Tuesday, 22 July 2025

आर्मी का तिलिस्म और हमारा भारतीय समाज -

आर्मी का तिलिस्म और हमारा भारतीय समाज -

कुछ दिन पहले रायपुर में कारगिल विजय दिवस का आयोजन हुआ तो उसमें आर्मी वालों के साथ मिलकर एक लंबी मोटरसाइकिल राइड हुई। इस सफ़र ने मुझे भारत के उस पहलू से रूबरू कराया जिसे बहुत समय से मैं चाहकर देख नहीं पा रहा था।

हमारी बाइक्स आर्मी के रायपुर स्थित कोसा हेडक्वार्टर से केसकाल स्थित टाटामारी तक गई और फिर वहीं से फिर दोपहर शाम तक रायपुर वापसी हुई। लगभग 400 किलोमीटर के इस सफ़र में जाते वक्त इतनी बारिश हुई की सबके रेनकोट भीग गए। आर्मी के जो ब्रिगेडियर और लेफ़्टीनेंट स्तर के अधिकारी जो बड़ी सीसी की गाड़ी में आगे लीड कर रहे थे, वे भी तेज बारिश में धीरे चल रहे थे। जबकि हम तो ठहरे देसी हरफनमौला बाइकर, मौत को टक से छूकर आने वाले लोग, हमारी 250 सीसी ने पानी की तेज बौछार को चीरते हुए उनको पछाड़ दिया। वो कहते हैं ना - “ Its not about the bike, its all about the biker how he rides. “

रायपुर से शुरू हुए हमारे इस सफ़र में 2-3 आर्मी की गाड़ियां भी साथ चल रही थी। जिसमें अधिकारी स्तर के लोगों के परिवारजन थे और उनकी सुरक्षा के लिए कुछ एक सिपाही। शेष भारत के आर्मी अफ़सर की तरह ये भी अंग्रेज़ीदाँ ही रहे, उनका अपना बातचीत करने का अलग तौर तरीका, मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि मैं ये कौन से नए भारत में आ गया हूँ। इतना “ sense of alienation “ कभी आईएएस आईपीएस स्तर के लोगों के बीच नहीं हुआ। खैर उसके अपने कारण हैं जिस पर विस्तार से बात करने की आवश्यकता है।

सेना में दो तरह के लोग जाते हैं। पहले वे जिसमें हमेशा से सिपाही स्तर पर भारत का आम खेती-किसानी परिवार का ग़रीब, निम्न और मध्यमवर्गीय तबका जाता है। जिसकी जुबान में अंग्रेज़ी ना के बराबर होती है। यह तबका गाँव घर में पला बढ़ा होता है, ग्राउंड जीरो के भारतीय समाज के हर एक पहलू से रूबरू होता है। ये तबका खूब हाड़तोड़ मेहनत कर सिपाही स्तर की नौकरी पाता है, कम अधिक 12वीं पास कर शारीरिक मेहनत कर यह उस पद को हासिल करता है। अगर भावुकता और देशभक्ति को किनारे कर देखा जाए तो ये वाली एक बड़ी आबादी इसलिए भी आर्मी में जाती है क्यूंकि ख़ुद के और परिवार के लिए आजीवन एक आर्थिक सुरक्षा की गारंटी मिल जाती है। भारत में किसी भी और नौकरी में इस तरह से सुरक्षा नहीं मिलती है। वो बात अलग है कि देशप्रेम के नाम पर जितना शोषण ( यौन शोषण आदि भी ) इन सिपाही स्तर के लोगों का होता है उतना पुलिस में भी नहीं होता है। कई लोगों का जीवन तो किसी अधिकारी के चपरासी बनकर ही निकल जाता है, कई कैंटोनमेंट एरिया में यही सेवा देते हैं, लेकिन देशप्रेम की टोह में सब कुछ छिप जाता है। इस वजह से कई बार आत्महत्या की ख़बरें आती है, लेकिन इस मजबूत शोषणकारी व्यवस्था पर कोई आंच ना आए इसलिए ऐसी खबरें दबा दी जाती है। और सबसे मजे की बात; युद्ध हो, आपातकाल हो, कोई विपदा हो, आपदा हो, हर जगह यही सिपाही तबका ही जाकर लड़ता मरता है।

इसके ठीक उलट सेना में जाने वाला दूसरा तबका ऑफिसर रैंक वालों का है। इस श्रेणी में जाने के लिए एनडीए और सीडीएस स्तर की जो परीक्षा होती है उन परीक्षाओं का पैटर्न पूरा का पूरा अंग्रेजी वाला होता है और उसकी छटनी से लेकर जितने स्तर के उसमें पेपर होते हैं वह इस तरीके से डिज़ाइन किया गया है कि भारत का आम निम्न मध्यवर्गीय किसान कमेरे परिवार का व्यक्ति उस रास्ते आगे जा ही नहीं सकता है। दूसरा एक कारण भाषा और उस स्तर के कॉन्फिडेंस का भी है। ग्रुप डिस्कशन में ही आधे कट जाते हैं, क्यूंकि परिवार में और आसपास कभी वैसी फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने का माहौल नहीं मिलता है। कोई इक्का दुक्का अपवाद स्वरूप अपनी ख़ुद की मेहनत से आगे चला भी जाता है तो आजीवन alienated महसूस करता है, और तो और उसे रैंक में बहुत आगे नहीं जाने दिया जाता है। जबकि वहीं एक सभ्रांत अधिकारी स्तर के आर्मी परिवार में पले बढ़े व्यक्ति के लिए वहाँ तक पहुंचना बहुत आसान होता है। इस कारण से आज भी आर्मी में ऑफिसर रैंक में एक ख़ास तरह के लोगों का दबदबा आजादी के बाद से कायम है और वहाँ किसी और को घुसने की इजाज़त नहीं है। ये एक ऐसा नेक्सस है जिस पर ना कभी मीडिया सवाल कर पाता है ना कोई नेता इन पर सवाल खड़ा करता है, क्यूँकि देशभक्ति की आड़ में सीधे आपको ग़लत ठहरा दिया जाएगा, आपको देशद्रोही भी कहा जा सकता है।

इतना भारत घूमते हुए यह एक चीज़ तो है कि people experience से बहुत कुछ समझ आ जाता है। हमारे साथ जो आर्मी वाले गए और उनके परिवार वाले थे, उनके हावभाव और बातचीत से ऐसा लगा जैसे वे एक अलग ही दुनिया के हैं और हो भी क्यों ना, क्यूंकि वे मुख्यधारा के भारत से इतना अलग-थलग जो रहते हैं। एक तो ऑफिसर रैंक होने की वजह से इफ़रात सुविधाएं नौकर चाकर, ऊपर से दैनिक जरूरतों से लेकर बुनियादी सुविधाओं में भी आर्मी कैंटीन से लेकर स्कूल आदि सबमें भयानक छूट है और गुणवत्ता वाली चीज़ मिलती रहती है। ना ये लोग कभी जीवन में ख़राब फल सब्ज़ी या मिलावट वाला दूध देखते हैं, ना कभी मुख्यधारा के समाज वालों की तरह चोरी झगड़ा बहस मोलभाव नोकझोंक ट्रैफिक जाम ये सब झेलते हैं। ना ही स्कूल फीस और बच्चों के बजट को लेकर कभी घर में तनाव का माहौल बनता है। कार बाइक खरीदनी है वहाँ भी आर्मी कैंटीन में भरपूर छूट है। स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर कभी परेशान नहीं होना पड़ता, इनके अपने अलग सर्वसुविधायुक्त अस्पताल होते हैं। अलग-अलग स्पोर्ट्स खेलने हैं तो विशाल ग्राउंड होते हैं और साथ में सारी सुविधाएं आपको उपलब्ध हैं। यानी मुख्यधारा का भारतीय समाज जिन विद्रूपताओं को झेल रहा होता है, उसकी छत्रछाया से ये आजीवन कोसों दूर रहते हैं। इनको तो शराब भी अलग क्वालिटी की मुहैया करायी जाती है। इन सब कारणों की वजह से मैंने देखा कि जो ऑफिसर रैंक के आर्मी वाले और उनके परिवार जन थे, उनके चेहरे और हावभाव में एक अलग ही किस्म की शालीनता, विनम्रता और व्यक्तित्व का अपना एक अलग स्तर था, लेकिन उस कसी हुई पर्सनालिटी के पीछे एक गदहापन भी साफ़ दिख रहा था, जिसे सिर्फ़ मैं ही देख पा रहा था। आसपास क्या चल रहा है इसके बारे में पता ही नहीं है, इस वजह से मुख्यधारा के भारत के लोगों से कैसे डायलॉग स्थापित करना है इसकी उन्हें ढेला भर समझ नहीं थी क्यूंकि उन्होंने अपना एक सुरक्षित कोकून बनाया हुआ है जहाँ उनको जीने लायक सारी सुविधाएं मिलती है, इसके बाहर कौन सा गृहयुद्ध चल रहा है, इससे वे पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। इसलिए रिटायरमेंट के बाद इनका हाल जीडी बख्शी जैसे दिवालिये की तरह हो जाता है। इसका उपाय यही है कि आर्मी अफसरों को एक साल भारत के किसी ग्रामीण इलाके में छोड़ देना चाहिए ताकि भारत के समाज की असल हक़ीक़त समझ सकें।

देखने में आता है कि ये अमूमन सामान्य व्यवहार में भारत के आम लोगों को सिविलियन की संज्ञा देते हैं, मानो वे कोई नवाब हों और आम लोग उनके नौकर। एक किसी अपराधी की तरह भारत के आम लोगों को जिन्हें भारत का नागरिक कहा जाना चाहिए उनको ये पूरी बेशर्मी के साथ सिविलियन कहते हैं और अपने आपको मुख्यधारा के समाज से पृथक करते हैं।

भारत में हर प्रोफेशन का आंकलन होता है। चाहे वह न्यायपालिका से जुड़े लोग हों या व्यस्थापिका के लोग हो। वो बात अलग है कि ये आर्मी से बड़े वाले धूर्त होते हैं, इनके उपद्रव मूल्य कहीं और बड़े हैं लेकिन बीच-बीच में इन पर सवाल खड़े किए जाते रहते हैं इसलिए इनका तापमान नियंत्रण में रहता है। एक एसडीएम स्तर से लेकर आईएएस आईपीएस स्तर का व्यक्ति भी मजबूरी में आए दिन भारत के आम समाज से रूबरू होता रहता है, उन्हीं के बीच काम करता है तो कभी-कभी वह सारा कुछ वो भी झेल लेता है जो आम आदमी झेलता है इसलिए आम समाज के लिए थोड़ी सी समझ और थोड़ी सी विनम्रता आ जाती है। वरना इनसे बड़ा बदमाश तो कोई नहीं। इसके बाद न्यायपालिका पर आते हैं जिसे गांधी बाबा ने ख़ुद वकील रहते ही सीधे धंधा कह दिया था। न्यायपालिका से जुड़े लोग लोग भी आर्मी की तरह बहुत रिज़र्व रहते हैं, सारी सुविधाएं मिलती हैं, आलीशान जगहों पर इनकी जमीनें इनके रिसॉर्ट्स और ऐशगाह होते हैं। लेकिन फिर भी आए दिन मुकदमे के सहारे ही सही कुछ हद तक भारत के आम समाज के लोगों के दुख दर्द की जानकारी रखते हैं, उसके निवारण के लिए कभी आजीवन धेला भर भी काम नहीं कर पाते वो बात अलग है। उसके बाद आते हैं सुपर ह्यूमन यानी आर्मी के ऑफिसर रैंक के लोग, सबसे ज़्यादा सुरक्षित, रिज़र्व और मुख्यधारा के समाज से कटे हुए लोग, जिनका कभी आंकलन नहीं होता है। जहाँ एक रैंक नीचे वाले अधिकारी को भी अपने से ऊपर के अधिकारी से सीधे बात कर लेने का स्पेस नहीं होता है। सिपाही स्तर के लोगों का हाल तो बस पूछिए ही मत। वे केवल ऑर्डर बजाते हैं। आंतरिक सुरक्षा के नाम पर सब कुछ छिप जाता है। मतलब इतना सामंती चरित्र आपको पूरी व्यवस्था में कहीं और नहीं मिलने वाला है। और मैंने आजतक कभी किसी को हमारे देश समाज के इस अनछुए पहलू पर बात करते नहीं देखा है, अब कौन अपनी जान जोखिम में डाले।

वैसे बताता चलूँ की भारत पूरे विश्व में इकलौता ऐसा देश है जो डिफेंस को दी जाने वाली सुविधाओं में सबसे ज़्यादा खर्च करता है। गांधी अगर एक दशक और ज़िंदा रह जाते तो अपनी किताब हिन्द स्वराज में जो कड़वी बातें उन्होंने वकील और डॉक्टरों के लिए लिखी है, उससे कहीं अधिक कड़वा सेना के उपद्रव मूल्यों पर लिख जाते।

लोग कहते हैं कि भारत में लोकतंत्र है, मैं पूछता हूँ कौन से वाले भारत में लोकतंत्र है ????

As they say -

"काफर हुनु भन्दा मर्नु निको”

“I'll rather die than be a coward...”

जय हिन्द 🙌🏻

Saturday, 5 July 2025

बस्तर जो मैंने देखा : 14 साल पहले और अब का बस्तर



बस्तर का जब भी नाम ज़हन में आता है तो सबसे पहले लोगों को नक्सली/माओवादी वाला एंगल दिखता है। और हो भी क्यों ना, ये आज भी प्रासंगिक जो है। शायद बस्तर की नियति में यही होना लिखा था तभी नक्सलियों का अपना अस्तित्व आज भी बना हुआ है। पर्यटन ने पिछले कुछ वर्षों से बस्तर को मुख्यधारा से जोड़ने में महती भूमिका निभायी है, इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हुआ है, होटल रेस्तराँ बने हैं, गाँव-गाँव तक सड़कें पहुँच गई हैं, लोग बड़ी संख्या में घूमने भी पहुँच रहे हैं, लेकिन नक्सली वाले एंगल की वजह से आज भी एक बड़ी आबादी यहाँ हल्के पाँव से ही कदम रखती है और बहुत से लोग बस्तर घूमने नहीं आते हैं जो कि एक तरह से देखें तो ठीक भी है। वरना बस्तर का हाल भी मनाली केदारनाथ कान्हा किसली जैसा होने में देर नहीं लगती, प्रकृति की इतनी नेमत तो बरसी ही है यहाँ। विकास चहुँओर पहुँच रहा है लेकिन बस्तर के आम आदिवासियों की जीवनशैली को उनके लोक व्यवहार के तरीकों को उस हद तक प्रभावित नहीं किया है, या शायद ये बस्तर के आम लोगों की जीवटता है कि वे विकास की चकाचौंध से अप्रभावित आज भी मदमस्त अपनी खुमारी में रहते हैं।


सन 2011 में कॉलेज के दिनों में स्कूल के दोस्तों के साथ बस्तर जाना हुआ था। तब बस्तर संभाग में कुल पाँच जिले हुआ करते थे , सुकमा और कोंडागांव ये जिले अस्तित्व में भी नहीं आए थे। जून के शुरुआती महीने में भीषण गर्मी झेलते हम जब जगदलपुर पहुंचे तो दोपहर को सीधे चित्रकोट वॉटरफॉल में ही गाड़ी रोकी। पानी बहुत कम था, और एकदम साफ़ पानी था, हम सभी ने नीचे उतरकर नहाने का मन बना लिया, घंटों उस पानी में नहाने के बाद भयानक भूख लगी थी। भूख शांत करने के लिए आसपास देखा तो खाने के लिए कुछ भी नहीं, एक ठेला तक नहीं। चित्रकोट के पास जो रिसोर्ट बना हुआ है, वह तब से अस्तित्व में था, अभी थोड़ा और बड़ा हो गया है। वॉटरफॉल से आगे एक किलोमीटर निकले तो वहीं एक झोपड़ीनुमा होटल में रोटी सब्जी मिल गई। भीषण गर्मी में पसीने से भीगते हुए हमने खाना खाया और फिर शाम तक वापस जगदलपुर चले गए।


जगदलपुर को चौराहों का शहर कहा जाता है। छोटा सा शहर है और बहुत से चौराहे हैं, शाम को घूमने निकले तो कुछ खास मिला नहीं, तब एक बिनाका नाम का एक छोटा सा मॉल खुल रहा था जो शायद आज की तारीख में अस्तित्व में नहीं है। बिनाका नाम का यह छोटा सा मॉल तब बस्तर के लोगों के लिए बड़ी चीज़ थी, तभी सिर्फ मॉल को देखने बहुत से लोग आए हुए थे, उन लोगों में हम भी थे। फिर वहाँ से हम रात के खाने की खोज में निकल गए, तब गूगल मैप उतना विकसित नहीं हुआ था कि खोजते ही हमें होटल मिल जाये, और तो और तब स्मार्टफोन भी नहीं आया था। नोकिया के symbian मल्टीमीडिया फ़ोन ही चल रहे थे और वह भी दस दोस्तों के ग्रुप में एक दो लोगों के पास ही हुआ करता था। तब कीपैड फ़ोन के जमाने में वो 6-7 हज़ार में मिलने वाला मल्टीमीडिया फ़ोन भी एक लक्ज़री हुआ करती थी। तो होटल खोजने में हमें बड़ी मशक्कत हुई, बहुत ज़्यादा विकल्प नहीं थे, एक बिनाका नाम का ही बढ़िया सा रेस्तरां था वहीं जाकर हमने रात का खाना खाया। जगदलपुर के चौराहे वाले इलाक़े में ही हमने 350 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से हम लोगों के लिए दो कमरे ले लिए थे।


दिन भर सफ़र और नहाने की थकान मिटाने के बाद अगले दिन सुबह हम तीरथगढ़ वॉटरफॉल घूमने गए। आज सुबह से झमाझम बारिश हो रही थी। मौसम एकदम बढ़िया हो गया था। ये बस्तर की एक खूबी है, यहाँ आज भी weather.com आपको धोखे में डाल देगा। यहाँ कभी भी बारिश हो जाती है। तीरथगढ़ पहुँचे तो वहाँ भी कुछ ऐसा ही था जैसा तीरथगढ़ में था, कोई पार्किंग नहीं थी, केवल एक छोटा सा ठेला बना हुआ था जहाँ केवल चिप्स बिस्किट गुटखा इत्यादि थे। सीढ़ियों से उतरते जब तीरथगढ़ पहुंचे तो वहाँ कोई भी नहीं था, सिर्फ़ हम ही लोग थे। कुछ देर वहाँ फोटो लेने के बाद वापस कांगेर घाटी नेशनल पार्क के भीतर और घूमने गए। यहीं स्टैलेगटाइट और स्टैलेगमाइट चट्टानों की श्रृंखला देखने कुटुमसर गुफा चले गए। घुप्प अंधेरे में टार्च मारते हुए गाइड हमें चट्टानों की अलग-अलग कलाकृति दिखा रहा था, लेकिन इन सब के बीच बारिश और उमस की वजह से गुफा के भीतर घुटन सी होने लगी थी और फिर कुछ देर बाद हम वापस आ गए।


14 साल बाद अभी कुछ दिन पहले फिर से बस्तर जाना हुआ। इस दरम्यान ना जाने कितनी बार दोस्तों ने ज़िद किया लेकिन मैं हमेशा जाने से परहेज करता रहा, उसके अपने व्यक्तिगत कारण थे। लेकिन इस बार बिना किसी को बताए चुपके से बाइक में जाने का प्रोग्राम बन गया। आज सड़कें पहले से कहीं अधिक सुव्यवस्थित हैं। जिन भी अंदरूनी गांव वाले रास्ते में जाना हुआ, हर तरफ़ पक्की सड़क बन गई है। अब रुकने के लिए होटल के बहुत से विकल्प हैं, खासकर कोंडागांव और जगदलपुर में ढेरों विकल्प आपके पास हैं, रेस्तरां और कैफ़े की एक अच्छी खासी खेप तैयार हो गई है। फिर भी, होटल और रेस्तरां की बात करें तो यहाँ अभी भी बहुत स्कोप है, नवाचार करे तो कोई भी आराम से आगे जा सकता है। क्यूंकि आगे जाके बस्तर में टूरिज्म कम नहीं होने वाला है।


दोपहर को रायपुर से निकलते शाम तक जगदलपुर पहुंच गया था। कांकेर से ही आर्मी की टुकड़ियाँ रास्ते में एक अस्थायी टेंटनुमा झोपड़ी में दिखने लग गई थी, कोंडागांव जगदलपुर शहर के भीतर भी आर्मी की कुछ एक टुकड़ियाँ गस्त लगाती हुई दिखी, ये सब मेरे लिए बिल्कुल नया था। ये दृश्य आज से 14 साल पहले इतना आम नहीं था जबकि तब नक्सलियों का अपना अस्तित्व चरम पर था।


रात आराम करके सुबह ही चित्रकूट वॉटरफॉल देखने चला गया। रास्ते भर खूब सारे घर बन गए हैं, छोटे मझौले होटल रेस्तराँ खुल गए हैं, सड़क पहले से थोड़ी चौड़ी हो गई है। पर्यटन वाले बोर्ड लगे हुए हैं जो पहले नहीं थे। वॉटरफॉल के पास जैसे ही पहुंचा तो देखा कि अब पार्किंग की व्यवस्था है, आसपास खूब सारी दुकानें हैं जहाँ बांस से बनी टोकरी की-चैन, पूजा के लिए धूप और बस्तर की बियर कही जाने वाली सल्फ़ी पानी की बोतलों में भरी हुई बिक रही है। वॉटरफॉल के ठीक पास में एक कोई मंदिर भी बन गया है जिसे देखकर बहुत अधिक आश्चर्य नहीं हुआ, जब बस्तर जैसे आदिवासी अंचल में जो सदियों से प्रकृति पूजा करता आया है वहाँ जब घनघोर जंगल के बीच गणेश का प्रवेश कराया जा सकता है और जबरन ढोलकल गणेश नामक एक टूरिस्ट स्पॉट बनाया जा सकता है तो यह मंदिर बनाना तो बहुत ही सामान्य घटना है।


वॉटरफॉल के पास अब लोहे की जाली लगी हुई है जिसके आगे अब लोग नहीं जा सकते हैं, पहले यह नहीं हुआ करता था। लोगों के पास तब स्मार्टफ़ोन ही नहीं था तो सेल्फी वाला पागलपन भी नहीं था। इसी पागलपन से लोगों की रक्षा करने के लिए एक दो आर्मी वाले तैनात हैं, जो हमेशा वॉटरफॉल के पास ही चहलकदमी करते रहते हैं। सुंदरता और साज सज्जा के नाम पर बाकी टूरिस्ट स्पॉट में जिस तरह की कृत्रिमता से जड़ित इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया जाता है, वैसा यहाँ उस हद तक नहीं है अभी, ख़ुशी हुई कि बस्तर के अपने प्रतीकों का ख्याल रखते हुए एस्थेटिक्स पर भरपूर ध्यान दिया गया है।


यहाँ से आगे बारसूर वाले रास्ते में स्थित मेन्द्रीघूमर वॉटरफॉल देखने चला गया। इस रास्ते और इस वॉटरफॉल के भूगोल को देखकर मेघालय के वॉटरफॉल याद आ गए। वहाँ भी ऐसे ही पठारी रास्ते में नीचे की ओर खूब सारे वॉटरफॉल हैं। मेन्द्रीघूमर मैं पहली बार आया था, यहाँ की खूबसूरती देखते ही बन रही थी, तीन ओर आपके पैरों के नीचे घने जंगलों का नजारा और जंगलों से उठकर आती तेज शुद्ध हवा, उसी के एक किनारे में सीधी रेखा में गिरता वॉटरफॉल। आप घंटों आराम से बैठकर यहाँ की शुद्ध हवा ले सकते हैं, आपको बोरियत नहीं होगी, कोई भीड़ नहीं कोई व्यवधान नहीं, एक अलग किस्म का सुकून है यहाँ जो बस्तर के बाक़ी मेनस्ट्रीम जगहों में आपको नहीं मिलने वाला है। यहाँ गाँव की अपनी पर्यटन समिति बनी हुई है जो इस पर्यटन स्थल का रखरखाव भी करती है, यहाँ पार्किंग का 20 रुपये लिया गया। पूर्वोत्तर में यह व्यवस्था काफ़ी पहले से है। यहाँ भी स्थानीय लोगों को इन तरीकों से पर्यटन से जोड़ कर रोजगार मुहैया कराया जा रहा है यह देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा।


यहाँ से अब मिचनार के जंगल वाले पहाड़ी रास्तों से होते हुए कांगेर घाटी नेशनल पार्क की ओर गया। एक दूसरा रास्ते जगदलपुर के पास से होते हुए जाता है जो दूरी के लिहाज से ज़्यादा मुफ़ीद है लेकिन चित्रकोट वॉटरफॉल घूमने के बाद इसी मिचनार हिल वाले रास्ते से जाना चाहिए क्यूंकि यहाँ की पहाड़ी से जो नीचे का नजारा दिखता है वह ख़ासकर अभी मानसून के समय में देखने लायक होता है। इस रास्ते गाँव-गाँव होते हुए तीरथगढ़ वॉटरफॉल की ओर गया। गाँव की पर्यटन समिति यहाँ भी है, पार्किंग का 20 रुपये और साथ में वॉटरफॉल जाने की टिकट का भी 50 रुपये अब आपको देना होता है। चित्रकोट वॉटरफॉल में दोनों चीज़ें मुफ्त है। चित्रकोट की तरह यहाँ भी उसी तर्ज में मार्केट सजा हुआ है। बारिश लगातार हो रही थी इसलिए यहाँ का पानी भी चित्रकोट की तरह मटमैला दूधिया रंग लिए हुए था।


वापसी में केसकाल के पास टाटामारी नाम का एक व्यू पॉइंट है, वहाँ चला गया। बड़ी सुकून वाली जगह हुई ये भी। व्यू पॉइंट के पास ही रुकने के लिए कुछ कमरे भी बने हुए हैं, जिनमें व्यू के लिए बढ़िया ग्लास लगा हुआ है, एक दिन यहाँ अलग से रुकने लायक जगह लगी ये। यहाँ महिला समूह द्वारा संचालित कैफ़े में मिलेट पकौड़े और मिलेट से बने चीला रोटी का स्वाद याद रहेगा। यहाँ इस कैफ़े में घंटों रुकना हो गया क्यूंकि तेज़ बारिश होने लगी थी। फिर यहाँ से शाम रात तक रायपुर पहुँच गया।


इस दौरान जगदलपुर में एक दिन और अगला दिन कोंडागांव में रुकना हुआ। अगर कोई अपनी सुविधा से आ रहा है तो पहला दिन तो मुझे कोंडागांव में रुकना ज़्यादा उचित लगा, कोंडागांव जगदलपुर से अपेक्षाकृत सस्ता भी है और सारी सुविधाएं भी हैं। और यहीं से सारे मेनस्ट्रीम टूरिस्ट स्पॉट पास में ही हैं। यहीं से सीधे अगली सुबह आप चित्रकोट मेन्द्रीघूमर और तीरथगढ़ तीनों वॉटरफॉल शाम तक आराम से घूम सकते हैं और शाम को जगदलपुर में होटल ले सकते हैं। इन दो दिनों में ही बहुत से अलग-अलग कैफ़े रेस्तराँ में जाना हुआ, मैंने यह देखा कि एक खास तरह की परवलय आकार की पीली रोशनी वाली लाइट बस्तर अंचल के सारे जिलों में उनके कैफ़े में, रेस्तराँ में देखने को मिली। ये एकरूपता देखकर अच्छा भी लगा कि चलिए कुछ तो यहाँ की अपनी स्थानिकता की एक अलग पहचान बनायी हुई है सबने।


अगर शेष भारत की बात कहूँ तो जुलाई-अगस्त-सितंबर ये पूरे मानसून का समय बस्तर स्वर्ग हुआ, इस सीजन में घूमने के लिए बस्तर पूरे देश में सबसे बेहतरीन विकल्पों में से एक है। इतने सारे वॉटरफॉल हैं कि आप घूमते-घूमते थक जाएँगे और मजे की बात की यहाँ पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह बाढ़ और भू-स्खलन की समस्या भी नहीं है।


इस बार के सफ़र के दौरान मैंने देखा कि विकास का पहिया बड़े आहिस्ते से सामंजस्य बनाते हुए बस्तर पहुँच रहा है। इस बीच बस्तर का आम आदमी बिल्कुल नहीं बदला है, प्लांट स्थापित किए जा रहे हैं, आर्मी के नए कैम्प बन रहे हैं, पहाड़ खोदकर रेल पहुंचाया जा रहा है, शहरों का पेट पालने के लिए दण्डकारण्य के जंगलों से प्राकृतिक संसाधन खोदकर लाया जा रहा है, विकास की ये तमाम आँधियों के आने के बावजूद बस्तर के आम लोगों के व्यवहार में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है जो कि सुखद है। इतना बड़ा दिल बस्तर वालों का ही हो सकता है, तभी तो इसने नक्सलियों तक की हिंसा क्रूरता अमानवीयता को पचा लिया, विकास की आंधी उस गति से यहाँ नहीं पहुँची है जितने की मैंने उम्मीद की थी, इसका श्रेय भी कुछ हद तक माओवाद को ही जाता है। बहरहाल, बस्तर विकास के रास्ते धीरे से ही करवट ले, इसी में इसकी भलाई है।