Sunday, 25 June 2023

डेवलपमेंट सेक्टर की नंगी हकीकत -

डेवलपमेंट सेक्टर यानि समाज सेवा। इसमें आप छोटा बड़ा एनजीओ चलाने वाले, बिस्कुट बांटने वाले से लेकर सेमिनार कराने वाले सबको जोड़ लीजिए। जो लोग जितने अधिक अपने व्यक्तिगत जीवन में असामाजिक होते हैं, वे उतने ही बड़े सामाजिक कार्यकर्ता होते हैं। अमूमन इस क्षेत्र के लोगों के प्रति भारत के आम लोगों के मन में बहुत अधिक सहानुभूति रहती है और यह प्रथम दृष्टया स्वाभाविक भी है क्योंकि जमीन में यही जाकर अपना चेहरा दिखाते हैं, काम करते हैं। चूंकि आम आदमी सीधा सपाट जीवन जी रहा होता है, उसी में ही तमाम तरह के दायित्व, कर्तव्य, जिम्मेदारियां एवं अनेक तरह की सामाजिकताएं निभा रहा होता है, और जब वह इसी सब में फंसा होता है तो उसे यह अलग से ये सामाजिक कार्य का दिखावा करने वाले लोग बहुत ही अधिक विशिष्ट मालूम होते हैं, जबकि कायदे से देखा जाए तो ये भी मासिक तनख्वाह पर होते हैं और विशुध्द नौकरी काट रहे होते हैं। 

किसी भी व्यवस्था के लिए या सरकार के लिए यह संभव नहीं हो पाता कि वह अपनी योजनाओं या उद्देश्यों को समाज के हर एक व्यक्ति तक पहुंचा दे। कई बार बहुत कुछ छूट ही जाता है, इसी गैप को भरने के लिए, इसी वाल्व को जोड़ने के लिए समाजसेवी संस्थाओं की जरूरत सरकारों को पड़ती रहती है और वे इनका समय-समय पर इस्तेमाल करते रहते हैं या यूं कहे कि सरकार के एक अस्थायी अंग की तरह कार्य करते हैं। चूंकि ये लोगों के दुःख पीड़ा और असंतोष को पाटते हैं, उसे उद्वेलित होने से रोकते हैं, यानि एक सरकार रूपी व्यवस्था की छवि को ही बचाने का काम करते हैं, इसलिए मैं इन्हें सेफ्टी वाल्व भी कहता हूं। और यह कोई मामूली काम नहीं है, पीआर का काम तो इस काम के सामने कुछ भी नहीं। जमीन पर किए गये काम का वजन हमेशा अधिक ही होता है। अब चूंकि इतना बड़ा काम करते हैं तो बदले में इन्हें एक अच्छी धनराशि भी प्राप्त होती है। यूं समझिए कि एक ठीक-ठाक समाजसेवी की तनख्वाह एक जिलाधीश या उपजिलाधीश के समकक्ष ही होती है। और उतनी ही जिम्मेदारियाँ, काम का भयानक दबाव, तनाव और उतनी ही सुविधाएँ भी मिलती है। और हिंसा भी उसी स्तर की करनी पड़ती है, असल में उससे कहीं अधिक करनी पड़ती है, लेकिन विनम्रता और सामाजिक कार्यकर्ता की ओढ़ी हुई छवि के आगे सब कुछ छिप जाता है, ये इस कला में निपुण भी हो जाते हैं।

इस सेक्टर के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहाँ अधिकतर ऐसे लोगों को जोड़ा जाता है जिसे समाज ने हाशिए पर ढकेल दिया हो या किसी कारणवश दारूण जिंदगी जी रहे हों। अधिकतर तलाकशुदा, परित्याक्ता, अनाथ लोग जो थोड़े बहुत पढ़े-लिखे, स्किल्ड होते हैं, वे इस सेक्टर के लिए बहुत आसान शिकार होते हैं। दूसरा बड़ा शिकार ग्रेजुएट बैचलर युवा बनते हैं, खासकर वे बैचलर जिनके घर-परिवार का माहौल कुछ ठीक नहीं रहता है, इन्हीं के भीतर कुछ अलग करने का असंतोष ठीक ठाक उबाल मारता है, जिसका बढ़िया इस्तेमाल किया जाता है। अब इन सभी लोगों के लिए यह सेक्टर एक तरह से संरक्षक भी भूमिका में काम करता है, इससे एक भावनात्मक दबाव पहले ही तैयार हो जाता है कि हमने आप पर बहुत बड़ी कृपा की। आप देखिएगा कि भारत में इस एक सेक्टर में काम करने वाला व्यक्ति आसानी से इस मकड़जाल से नहीं निकल पाता है, क्योंकि आपके दिल दिमाग से खेला जाता है, आपको नौकरी नहीं दी जाती है, आपको तो एक परिवार का हिस्सा बनाया जाता है और उसी एवज में तमाम तरह की हिंसाएं की जाती है, तभी तो आपसे बंधुआ मजदूर की भांति दिन रात काम लिया जा सकता है। इसलिए आप देखेंगे कि भारत के लगभग सभी एनजीओ मानवीय रिश्ते बनाने पर जोर देते हैं। ये एक तरह का इंवेस्टमेंट होता है, इसी नींव पर तमाम तरह की हिंसाएं की जाती है। 

डेवलपमेंट सेक्टर में शीर्ष पदों पर काम करने वालों की बात करते हैं। इन पदों पर अधिकतर सभ्रांत परिवारों के लोग होते हैं। ऐसे लोग जो आर्थिक सामाजिक रूप से समृद्ध होते हैं, जिन्होंने किसी भी तरह की घरेलू हिंसा नहीं देखी होती है, जीवन में बहुत अधिक किसी भी प्रकार का तनाव या कोई उतार-चढ़ाव नहीं देखा होता है। यह लोग एक कॉरपोरेट या बिजनेस की तरह इस सेक्टर में काम करते हैं। अब चूंकि इस सेक्टर में काम करते हैं तो इस सेक्टर को चलाने के लिए बरती जाने वाली तमाम तरह की हिंसाएं, तीन तिकड़म, मीडियाबाजी और फंडबाजी भी इनके द्वारा की जाती है। इस सेक्टर में काम करते रहने की वजह से इन्हें अपनी वेशभूषा, आचार-व्यवहार और रहन-सहन के तरीकों पर काम करना पड़ता है, बहुत ही सामान्य जीवनशैली अपनाते हैं। वैसे ही अपने आप को दिखाने की कोशिश करते हैं जैसा भारत का आम ग्रामीण मध्यमवर्गीय व्यक्ति दिखता है, यही इनकी दुकान खड़ी करने और इनके पीआर के लिए सबसे जरूरी तत्व होता है, एक बार वैसी छवि तैयार हो जाती है, फिर हमेशा के लिए आराम हो जाता है। और फिर इलीटनेस अगर जीते भी हैं तो उसे एक बंद कमरे तक ही रखते हैं जिसकी कोई थाह नहीं पाता है। 

इस सेक्टर के साथ एक सबसे मजेदार चीज यह है कि इस सेक्टर में काम करते हुए आप पूरा जीवन खपा देंगे तब भी आपको अंत तक समझ ही नहीं आएगा कि आप वास्तव में कर क्या रहे हैं। एक चोरी करने वाले, गांजा शराब बेचने वाले तक को स्पष्टता रहती है कि वो फलां अपराध कर रहा है, लेकिन इस सेक्टर के लोग आजीवन भ्रम में रहते हैं कि वे समाज के लिए काम कर रहे हैं। असल में ये लोग समाज के लिए नहीं वरन् समाज को पीछे धकेलने के लिए काम कर रहे होते हैं। समाज को पश्चगामी दिशा में ले जाने में इनका सर्वाधिक योगदान होता है। एक स्वस्थ समाज के निर्माण में ये सबसे बड़े शत्रु होते हैं।

मेरी एक करीबी हैं। इस क्षेत्र के प्रति सहानुभूति रखती हैं, और मैं उनके इस व्यक्तिगत फैसले का सम्मान भी करता हूं। क्योंकि वैसे भी नौकरीपेशे लोगों के पास इतनी गहराई में जाकर चीजों को देखने समझने आंकलन करने का समय नहीं होता है। अगर कहीं कुछ डोनेशन करना होता है, वे कर देती हैं। मेरी करीबी दीदी विश्वास के साथ हमेशा यह कहती हैं कि ठीक है यार, जाने दो, अंततः कुछ तो लोगों के पास पहुंचेगा ही। इस पर मैं यही कहता हूं कि आप सहयोग करें या ना करें पहुंचेगा उतना ही, जितना पहुंचना चाहिए, आपके योगदान से कुछ कम ज्यादा नहीं हो जाएगा। दूसरा वह कहती हैं कि भारत के युवाओं को एक साल डेवलपमेंट सेक्टर में देना चाहिए। मैं उनको विनम्रता से आज कहना चाहता हूं कि गलती से भी ऐसी गलती न की जाए, इससे बेहतर हो कि युवा खुद से अकेले भीख मांग ले या रेहड़ी चला ले, लेकिन भूल से भी इधर समय न खपाए। क्योंकि यहां बौध्दिक मानसिक क्षति होने की भरपूर गारंटी होती है।

जब मैं इस सेक्टर का नया नया हिस्सा बना था, तब मुझे एक करीबी ने कहा था कि ये समाज कार्य क्या बला है। और हम क्यों इतने खाली हैं कि सामाजिक कार्य करना चाहते हैं, क्या सचमुच हम‌ इतने असामाजिक हो चुके हैं कि हमें अलग से ये सब करने‌ की आवश्यकता आन पड़ी है? उनके इन सवालों ने मुझे कभी दिग्भ्रमित होने नहीं दिया, मुझे हमेशा अपने आप को बचा ले जाने में मदद की। 

एक स्वतंत्र रिपोर्ट के मुताबिक भारत में समाज कार्य के क्षेत्र में काम करने वाले अधिकतर लोगों का शादी शुदा जीवन सफल नहीं हो पाता है, तुलनात्मक रूप से यहाँ आंकड़े चौंकाने वाले हैं। अन्य सेक्टर्स की तुलना में सबसे अधिक तलाक इसी सेक्टर में देखने को मिले। प्रेम वाले रिश्तों के लिए बहुत कम जगह होती है, क्योंकि इस सेक्टर में काम करने वालों के भीतर सबसे पहले प्रेम के नवांकुर को खत्म कर दिया जाता है, आबोहवा ही ऐसी रहती है। इसके अलावा एक बहुत बड़ी आबादी ऐसी रही जिन्होंने आजीवन शादी ही नहीं की, इसके पीछे तुर्रा यह रहा कि समाज कार्य को ही जीने का आधार बना लिया, खैर शादी न करना व्यक्ति का अपना निजी मसला होता है, लेकिन इस सेक्टर की कहानी अलग होती है, जिसने इस सेक्टर को करीब से देखा है, उसे अच्छे से मालूम होता है कि ऐसा क्यों होता है। 

तस्वीर : इस भौकाल तस्वीर में पीठ दिखाता हुआ घृणित व्यक्ति मैं ही हूं जिसने कभी समाजसेवा रूपी पाप किया था और महिलाओं को माहवारी जागरूकता के विषय में प्रवचन दिए थे। 

इति।।



Wednesday, 14 June 2023

मोदी जी और चार घंटे नींद -

2014 में जब आदरणीय नरेंद्र मोदी जी प्रधानमंत्री बनकर आए तब उनकी एक मजबूत छवि पेश करने के लिए तमाम तरह की चीजें मीडिया में प्रसारित की गई। कॉमिक्स में प्रधानमंत्री जी को बाल नरेंद्र के रूप में दिखाया गया और कहानियां गढ़ी गई। उन कहानियों का मोटा-मोटा सार यही था कि प्रधानमंत्री जी बचपन से जुझारू, संघर्षशील रहे हैं। फिर कुछ समय बाद उनके सात्विक भोजन और निरंतर योग करने को लेकर भी सकारात्मक चीजें सामने लाई गई। इन सब का सार यही रहा कि देश के प्रधानमंत्री शारीरिक रूप से स्वस्थ और सक्रिय व्यक्ति हैं। ऐसा नहीं है कि ये पहले ऐसे नेता या प्रधानमंत्री हैं जो ऐसा कर रहे थे, शक्ति प्रदर्शन हर कोई करता रहा है, एक नेता में यह गुण न हो तो वह टिक भी नहीं पाएगा। शक्ति प्रदर्शन वाले उसी क्रम में काम करने वाली छवि बनाए रखने के लिए यह तक प्रचारित किया गया कि प्रधानमंत्री जी केवल 3-4 घंटे ही सोते हैं। इस पर नहीं जाते हैं कि वे कितना सोते होंगे, असल‌ में ऐसा प्रचारित करने का उद्देश्य यही था कि प्रधानमंत्री भले कैसे भी हों लेकिन वे एक बेहद सक्रिय, ऊर्जावान व्यक्ति हैं। देश के लोगों के मन मस्तिष्क में प्रधानमंत्री की एक मजबूत छवि बनाई गई और इसमें कुछ गलत भी नहीं है। आज शक्ति प्रदर्शन का युग है। और अपनी सुरक्षा के लिए, स्थायित्व के लिए हर कोई तोड़ मरोड़ के चीजें पेश करता ही है। 

अब नींद की समयावधि की बात करते हैं। साधु बाबा लोग जो तमाम तरह की साधना करते हैं, जिनको घर परिवार नहीं चलाना होता है, जो गृहस्थ की जिम्मेदारियों और दुनियावी दांवपेंच से अलग होकर सिर्फ भजन साधना त्राटक करते हैं। वे कितने भी समय खाएं सोएं किसी को फर्क नहीं पड़ता है, कोई बर्तन धोने के लिए उनके खा‌ना खा लेने का इंतजार नहीं कर रहा होता है। ऐसा व्यक्ति ही घंटों बैठकर साधना कर सकता है, अपनी सांसों को साध सकता है, कम‌ सोते हुए भी सक्रिय रह सकता है, क्योंकि दुनिया जहाँ का और कोई तनाव है ही नहीं तो ऐसे में कम नींद से ही काम चल जाता है। कौन सा सुबह उठकर आफिस जाकर चार लोगों को मैनेज करना है या व्यापार संभालना है। दूसरा यह भी है कि शारीरिक रूप से भी खुद को बहुत खपाता नहीं है तो सारी ऊर्जा ध्यान साधना में लग जाती है, ऊर्जा स्थिर बनी रहती है।

हममें से जो कोई भी फेसबुक पर हैं, हम सभी गृहस्थ जीवन जीते हैं। सुबह का नाश्ता दो वक्त का भोजन, घर-परिवार की जिम्मेदारियाँ, नौकरी व्यापार कृषि कार्य इन सब में लगे रहते हैं तो पूरा मन शरीर खप रहा होता है। इसलिए समय पर ठीक-ठाक भोजन की भी आवश्यकता होती है और 6-7-8 घंटे की अच्छी नींद भी चाहिए होती है ताकि अनवरत गृहस्थ की जिम्मेदारियों का अच्छे से पालन किया जा सके। गृहस्थ में रहते हुए इन जिम्मेदारियों जा निर्वहन करते हुए कहीं से भी संभव नहीं है कि व्यक्ति 3-4 घंटे सोकर सक्रिय रह सके। अगर कोई ऐसा कहता है तो वह सीधे सीधे बेवकूफ बना रहा है। हां कभी एक दो दिन के लिए समझ आता है, और इतना तो हर भारतीय करता है, कभी अस्पताल का जागरण या कभी शादियों की जिम्मेदारी या अन्य ऐसी किसी आपात स्थिति में पूरे 24 घंटे बिना सोए रह लेता है, लेकिन अगले दिन उसे भी नींद की आवश्यकता होती है। 

अपनी बात कहूं तो शरीर को इन सब अलग-अलग प्रयोगों के नाम पर सिर्फ और सिर्फ यातना ही दी है। क्या ठंडी क्या गर्मी क्या बरसात, माइनस ठंड में बिना कंबल के रहना, भीषण गर्मी में बिना कूलर पंखे के रहना, ठंड में ठंडे पानी से नहाना, बिना नींद के 25-30 घंटे खुद को जागृत रखने की कोशिशें, 70-80 घंटे बिना भोजन के रहना, 22-23 घंटे लगातार अकेले बाइक चलाना। असल में इन सब का हासिल कुछ भी नहीं होता है। आपके हिस्से बैचेनी, अपच, अनिद्रा, अस्थिरता ही आती है। खुद को भीड़ से अलग महसूस करने के लिए ये सब खयाली पुलाव एक समय तक ही ठीक लगता है। खासकर एक गृहस्थ की तरह जीवन जी रहे व्यक्ति को तो इन सब चीजों से दूर ही रहना चाहिए। जो दुनियावी चीजों से विरक्त हो चुका है, उसे ही यह सब प्रयोग शोभा देता है। 

जब भी कोई गृहस्थ कम नींद का महिमामंडन कर अपने आप को महान दिखाता है और लोगों को बरगलाने का प्रयास करता है, तो ऐसे लोगों के लिए हंसी और दया दोनों ही आती है। विशिष्टता और आत्मश्लाघा से ग्रसित ये लोग असल में जीवन जीने को ही बहुत जटिल और भारी काम बना लेते हैं। असल में ये लोग अपने आप को‌ महान सिध्द करने, भीड़ से अपने आप को जुदा दिखाने के लिए ऐसा करते हैं। इसकी पूर्ति के लिए अपने भोजन, दैनिक जीवनशैली और नींद के तरीकों को जान बूझकर बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते रहते हैं। और यह सब फर्जी तरीका इन्होंने देश के प्रधानमंत्रियों से ही तो सिखा होता है। एक प्रधानमंत्री का एक बार समझ आता है, उसकी तो हर एक गतिविधि खबर है, सनसनी है। अगर वह मशरूम भी खा रहा तो उसकी एक अलग स्टोरी बनेगी। लेकिन इन तथाकथित गृहस्थी जीवन जी रहे गुमनाम सरीखे लोगों को किस बात का गुमान रहता है, समझ नहीं आता है। प्रधानमंत्री का कम सोने का प्रचार करना शक्ति प्रदर्शन ही है, सत्ता बनाए रखने के लिए यह सब प्रपंच एक नेता के लिए जरूरी भी है। और ऐसा करने वाले मोदीजी अकेले नहीं हैं। स्व. इंदिरा गांधी बेलछी नरसंहार के बाद हाथी में चढ़कर उस गांव तक गई थी, इसके पीछे भी शक्ति प्रदर्शन ही था क्योंकि तब आयरन लेडी के रूप में प्रचारित प्रधानमंत्री की उम्र भी ठीक ठाक थी, और जो कांग्रेस उस समय डूब रही थी, उसे इस शक्ति प्रदर्शन के बाद मानो संजीवनी मिल गई थी। तब सोशल मीडिया होता तो आयरन लेडी उतनी ही ट्रोल होती जितना आज प्रधानमंत्री को संसद के सामने शीश झुकाने के लिए किया गया। राजनीति में शक्ति प्रदर्शन के लिए ऐसी चीजें चलती रहती है। 

पुनश्च : कम सोने को लेकर खुद को महिमामंडित करने वालों से बस यही कहना है कि आपसे लाख गुना बेहतर वे कामगार, मजदूर और वे लाखों ट्रक वाले हैं, जिनके पास अपनी संघर्ष गाथा सुनाने के लिए एक अदद भाषा तक नहीं होती है। जो दिन रात चौबीसों घंटे डाब खाते हुए या नशे का सेवन करते हुए अपनी नींद मारकर देश समाज को बेहतर बनाने में अपना सर्वस्व झोंक रहे होते हैं। सनद रहे कि आप कम सोने का प्रचार कर, उपवास कर उस पर रामकथा लिखकर ऐसे तमाम मेहनतकश लोगों का सरासर अपमान कर रहे हैं। 

इति।

Sunday, 11 June 2023

फंसे रहना ही दुनिया की रीत है

A - कहीं घूम नहीं रहे।
B - इस भीषण गर्मी में कौन घूमे।
A - क्या नया कर रहे फिर?
B - कुछ भी नहीं।
A - फिल्में, किताबें?
B - वो भी नहीं। बस थोड़ा बहुत इंटरनेट।
A - पक्के किसान हो गये हो।
B - वो कैसे?
A - कुछ भी नहीं कर रहे।
B - हमेशा क्यों कुछ करना है।
A - कुछ करते रहना भी जरूरी हुआ जीवन में।
B - रूक जाना भी जरूरी हुआ जब नहीं रूकने से कुछ खास अंतर न पड़ता हो।
A - हां, एक किसान गर्मी के कुछ महीने यही करता है।
B - बिल्कुल, ये एक चीज तो हर किसी को अपनाने की कोशिश करनी चाहिए।
A - फिर भी लोग तो लगे रहते हैं।
B - नहीं लगे रहेंगे तो बैचेनी चबा कर उन्हें खा जानी है।
A - बैचेनी दूर करने के लिए क्या क्या जो करते हैं लोग‌।
B - व्यस्त रहते हैं, और व्यस्त रखने के ढेरों विकल्प व्यवस्था ने, बाजार ने तैयार रखे ही हैं।
A - कभी ये सोचा नहीं। कितना जटिल है यह सब। 
B - क्या ही कहें, हम सब फंसे हुए हैं।
A - बाबा, फंसे रहना ही दुनिया की रीत है।
B - ये भी ठीक है।