Friday, 19 May 2017

कच्चि - पहाड़ी शराब

                       कच्चि उत्तराखंड में बनने वाली स्थानीय शराब है। कच्चि चावल को सढ़ाकर(किण्वन) बनाया जाता है। जितना लंबे समय तक ढंक के रखा गया उतना असरदार। कच्चि की महक बहुत तेज होती है।
कच्चि दो तरह से बनाई जाती है एक खट्टी और एक मीठी। कच्चि पीने वाले इसका फायदा यह गिनाते हैं कि इससे Metabolism बहुत सही हो जाता है। खट्टी वाली कच्चि ज्यादा असरदार होती है यानि पहली बार पीने वाला तो बस एक ही ग्लास में सरेंडर।
                       वैसे कच्चि हो या अंग्रेजी शराब, दोनों बराबर पहाड़ में परिवार उजड़...ने का, सामाजिक टूटन का कारण बन रहे हैं। घर का पुरुष सदस्य शराब पीकर मस्त है, शराब और फिर जुआ, इस आपाधापी में जमा पूंजी, जमीन, खेती-किसानी सब चौपट और महिला तीन पहर बराबर मेहनत कर रही है, घास काट रही है, पशुधन संभाल रही है, पत्थर तोड़ रही है, चूल्हा चौका भी वही देख रही है।
साल भर पहले पहाड़ की महिलाओं ने कच्चि को बंद कराने के लिए गांव-गांव, घर-घर जाकर एक बड़ा Mass Movement किया।
                       जब ये मूवमेंट चला उससे पहले कच्चि बीस रुपए लीटर मिलती थी। मूवमेंट सफल रहा और चार-पाँच महीने तक कच्चि मिलनी ही बन्द हो गयी। जो लोग अपने घरों में कच्चि बनाते थे, उन्होंने इस मूवमेंट के असर को देखते कच्चि बनाना बंद कर दिया। शराब के शौकीन लोगों ने स्थिति को देखते हुए दूर शहरी इलाकों से महंगी अंग्रेजी शराब मंगवाकर पीना शुरू किया।
समय बीता और फिर धीरे-धीरे कुछ गांवों में जहां की स्थानीय प्रशासन थोड़ी लचर जान पड़ी वहां मिलीभगत कर लोगों ने चोरी-छिपे कच्चि बनाना शुरू कर दिया। जिन गांवों में आज कच्चि बनाना पूरी तरह बंद है, वो पड़ोस के गांव से लाकर पी रहे हैं।
                        शराब के कारण अच्छे-अच्छे घर बर्बाद हो रहे हैं, प्रतिशत आज भी वही है। कच्चि को लेकर जो मूवमेंट हुआ उससे ये हुआ कि कीमत बढ़ गई और आज कच्चि पचास रुपए लीटर बिकती है।




Kacchi (Green colour) garnished with flowers during a festival.

 

~ आंटीजी को पत्र ~

आंटी जी,
आपके बेटे ने दसवीं की परीक्षा दी है। वो पिछली बार फेल हो गया था। और फिर क्या हुआ आप भी जानती हैं, ट्रक में बैठ के महीने भर के लिए घर से भाग गया। वापस आया तो फिर वही ताने और मार से उसका स्वागत किया गया। आप भी क्या करेंगी, आप खुद ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है, न तो जमीनी समझ है न ही अपने बच्चे की काउंसलिंग करने की कोई जानकारी है। वो क्या सोचता है, क्या करना चाहता है, ये आपको नहीं पता, और इत्तफाक से मुझे भी नहीं पता। बेशर्मों की तरह आप लोगों से सुनता है, मार खाता है, कुल मिला के निर्लज्ज हो चुका है।
और हां शराब, सिगरेट बराबर पी रहा है।
आपको भी पता ही होगा कि वो ये सब कर रहा है, लेकिन आपने प्रत्यक्ष रूप से उसे पकड़ा नहीं तो आप भी पढ़ाई के नाम से उसे डांट लगा कर काम चला रही हैं।

मैंने उसे महीने भर मुफ्त में पढ़ाया और आपने मुझे कभी-कभार अपने घर में खाने का न्यौता दिया, बस काफी है इतना। इस बीच मैंने उसे रगड़ा, खरोंचा, उसके अंदर झांका, कि कुछ तो काम का बाहर निकले पर अभी फिलहाल सब धुंधला है। लेकिन ये बात स्पष्ट है कि आपके बेटे की पढ़ाई में थोड़ी भी रूचि नहीं है, इस बात को आप गांठ बांध लीजिए।
वो कभी-कभी धंधा-बिजनेस करने की बात छेड़ते रहता है, वो भी मजाक में। लेकिन मुझे वहां आशा की किरण दिखाई देती है। लोग बच्चों को शिक्षा देने की बात करते हैं, लेकिन मैं आज आपसे कहना चाहता हूं कि आप उसकी पढ़ाई छुड़वा दीजिए। फालतू पैसे व्यर्थ मत करिए, उसका पढ़ने का मन थोड़ा भी नहीं है।

सुनिए,
आज आपके शहर में हूं, कल कहीं और रहूंगा, मेरा कोई निजी स्वार्थ तो है नहीं, इसलिए मुझे आपके बेटे से उसकी पढ़ाई से कोई मतलब नहीं है, लेकिन आपको जमीनी हकीकत बताना मेरा दायित्व है। आपका बेटा एकदम खोखला है, खासकर पढ़ाई के मामले में एकदम डब्बा। उसे जोड़ घटाना तक ढंग से नहीं आता।
मेरी राय में आप उसे अभी से बिजनेस लाइन में डाल दीजिए, पूरा एक रूपांतरण हो जाएगा, खाली बैठे शराब सिगरेट कर रहा है, कुछ तो कर्त्तव्यबोध आएगा। कमाने का एक दायित्व हमेशा रहेगा तो शायद कल को नशा पानी भी एक सीमा में रहे।
हां खींचतान करके 12th तक ले जाना चाहती हैं तो ठीक है, एक टैग रहेगा कि चलो बारहवीं के बाद ही पढ़ाई छोड़कर काम धाम में लग गया।

और रही बात कि उसके इस बार के दसवीं के पेपर की, इसमें कोई शक नहीं कि इस बार फिर से वो फेल हो जाए, गिरते-पड़ते पास हो भी जाए तो भी कोई मतलब नहीं है।
मैं इस बात की गारंटी दे नहीं सकता कि महीने भर मेरे से पढ़के वो दसवीं में पास हो जाएगा, वैसे भी मैं कोई सब्जेक्ट स्पेश्लिस्ट तो हूं नहीं लेकिन मैं इस बात की गारंटी लेता हूं कि अगर वो फेल हो गया तो भी इस बार वो घर से भागने वाला काम नहीं करेगा।

पढ़ाई से इतर मैंने उसमें जीने की, आगे बढ़ने की लालसा भर दी है, मेरा योगदान सिर्फ इतना सा है।

Friday, 12 May 2017

~ बीस मिनट का अंधेरा ~

                         बिठौली परंपरा( दैनिक जीवन की सामग्री लेकर अपनी ब्याही दीदी के घर प्रस्थान) निभाते हुए हम मुनस्यारी ब्लाक के सिल्थिंग गांव में अपने दोस्त के एक रिश्तेदार के यहां ठहरे हुए थे। सिल्थिंग में आज भी कोई नेटवर्क नहीं है। बीसएनएल का नेटवर्क आता है वो भी ना के बराबर।अभी दो महीने पहले ही सिल्थिंग गांव के पास से रोड कटिंग हुई है। इससे पहले गांव वाले पहाड़ी पगडंडियों पर ही निर्भर थे।
                         उस दिन शाम ढलने से पहले बड़ी तेज बारिश होने लगी, थोड़ी देर बाद ओले भी गिरने लगे।मेरे दोस्त पड़ोस में कहीं कच्चि( स्थानीय शराब) पीने के लिए चले गये। मैं अकेले एक कमरे में कुर्सी लगाकर बैठा हुआ था। उस छोटे से कमरे में एक झूमर भी लगा हुआ था, किनारे में एक खाट लगी हुई थी, कंबल और रजाई पड़ी हुई थी और उन रजाईयों के ऊपर बिल्लियों का एक झुंड जो वहां मजे से लेटे हुए थे, कमरे की गंध से ऐसा लगा कि इस कमरे में इन बिल्लियों का ही आधिपत्य होता होगा, एक छोटी सी ट्यूब वाली रंगीन टीवी थी, दीवारों में फिल्मी सितारों के कुछ पोस्टर और उस घर के लोगों की कुछ फ्रेम की हुई तस्वीरें लगी हुई थी। पहाड़ी गांवों के छोटी ऊंचाई में बने घर, अधिकांशत पत्थरों से बने हुए और मिट्टी और गोबर की लिपाई से युक्त, असल में ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि जाड़ों में कम ऊंचाई के पत्थर के घरों में ठंड कम लगती है। पत्थर के ही घर इसलिए क्योंकि इन्हीं की वजह से बर्फबारी और ओलावृष्टि से रक्षा होती है। उस कमरे में टीवी चल रहा था। ठीक इसी बीच हम जिस घर में रूके हुए थे, उनके यहां की दादी आयी और मेरे सामने लगी कुर्सी में बैठ गयी। टीवी चल ही रहा था, तेज बारिश,बिजली की गर्जना और बस कुछ मिनट बाद लाइट चली गई। दादी ने सोलर लाइट जलाई और फिर उन्होंने मुझसे बात करनी शुरू की।
                         सोलर की धीमी मद्धिम रोशनी के बीच मेरी अग्निपरीक्षा शुरू हो चुकी थी। अग्निपरीक्षा इसलिए क्योंकि दादी को हिन्दी बोलना नहीं आता था और मुझे कुमाऊँनी(पहाड़ी)। वो थोड़ा बहुत हिन्दी समझती थी और मैं तो अभी-अभी कुमाऊँनी समझने की राह में था। एक बार को लगा कि यार ये तो गजब फंस गये हम और अब बात करें भी तो कैसे, उस जगह से अचानक उठ के कहीं जा भी नहीं सकते, इसलिए वहां टिके रहे।
                          दादी कुमाऊँनी में सवाल करती और मैं बड़े ध्यान से सुनता, उस भाव को पकड़ने की कोशिश करता, सोच-समझ के जितनी जल्दी हो सके हिन्दी में जवाब देता। दादी फिर मुझसे कुमाऊँनी में सवाल करती और मैं फिर हिन्दी में जवाब देता, और फिर मेरे हर जवाब के बाद में वो "हां भुला(बेटा)" कहती जाती।
दादी ने इस बीच में मेरा नाम,काम,पता पूछा, घरवालों के बारे में पूछा। दादी ने ये भी कहा कि बहुत खुशी हुई कि तुम इतने दूर प्रदेश से हमारे इस गांव में आए। और फिर अपने बेटे और बिटिया के बारे में भी बताया, मां कैसे अपने बच्चों के बारे में जिक्र करते हुए खुश हो लेती है वो मैं दादी की बातों से महसूस कर पा रहा था। दादी बता रही थी कि उनकी आंखें अब ढंग से दिखाई नहीं देती, धुंधलापन आने लगा है, उन्होंने बताया कि दो बार पिथौरागढ़ और हल्द्वानी जाकर उन्होंने जांच भी कराई फिर भी कुछ ठीक नहीं हुआ। आंख की समस्या जस की तस बनी हुई है।
                          दादी कहती है - अब तो बुढ़ाने लगी हूं भुला, अब ज्यादा चलने और गाड़ी में सफर करने की हिम्मत भी नहीं बची, इलाज के लिए अब कितना भटकूंगी, मुस्कुराते हुए कहने लगी कि अब इन आंखों को ऐसी ही चलाऊंगी जब तक चलता है ठीक है।
                          मैं उस बीस मिनट के समय में उस हल्की रोशनी में सिर्फ दादी के साथ था, हमारे बातचीत के बीच किसी प्रकार का कोई व्यवधान नहीं था, दादी के बोले हुए एक-एक शब्द पर मेरी एकाग्रता बनी हुई थी। मैं उस बीस मिनट के अंधेरे में दादी से बात करते ठीक-ठीक कुमाऊँनी समझने लग गया था। एक बार को लगा कि अगर ऐसी स्थिति बार-बार आए तो किसी नयी भाषा को सीखने में कितनी आसानी होगी। और फिर लाइट आ गई, बीस मिनट कट चुके थे। और खाना खाने के लिए बुलावा आ चुका था।

~ Stories from Himnagri ~
 
 
 
-- 'फोटो में सिल्थिंग गांव का वो कमरा' --


Colors of Silthing


Step Farming in Silthing
 

~ राहुल ऊर्फ शिकारी ~

                                 राहुल अभी सात साल के हैं। दूसरी क्लास में पढ़ते हैं। मुनस्यारी में मेरे सबसे खास दोस्तों में से एक राहुल भी हैं। वे रोज मेरे पास पढ़ने आते हैं, दिन में दो बार मिलने आ ही जाते हैं। उन्हें मेरे कैमरे से बड़ा लगाव है। अब तो वो फोटोग्राफी करना भी लगभग सीख चुके हैं। राहुल के गांव का नाम वल्थी है,हां वल्थी, पहली बार ये नाम मैंने राहुल से ही सुना, पता नहीं पहाड़ी गांवों के इतने खूबसूरत नाम आखिर किसने रखे होंगे। राहुल शुरू से मुझे मामू बुलाते ...हैं, उन्होंने ये रिश्ता कैसे बना लिया मुझे नहीं मालूम, पर वो पहले दिन से मुझे मामू पुकारते आ रहे हैं।
                                 मुनस्यारी में राहुल को लगभग हर कोई शिकारी कहकर बुलाता है। एक बार मैंने खुद राहुल के पापा को ये कहते सुना- और मेरे शिकारी, कहां घूम रहा है। मामी चाची लगभग सब कोई राहुल को शिकारी ही बुलाते हैं। एक मैं ही हूं जिसने आजतक कभी उन्हें शिकारी कहकर नहीं बुलाया। वैसे राहुल को शिकारी बुलाने के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है।
                                साल भर पहले की बात है। राहुल ने एक उड़ती चिड़िया को पत्थर मारकर गिरा दिया, तब से राहुल का नाम शिकारी पड़ गया। अब पता नहीं राहुल ने निशाना लगाकर मारा था या ऐसे ही गलती से पत्थर फेंकते किसी उड़ती चिड़िया को लगा हो। लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों राहुल को लोगों के द्वारा ऐसे शिकारी पुकारा जाना मुझे थोड़ा भी ठीक नहीं लगता, इतना नागवार गुजरता कि कुछ उसके साथ खेलने वाले बच्चों को रोज समझाता कि इसे राहुल ही बोलना नहीं तो मार पड़ेगा समझे ना।
क्योंकि नाम एक ऐसी चीज है जो जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती। एक बार बचपन में कोई नाम कहीं से पड़ गया, चाहे वो कितना भी भद्दा, अटपटा सा क्यों न हो, उसे अगर जल्दी से रोकने का कोई उपक्रम नहीं हुआ तो फिर जीवनपर्यन्त उस नाम को ढोना पड़ता है। जब तक सोचने जानने की समझ विकसित होती है तब तक अमुक नाम हमारे व्यक्तित्व की पहचान बन चुका होता है।
 
~ Stories from Himnagri ~
 
Rahul and his snowball

~ Mitali ~