हर चीज़ को इवेंट और ट्रेंडसेटर के रूप में तब्दील करने के परिणाम भयावह ही होते हैं। और यह सिर्फ़ कुंभ जैसे मेगा इवेंट पर लागू नहीं है।
पिछले 4-5 सालों में मुझे अधिकतर लोगों ने घूमने फिरने वाले मामलों का ज्ञाता समझकर सबसे ज़्यादा एक ही सवाल पूछा कि क्या मैं केदारनाथ गया हूँ? उससे पहले लद्दाख शिमला मनाली का पूछा करते थे। इन सब के पीछे का अपना मनोविज्ञान है। असल में इंसान जो पहली नजर में देखता है, उसका पूर्वग्रह उतने तक ही उसको सीमित कर देता है। उसके आगे भी जहां है यह वो सोच नहीं पाता है।
उदाहरण के लिए 3 इडियट्स जैसी फिल्मों ने लद्दाख का भूसा बनाया, हर किसी को मोटरसाइकिल से लद्दाख जाने का भूत सवार हो गया। ये जवानी है दीवानी फ़िल्म ने हर नए नवेले शादी शुदा जोड़े को मनाली तक पहुँचाकर ही दम लिया। इसी तरह केदारनाथ फ़िल्म ने एक अलग ही विचित्र किस्म के भक्त पैदा किए जिन्हें ख़ुद भी नहीं पता कि वे क्यों ही केदारनाथ जाना चाहते हैं। मैं इनमें से मनाली के अलावा कहीं नहीं गया हूँ, मनाली भी बस गलती से बर्फबारी के नाम से चला गया था, वरना वहाँ भी ना जाता। इन जगहों की आत्मा को मार दिया गया है।
कुम्भ में भी यह हुआ, पागलपन की हद तक जाकर प्रचार किया गया और उसमें भी संख्या बल और सुविधाओं का भोंडा शक्ति प्रदर्शन किया गया। बस लोग बड़ी संख्या में पहुँच गए और हज़ारों की संख्या में भगदड़ में मारे गए। इसमें आप कहीं से भी लोगों को दोष नहीं दे सकते हैं, आप जैसा माहौल बनायेंगे, जो चीज़ें आप परोसेंगे, लोग उसी का उपभोग करेंगे। अगर इसमें कोई दोषी है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रशासन है।
आजकल ये अतिरेक हर जगह हो रहा है। इस कारण से भी बहुत से सुलझे हुए लोग अब घूमना बंद करने लगे हैं। इस वजह से मैं भी भारत घूमकर आने के बाद 1-2 साल कहीं भी नहीं गया, शांत बैठा रहा, इच्छा ही नहीं हुई। अभी पूर्वोतर से आने के बाद भी पिछले 1 साल से कहीं भी नहीं गया हूँ। दोस्त लोग भी अब पूछ-पूछकर थक चुके हैं, अब उन्होंने भी घूमने जाने के लिए पूछना छोड़ दिया है। अभी जैसा समय चल रहा है उसमे तो कहीं ना घूमने में ही सच्चा सुख है। ज़्यादा बैचैनी हो तो दोस्तों से मिलिए, फ़िल्म देख आइए, घर पास के नदी तालाब जंगल झील झरनों आदि में ही सुख ढूँढने की कोशिश कर लीजिए, वरना बाजार आपको ऐसे ही इधर से उधर उठा-उठा के पटकता ही रहेगा।
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