कि नंगापन मचाने का तो अब तो मानो आपके पास सर्टिफिकेट है, अब चूंकि आपके पास अनाब-शनाब पैसे हैं और इन पैसों से आपको नाना प्रकार की सुविधाएं भोगनी है तो आपके भूख की चिंता लोगों में इतनी ज्यादा है कि आपके हिसाब से खानपान तैयार होता है, बाहर से चीजें मंगाई जाने लगती है, स्थानीय फूड-हैबिट की ऐसी की तैसी। आलीशान होटल तैयार होते हैं, शराब और शबाब की जुगत लगाई जाती है वगैरह वगैरह।
आप आएंगे नुकसान रूपी बटन दबाकर अपनी आत्मलिप्सा भुनाएंगे और फिर चले जाएंगे। और जाकर कुछ अपने साथियों के साथ जानकारियां साझा करेंगे तब तक एक पूरा का पूरा शहर आपकी भूख के मुताबिक तैयार होने लगेगा।
                            कई लोग स्वयं की खोज में निकला हूं वाली नौटंकी लेकर चलते हैं और वो भी पर्यावरण की खूब ऐसी-तैसी करते हैं। और मन ही मन #peace #serenity की चोचलेबाजी करके घर वापस लौटते हैं। आज मानव मन इतना अधिक संवेदनशील कैसे हो गया है कि जिस हैशटैग से पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है बाद में उसी हैशटैग से पर्यावरण को बचाने का रोना रोता है।
खैर कितना लिखा जाए...

आखिरी बात ये कि ...
मुझे कभी नहीं लगा कि हमारे आसपास के वातावरण की ऐसी छोटी-छोटी चीजें जानने-समझने के लिए किसी पढ़ाई या विशेषज्ञता की जरूरत है। बस नेकनीयती हो तो काम बन पड़ता है। जब गांव का अनपढ़ किसान इन चीजों का ख्याल कर सकता है तो आप और हम क्यों नहीं। आप और हम तो वैसे भी पढ़े-लिखे हैं।
और अगर आप मेरे इस माफीनामे को स्वीकार करते हैं तो इन छोटी-छोटी चीजों पर जरूर ध्यान दीजिएगा। क्योंकि ज्वालामुखी एक दिन में तैयार नहीं होता वो तो हमेशा अंधेरे से घिरा होता है और जब फूटता है तो उसी अंधेरे को उजाले में तब्दील कर देता है और हम आश्चर्यचकित हो उठते हैं।