Friday, 8 March 2024

बचपन की ख्वाहिशें

मिट गयी बचपन की वो सारी ख्वाहिशें,
जब बड़ा होकर कितनों से मुझे लेना था बदला।
कितनों के गालों पर रसीद करने थे थप्पड़,
पत्थर से कितनों के फोड़ने थे सिर,
और कितनों के गले पर चलाना था उस्तरा।
जब थी बदले की भावना जोरों पर,
तब न मेरे हिस्से थी उम्र, न बाजुओं में वैसी ताकत।
अगर उस समय होती आधी भी ताकत,
तो आधे से कर देता पूरा हिसाब,
उस सर झुका कर रखने वाले नाई का,
लाठी से पिटने वाले उस अध्यापक का,
सुई लगाने वाले उस हैवान डाॅक्टर का,
बड़े होने का गुमान पालने वाले पड़ोसियों का,
और ऐसे तमाम नासपिटों का,
जिन्होंने बार-बार मुझे मेरे छोटे होने का अहसास कराया। 

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