Thursday, 23 March 2017

Maa Nanda Devi Raj Jaat Yatra - A spiritiual Journey

                               मां नंदा को उनकी ससुराल भेजने की यात्रा है राजजात। मां नंदा को भगवान शिव की पत्नी माना जाता है और कैलाश (हिमालय) भगवान शिव का निवास। मान्यता है कि एक बार नंदा अपने मायके आई थीं। लेकिन किन्हीं कारणों से वह 12 वर्ष तक ससुराल नहीं जा सकीं। बाद में उन्हें आदर-सत्कार के साथ ससुराल भेजा गया। चमोली जिले में पट्टी चांदपुर और श्रीगुरु क्षेत्र को मां नंदा का मायका और बधाण क्षेत्र (नंदाक क्षेत्र) को उनकी ससुराल माना जाता है। एशिया की सबसे लंबी पैदल यात्रा और गढ़वाल-कुमाऊं की सांस्कृतिक विरासत श्रीनंदा राजजात अपने में कई रहस्य और रोमांच को संजोए है।

कैसे होगी यात्रा -

- 18 अगस्त से शुरू होकर 06 सितंबर, 14 तक चलेगी यात्रा,
- चमोली के नौटी से यात्रा उच्च हिमालयी क्षेत्र होमकुंड पहुंचती है,
- राजजात का समापन कार्यक्रम 07 सितंबर को नौटी में होगा,
- 20 दिन में बीस पड़ावों से होकर गुजरते हैं राजजात के यात्री,
- 280 किमी की यह यात्रा कई निर्जन पड़ावों से होकर गुजरती है,
- आमतौर पर हर 12 वर्ष पर होती है,
- इस यात्रा को हिमालयी महाकुंभ के नाम से भी जानते हैं,
- राजजात गढ़वाल-कुमाऊं के सांस्कृतिक मिलन का भी प्रतीक है,
- जगह-जगह से डोलियां आकर इस यात्रा में शामिल होती हैं।


























Thursday, 2 March 2017

~ दीपा और मानसी -3 ~

साल 2051,
दीपा और मानसी की 10th की परीक्षा हो चुकी है। आज दीपा और मानसी शहर को जा रहे हैं। मानसी तो पहले जा भी चुकी है। लेकिन दीपा के लिए सब कुछ नया है। दीपा शहर को अपनी आंखों से तराश रही है, उसके मन में अभी तक किसी भी प्रकार की हिचकिचाहट नहीं आई कि इतना बड़ा शहर, इतने सारे लोग, इतनी गाड़ियां वगैरह।
दीपा मानसी के कंधे पर हल्का मारती है और एक ट्रक की तरफ इशारा करते हुए कहती है, इसे देख कितना कचरा लिए जा रहा है, हेहे, यहां शहर में ट्रकें इसी काम में आती हैं क्या? हमारा तो पूरा गांव महीने भर में इतना कचरा इकट्ठा नहीं करता होगा।
मानसी के बाबा ने कहा - बेटा, शहर आकर लोगों की भूख बढ़ जाती है इनका पेट(माइंडसेट) बड़ा हो जाता है, इनकी जरूरतों की कोई एक निश्चित सीमा नहीं होती। इनके शौक एवं विलासिता मूल्य अथाह होते हैं। तब कहीं जाकर तो इतना कचरा इकट्ठा होता है। और इस पूरी प्रक्रिया में शहर के लगभग हर नागरिक की भागीदारी होती है।

मानसी - बाबा ऐसा न बोलिए आप,  इतना बड़ा शहर है, इतने जिम्मेदार लोग, अफसर वगैरह सब तो यहीं रहते हैं, इतने कचरे के लिए कोई एक सही जगह सुनिश्चित होगी, वहीं जाकर ये कचरा गिराते होंगे, इसका कुछ न कुछ प्रबंधन तो होता ही होगा।

मानसी के बाबा- हां क्यों नहीं। होता है, लेकिन कितने लोग समझेंगे। सबका कचरा ट्रकवाले तक पहुंचता कहां है, गलियों में बिखरा पड़ा रहता है, जहां कोई खाली जमीन दिखती है, वो कुछ ही दिनों में कचरे से पाट दिया जाता है, हालात ऐसी हो जाती है कि न तो वहां से गुजर सकते हैं, न ही उसे एक दिन में साफ किया जा सकता है। हालत ऐसी है फिर भी ट्रक वाले कचरा लोड करते परेशान से रहते हैं कि एक दिन में आखिर और कितना कचरा लोड करते रहें, वो परेशान सिर्फ काम को लेकर नहीं है, वे परेशान इसलिए भी रहते हैं कि आखिर ये कचरा थोड़ा कम क्यों नहीं हो जाता, वे लोगों की बढ़ती भूख और असीमित हसरतों से परेशान हैं।

दीपा - ठीक है बाबा। लेकिन न आप मानसी को यहां मत रखना। यहां रहकर कैसे पढ़ेगी। इसका भी दिमाग खराब हो जाएगा। आप ही देखो, ये देखो सामने इस चौराहे में कितनी धूल उड़ रही है फिर भी ये स्कूली बच्चे, नौजवान और ये गुजरते वृध्दजन हर कोई कितना खुश है, चेहरे देखिए इन सबके, मानो ये धूल इन सबके जीवन का हिस्सा बन चुका है।

मानसी के बाबा - बेटा हमारे गांव के आसपास के क्षेत्र में पढ़ाई की और कोई उचित व्यवस्था भी तो नहीं है। इस शहर के अलावा और जाएं भी तो कहां जाएं। आगे की पढ़ाई करनी है, तो अब ये सब धूल, प्रदूषण वगैरह को तो नजर अंदाज करना ही पड़ेगा।

थोड़ी ही देर में दीपा और मानसी की आटो एक बड़े नाले से होकर गुजरती है, नाली के पास एक ठेला है, वहीं आसपास बहुत से लोग नाश्ते के लिए रूके हैं, कुछ लोगों ने तो नाली किनारे अपनी कारें भी खड़ी कर रखी हैं, सब मजे से नाश्ता कर रहे हैं।

दीपा(मानसी को दिखाते हुए) - मानसी देख तो, ये लोग पागल हो गये हैं क्या, कैसे इतने गंदे जगह में खड़े होकर खा ले रहे हैं, वो भी इतने सारे लोग। दीपा धीरे से मानसी के कान में कहती है- तू मत रहना बहन यहां, देख न बाबा को मना बुझा के कोई और उपाय करने बोल न, मैं वहां अकेली गांव में रहकर तेरे बारे में सोच-सोचकर पागल हो जाऊंगी, तू यहां रहकर इन्हीं लोगों की तरह हो जाएगी, मुझे इस बात का डर हमेशा दीमक की तरह खाता रहेगा।

मानसी- री पगली! अभी 12th पास होने को पूरे दो साल बचे हैं। तू अभी से इतनी चिंता ना किया कर, शायद दो साल में कुछ बदल जाए, कुछ चमत्कार हो जाए।

दीपा- तू रहने दे। मुझे झूठे दिलासे ना दिया कर। ये इतने सालों से क्या बदल गया है, जो इन दो सालों कोई जादू हो जाएगा। जगह-जगह धूल उड़ रही है, नालियां बजबजा रहीं हैं, नजर खुली रखें तो हर सौ कदम में कचरे का एक ढेर है। और क्या पर्यावरण प्रदूषण की किताबें पढ़ेगें क्या, मैराथन करें क्या हम भी शहर के इन लोगों की तरह, ये देख हाथ निकाल आटो से बाहर, ये धूप से चमड़ी जल रही है, इतनी सी बात समझने के लिए क्या यहां शहर में रहकर पर्यावरण संरक्षण का कोर्स करेगी। तुझे जो करना है कर मानसी, अब न रोकूंगी, न ही इस बारे में अब कुछ कहूंगी।

मानसी - तू चाहती क्या है मैं क्या करूं। आगे पढ़ना भी तो जरूरी है। गांव में रहकर क्या होगा, चूल्हा-चौका संभालते ही दिन कट जाएंगे और फिर एक दिन शादी हो जाएगी। तू बोल न दीपा मेरे पास और क्या रास्ता है मैं आखिर करूं भी तो क्या करुं। ये हमारे महान पूर्वजों ने ये ऐसा शहर हमारे सामने खड़ा कर दिया है, हम बेबस हैं, अब जो भी यही है। खुद को इन सबसे अलग करेंगे तो कल को भूखों मरेंगे। बोल न दीपा तू चुप क्यों हो गई? बोल न मैं क्या करूं?

दीपा - सब बोल तो दिया मानसी, नाराज हो सकती हूं, तुझे रोक तो नहीं सकती न, हमारे साफ-सुथरे जंगलों में तेरे लिए कालेज तो नहीं खुलवा सकती न, तुझे जैसा ठीक लगे वो करना, खूब तरक्की करना और हां अब इस बारे में मत पूछना, क्योंकि मेरे पास बोलने को कुछ भी नहीं है।

आटो रूक चुकी है, मानसी की बुआ का घर आ चुका है।

क्रमशः .....

Wednesday, 1 March 2017

~ दीपा और मानसी -2 ~

दीपा - मानसी पता है दादा न कल हम सबको अपने कमरे में बिठा के अपने बचपन के बारे में बता रहे थे।
मानसी - अच्छा! क्या बोल रहे थे।

दीपा - वैसे बहुत लम्बी कहानी है, तू न मुझे बोलने देना।बीच में रोकना मत। नहीं तो भूल जाऊंगी।

मानसी - ठीक है बता तो सही पहले।

दीपा - दादा कहते हैं कि उनका बचपन गांव में बीता। उन्होंने बताया कि जब वे पहली बार 8th क्लास में शहर गये थे तो एक होटल में खाना खाने रूके, वहां एक लड़का हाथ में प्लास्टिक की थैली मुंह में पकड़ा चूस रहा था। दादा ने तुरंत अपने पापा को पूछा कि ये क्या है, तो उस दिन दादा को पता चला कि ये पानी का पाऊच होता है, पता है मानसी उस समय न एक पानी पाऊच सिर्फ एक रूपये का मिलता था।

दादा कहते हैं - मैं उस दिन रात भर सो नहीं पाया, बैचेन होता रहा, मुझे बचपन से यही लगता रहा कि मुझे पानी फ्री मिलना चाहिए, मतलब मैं एक जीव हूं, यानि मैंने एक जीवन धारण किया है तो मैं सांस लेता हूं और जिंदा रहता हूं, उसके बाद मेरी दूसरी बड़ी जरूरत पानी है। और मुझे ये लगता है कि एक इंसान होने के नाते मुझे मुफ्त में पानी मिलना चाहिए। ये मेरा न्यूनतम हक है।
पता है मानसी दादा जब ये सब बोल रहे थे, हम सब कोई ध्यान से कान लगा के सुन रहे थे, एकदम खो से गये थे।

मानसी - हां जैसे मैं खो गयी तेरी बातें सुनके।हेहे। आगे बता न।

दीपा - दादा कहते हैं कि फिर एक दिन उन्होंने पानी की बोतल भी बिकते देखी। जब उन्हें पहली बार पता चला कि पानी की भरी हुई बोतल दस रूपये की बिकती है। तो वे चौंक गये थे। वे अपने बाबा के पास आकर बोले कि ये इतना महंगा क्यों मिलता है, लोग क्यों बेच रहे हैं पानी वो भी इतना महंगा। फिर बाबा ने उन्हें जवाब दिया होगा कि पानी पहले की तरह जगह-जगह मिल नहीं पा रहा है, इसलिए पानी बिकना शुरू हुआ है। फिर दादा ने अपने

बाबा से कहा- हम तो फिर रोज मतलब सौ से दो सौ रुपए तक का पीने का पानी ऐसे ही फेंक लेते हैं। हैं न बाबा?

मानसी - उस समय सब कुछ कितना सस्ता था देख न। तेरे दादा बता रहे हैं कि सौ रुपए तक का पानी ऐसे ही फेंक देते थे, मतलब पानी की दस भरी हुई बोतल। यहां तो आजकल सौ रुपए में मात्र एक ग्लास पानी मिल रहा है। मुझसे तो अब रहा नहीं जाता।

दीपा - हां। मुझे भी उनकी बात सुनके लालच आ गया कि इतना सस्ता पानी पीते थे हमारे दादा लोग। पता है दादा बताते हैं कि उनके समय लगभग आधी नदियां साफ हुआ करती थी। सिर्फ आधी नदियों का पानी ही खराब था। पहाड़ में जितने भी नदी और नौले थे, लोग उसी का पानी पिया करते थे। दादा बताते हैं कि उनके पहाड़ी दोस्तों ने कभी पानी के लिए पैसा नहीं बहाया, उनकी पूरी जिंदगी नदियों, नौलों और झीलों के मीठे पानी से ही गुजरी थी। और तो और पहाड़ी लोग ज्यादा बीमार भी नहीं पड़ते थे। उस समय मतलब पहाड़ों में पानी इतना साफ था कि कोई उतना ध्यान न देता तो भी चलता लेकिन वे अपने आने वाले कल को लेकर हमेशा सचेत रहते। लेकिन मैदानों में तो नदियों का पानी मटमैला होने के बाद भी मैदानी इलाकों के लोग बेसुध से अपनी धुन में मस्त रहते थे।

मानसी - अब मुझे तुझ पर यकीन करने का मन नहीं कर रहा। काश दीपा हम लोग उनके जमाने में जन्म लिए होते। खूब मीठा पानी पीते। सुंदर नदियां देखते, झील देखते, नौले भी देखते। पानी से खेलते।

दीपा - हां और जब तू नदी किनारे किसी पत्थर पर बैठे रहती। मैं तुझ पर पानी छिड़कती। तथास्तु।

मानसी - क्यों घाव पर नमक करती है। आजकल तो पूजा में छिड़कने के लिए और चढ़ावा वगैरह के लिए दुकानों में जो पानी का पैकेट मिल रहा है वो भी कितना महंगा है।

दीपा - अब क्या करें। खरीदना तो पड़ता है। तुझे पता है हमारे दादा लोग के जमाने में एक बोरिंग करके मशीन हुआ करती, उसे हाथों से फेरना पड़ता था, और पानी निकलता था, दादीजी कह रहे थे कि उनका पूरा बचपन हाथ झोंककर बोरिंग का पानी पीकर ही गुजरा है। और तो और वे घंटों बांध और तालाबों में नहाया करते, लबालब पानी हुआ करता था और उतना ही साफ। बताते हैं कि उस जमाने के लड़के गहरे पानी में डुबकी लगाकर एक-दूसरे को छूने का खेल खेलते। आजकल तो हमारे जमाने के लोगों के लिए ये सब किसी सपने से कम नहीं है।

मानसी(हंसते हुए) - सपना ही आ जाए मुफ्त के पानी का, काफी है।

दीपा - तुझे न आएगा मुफ्त के पानी का कोई सपना। आजकल जो उड़ने वाले रोबोट बनने लगे हैं। अब उन्हीं के सपने आएंगे तुझे। वही ले जाएगा तुझे साफ-सुथरी नदियों का पानी दिखाने। हेहे।

मानसी - हां! मेरे बाबा बता रहे थे कि विदेशों में तो ऐसे प्रयोग भी होने लगे हैं। जिनके पास ज्यादा पैसा है वे जब ट्रैफिक में फंसते हैं तो किराए के रोबोट को एक फोन करके बुलाते हैं और फिर रोबोट तुरंत उन्हें उनके आफिस तक उठाकर ले जाता है।

दीपा(हंसते हुए) - हम कब ऐसे उड़ेगें मानसी।

मानसी - हम, हम तोता उड़, मैना उड़ खेलते रह जाएंगे। हेहे।

क्रमशः ....