बिठौली परंपरा( दैनिक जीवन की सामग्री लेकर अपनी ब्याही दीदी के घर प्रस्थान) निभाते हुए हम मुनस्यारी ब्लाक के सिल्थिंग गांव में अपने दोस्त के एक रिश्तेदार के यहां ठहरे हुए थे। सिल्थिंग में आज भी कोई नेटवर्क नहीं है। बीसएनएल का नेटवर्क आता है वो भी ना के बराबर।अभी दो महीने पहले ही सिल्थिंग गांव के पास से रोड कटिंग हुई है। इससे पहले गांव वाले पहाड़ी पगडंडियों पर ही निर्भर थे।
उस दिन शाम ढलने से पहले बड़ी तेज बारिश होने लगी, थोड़ी देर बाद ओले भी गिरने लगे।मेरे दोस्त पड़ोस में कहीं कच्चि( स्थानीय शराब) पीने के लिए चले गये। मैं अकेले एक कमरे में कुर्सी लगाकर बैठा हुआ था। उस छोटे से कमरे में एक झूमर भी लगा हुआ था, किनारे में एक खाट लगी हुई थी, कंबल और रजाई पड़ी हुई थी और उन रजाईयों के ऊपर बिल्लियों का एक झुंड जो वहां मजे से लेटे हुए थे, कमरे की गंध से ऐसा लगा कि इस कमरे में इन बिल्लियों का ही आधिपत्य होता होगा, एक छोटी सी ट्यूब वाली रंगीन टीवी थी, दीवारों में फिल्मी सितारों के कुछ पोस्टर और उस घर के लोगों की कुछ फ्रेम की हुई तस्वीरें लगी हुई थी। पहाड़ी गांवों के छोटी ऊंचाई में बने घर, अधिकांशत पत्थरों से बने हुए और मिट्टी और गोबर की लिपाई से युक्त, असल में ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि जाड़ों में कम ऊंचाई के पत्थर के घरों में ठंड कम लगती है। पत्थर के ही घर इसलिए क्योंकि इन्हीं की वजह से बर्फबारी और ओलावृष्टि से रक्षा होती है। उस कमरे में टीवी चल रहा था। ठीक इसी बीच हम जिस घर में रूके हुए थे, उनके यहां की दादी आयी और मेरे सामने लगी कुर्सी में बैठ गयी। टीवी चल ही रहा था, तेज बारिश,बिजली की गर्जना और बस कुछ मिनट बाद लाइट चली गई। दादी ने सोलर लाइट जलाई और फिर उन्होंने मुझसे बात करनी शुरू की।
सोलर की धीमी मद्धिम रोशनी के बीच मेरी अग्निपरीक्षा शुरू हो चुकी थी। अग्निपरीक्षा इसलिए क्योंकि दादी को हिन्दी बोलना नहीं आता था और मुझे कुमाऊँनी(पहाड़ी)। वो थोड़ा बहुत हिन्दी समझती थी और मैं तो अभी-अभी कुमाऊँनी समझने की राह में था। एक बार को लगा कि यार ये तो गजब फंस गये हम और अब बात करें भी तो कैसे, उस जगह से अचानक उठ के कहीं जा भी नहीं सकते, इसलिए वहां टिके रहे।
दादी कुमाऊँनी में सवाल करती और मैं बड़े ध्यान से सुनता, उस भाव को पकड़ने की कोशिश करता, सोच-समझ के जितनी जल्दी हो सके हिन्दी में जवाब देता। दादी फिर मुझसे कुमाऊँनी में सवाल करती और मैं फिर हिन्दी में जवाब देता, और फिर मेरे हर जवाब के बाद में वो "हां भुला(बेटा)" कहती जाती।
दादी ने इस बीच में मेरा नाम,काम,पता पूछा, घरवालों के बारे में पूछा। दादी ने ये भी कहा कि बहुत खुशी हुई कि तुम इतने दूर प्रदेश से हमारे इस गांव में आए। और फिर अपने बेटे और बिटिया के बारे में भी बताया, मां कैसे अपने बच्चों के बारे में जिक्र करते हुए खुश हो लेती है वो मैं दादी की बातों से महसूस कर पा रहा था। दादी बता रही थी कि उनकी आंखें अब ढंग से दिखाई नहीं देती, धुंधलापन आने लगा है, उन्होंने बताया कि दो बार पिथौरागढ़ और हल्द्वानी जाकर उन्होंने जांच भी कराई फिर भी कुछ ठीक नहीं हुआ। आंख की समस्या जस की तस बनी हुई है।
दादी कहती है - अब तो बुढ़ाने लगी हूं भुला, अब ज्यादा चलने और गाड़ी में सफर करने की हिम्मत भी नहीं बची, इलाज के लिए अब कितना भटकूंगी, मुस्कुराते हुए कहने लगी कि अब इन आंखों को ऐसी ही चलाऊंगी जब तक चलता है ठीक है।
मैं उस बीस मिनट के समय में उस हल्की रोशनी में सिर्फ दादी के साथ था, हमारे बातचीत के बीच किसी प्रकार का कोई व्यवधान नहीं था, दादी के बोले हुए एक-एक शब्द पर मेरी एकाग्रता बनी हुई थी। मैं उस बीस मिनट के अंधेरे में दादी से बात करते ठीक-ठीक कुमाऊँनी समझने लग गया था। एक बार को लगा कि अगर ऐसी स्थिति बार-बार आए तो किसी नयी भाषा को सीखने में कितनी आसानी होगी। और फिर लाइट आ गई, बीस मिनट कट चुके थे। और खाना खाने के लिए बुलावा आ चुका था।
उस दिन शाम ढलने से पहले बड़ी तेज बारिश होने लगी, थोड़ी देर बाद ओले भी गिरने लगे।मेरे दोस्त पड़ोस में कहीं कच्चि( स्थानीय शराब) पीने के लिए चले गये। मैं अकेले एक कमरे में कुर्सी लगाकर बैठा हुआ था। उस छोटे से कमरे में एक झूमर भी लगा हुआ था, किनारे में एक खाट लगी हुई थी, कंबल और रजाई पड़ी हुई थी और उन रजाईयों के ऊपर बिल्लियों का एक झुंड जो वहां मजे से लेटे हुए थे, कमरे की गंध से ऐसा लगा कि इस कमरे में इन बिल्लियों का ही आधिपत्य होता होगा, एक छोटी सी ट्यूब वाली रंगीन टीवी थी, दीवारों में फिल्मी सितारों के कुछ पोस्टर और उस घर के लोगों की कुछ फ्रेम की हुई तस्वीरें लगी हुई थी। पहाड़ी गांवों के छोटी ऊंचाई में बने घर, अधिकांशत पत्थरों से बने हुए और मिट्टी और गोबर की लिपाई से युक्त, असल में ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि जाड़ों में कम ऊंचाई के पत्थर के घरों में ठंड कम लगती है। पत्थर के ही घर इसलिए क्योंकि इन्हीं की वजह से बर्फबारी और ओलावृष्टि से रक्षा होती है। उस कमरे में टीवी चल रहा था। ठीक इसी बीच हम जिस घर में रूके हुए थे, उनके यहां की दादी आयी और मेरे सामने लगी कुर्सी में बैठ गयी। टीवी चल ही रहा था, तेज बारिश,बिजली की गर्जना और बस कुछ मिनट बाद लाइट चली गई। दादी ने सोलर लाइट जलाई और फिर उन्होंने मुझसे बात करनी शुरू की।
सोलर की धीमी मद्धिम रोशनी के बीच मेरी अग्निपरीक्षा शुरू हो चुकी थी। अग्निपरीक्षा इसलिए क्योंकि दादी को हिन्दी बोलना नहीं आता था और मुझे कुमाऊँनी(पहाड़ी)। वो थोड़ा बहुत हिन्दी समझती थी और मैं तो अभी-अभी कुमाऊँनी समझने की राह में था। एक बार को लगा कि यार ये तो गजब फंस गये हम और अब बात करें भी तो कैसे, उस जगह से अचानक उठ के कहीं जा भी नहीं सकते, इसलिए वहां टिके रहे।
दादी कुमाऊँनी में सवाल करती और मैं बड़े ध्यान से सुनता, उस भाव को पकड़ने की कोशिश करता, सोच-समझ के जितनी जल्दी हो सके हिन्दी में जवाब देता। दादी फिर मुझसे कुमाऊँनी में सवाल करती और मैं फिर हिन्दी में जवाब देता, और फिर मेरे हर जवाब के बाद में वो "हां भुला(बेटा)" कहती जाती।
दादी ने इस बीच में मेरा नाम,काम,पता पूछा, घरवालों के बारे में पूछा। दादी ने ये भी कहा कि बहुत खुशी हुई कि तुम इतने दूर प्रदेश से हमारे इस गांव में आए। और फिर अपने बेटे और बिटिया के बारे में भी बताया, मां कैसे अपने बच्चों के बारे में जिक्र करते हुए खुश हो लेती है वो मैं दादी की बातों से महसूस कर पा रहा था। दादी बता रही थी कि उनकी आंखें अब ढंग से दिखाई नहीं देती, धुंधलापन आने लगा है, उन्होंने बताया कि दो बार पिथौरागढ़ और हल्द्वानी जाकर उन्होंने जांच भी कराई फिर भी कुछ ठीक नहीं हुआ। आंख की समस्या जस की तस बनी हुई है।
दादी कहती है - अब तो बुढ़ाने लगी हूं भुला, अब ज्यादा चलने और गाड़ी में सफर करने की हिम्मत भी नहीं बची, इलाज के लिए अब कितना भटकूंगी, मुस्कुराते हुए कहने लगी कि अब इन आंखों को ऐसी ही चलाऊंगी जब तक चलता है ठीक है।
मैं उस बीस मिनट के समय में उस हल्की रोशनी में सिर्फ दादी के साथ था, हमारे बातचीत के बीच किसी प्रकार का कोई व्यवधान नहीं था, दादी के बोले हुए एक-एक शब्द पर मेरी एकाग्रता बनी हुई थी। मैं उस बीस मिनट के अंधेरे में दादी से बात करते ठीक-ठीक कुमाऊँनी समझने लग गया था। एक बार को लगा कि अगर ऐसी स्थिति बार-बार आए तो किसी नयी भाषा को सीखने में कितनी आसानी होगी। और फिर लाइट आ गई, बीस मिनट कट चुके थे। और खाना खाने के लिए बुलावा आ चुका था।
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