Wednesday, 11 July 2018

~ पहाड़ों की हिन्दी ~

                         मुझे बार बार ये महसूस होता है कि पहाड़ों की हिन्दी मध्य भारत के हिन्दी बेल्ट से कहीं ज्यादा परिष्कृत है। जैसे अगर मैदानी क्षेत्रों में आर्थिक समस्या आए तो ऐसा कहेंगे कि यार पैसा नहीं है, मेरे पैसे डूब गये आदि। लेकिन पहाड़ में आपको पैसा शब्द सुनने को भी नहीं मिलेगा यहाँ आपको प्राइमरी में पढ़ने वाला बच्चा भी यह कहते मिल जाएगा कि दद्दा रूपए नहीं हैं, वो पैसा बोलेगा ही नहीं, वह रुपया ही बोलेगा, वैसे भी अब पैसा प्रचलन में ही नहीं है, रूपये में ही सारा हिसाब होता है, जबकि मैदान में भाषा की अति हो जाती है, जैसे ऐसा कह जाते हैं कि "यार उसके पास तो कितना पैसा है लाखों करोड़ों का पैसा है, जबकि वास्तव में पैसा कहना गलत हुआ, रूपये कहना चाहिए।

दूसरा उदाहरण -
आज भी मैदानी इलाकों में लोगों को टाॅफी और चाॅकलेट में फर्क करना नहीं आता जबकि पहाड़ में ऐसा नहीं है। मुझे याद है जब मैं 2015 में पहली बार मुनस्यारी, उत्तराखण्ड आया था तब मैं एक परचून(किराने) की दुकान पर एक डिब्बे की ओर इशारा करते हुए चॉकलेट मांगा, दुकानदार भी परेशान कि आखिर मैं उनसे किस चीज की मांग कर रहा, फिर जब मैंने छूकर उस डिब्बे को उठाया तो उन्होंने कहा कि, सर टाॅफी कहो न फिर, मुझे लगा आप चाॅकलेट कह रहे, यानि चाॅकलेट माने डेयरी मिल्क जैसे बड़े पैकेट, और टाॅफी माने पचास पैसे,एक रूपए वाले छोटे पैकेट।

तीसरा उदाहरण -
जब भी पहाड़ में आप आएं और किसी दुकान या होटल में पांच सौ या दो हजार का नोट थमाकर बाकी बचे हुए पैसे मांगेंगे तो एक अनपढ़ भी आपको ये नहीं कहेगा कि चैंज दे दो, वो यह कहेगा कि भाई जी खुल्ले दो। कहीं भी आपको चैंज शब्द सुनने को ही नहीं मिलेगा।

चौथा उदाहरण -
जैसे बेड हुआ, ये तो पलंग का अंग्रेजी शब्द है। मैदानों में खाट, पलंग दोनों के लिए सामान्यतया लोग बेड कहते हैं। लेकिन पहाड़ में बच्चे से लेकर बूढ़ा, पढ़ा लिखा हो या अनपढ़ हर कोई चारपाई ही कहता है‌।

पांचवां उदाहरण -
मैं एक साथी के घर से विदा ले रहा हूं और मुझे अपने घर वापस जाना है तो मैदानों में इस स्थिति में एक अपनापन निभाने के वास्ते मेरा साथी मुझसे कहेगा कि यार एक दिन और रूक जाओ। रूकना, रोकना, रूक जाना, कितने बोझिल से भाव देते हैं ये शब्द, ऐसा भाव प्रस्फुटित होता है मानो हम कहीं जबरन किसी को तो नहीं रोक रहे, औपचारिकता तो नहीं निभा रहे। लेकिन पहाड़ में इस मामले में भी एक अलग ही किस्म का अपनापन है, सरलता है, सहजता है, पहाड़ में ऐसी स्थिति में आपको कहेंगे कि यहीं बैठो फिर, यहीं बैठ जाते फिर। सुनते ही मन में ये आता है कि फलां व्यक्ति वाकई सच्चे मन से हमें कह रहा है कि यहीं हमारे साथ ठहरो और इस पूरे वाक्य विन्यास में औपचारिकता का पुट ना के बराबर। वाकई थोड़े से शब्दों के फेर से कितना फर्क आ जाता है‌।

मुझे लगता है कि ऐसे और भी कितने उदाहरण होंगे, बाकी अभी तक तो मैंने पहाड़ को इतना ही समझा है।

~ बुरे फंसे इन पहाड़ों में ~

                        अभी 15 दिन पहले कोलकाता से 9 लोगों का एक परिवार(बच्चों के साथ) मुनस्यारी घूमने आया हुआ था। जब वे मुनस्यारी‌ से वापस कोलकाता के लिए लौट रहे थे तो उसी वक्त टैक्सी वालों की हड़ताल हो गई। मुनस्यारी‌ से हल्द्वानी रेल्वे स्टेशन तक जाने के लिए उन्होंने पहले ही दो दिन सुरक्षित रख लिए थे और किस्मत देखिए कि टैक्सी वालों की हड़ताल भी उसी दो दिन के दरम्यान हुई। अब हुआ ये कि पहला दिन तो उन्हें मुनस्यारी में ही रूकना पड़ गया, अब जो दूसरा दिन था, जिस दिन रात को हल्द्वानी से कोलकाता के लिए उनकी ट्रेन थी, उस दिन टैक्सी वालों का हड़ताल भी जारी था तो वे सुबह से मुनस्यारी से अपनी बुकिंग गाड़ी में निकल‌ गये। जैसे ही वे थल पहुंचे, टैक्सी यूनियन वालों ने गाड़ी रोक ली‌। वे तो अपने हड़ताल को सफल बनाने में लगे रहे, उन्होंने पूरे परिवार को गाड़ी से उतरने को कहा। अब यहाँ मामला ऐसा फंसा कि वे उस बुकिंग वाली ट्रेवल कंपनी की गाड़ी में नहीं जा सकते। थल से उन्होंने बारह हजार रूपये देकर दो अलग अलग कार करवाई, और हल्द्वानी की ओर निकल पड़े। इन दो कारों को फिर से बेरीनाग में रोका गया। कुछ इस तरह वे रात तक हल्द्वानी रेल्वे स्टेशन पहुंचे और जैसे ही वे स्टेशन पहुंचे, ठीक 10 मिनट पहले उनकी ट्रेन निकल‌ चुकी थी। अब पहले जो बारह हजार अतिरिक्त लगे वो अलग, अब यहाँ 9 लोगों का रिजर्वेशन का लगभग दस हजार पार समझिए, वो भी गया, अब हल्द्वानी से उन्होंने टीटीई को कुछ पैसे दिए और जैसे तैसे बाघ एक्सप्रेस में लखनू तक पहुंच गये, अब इसके भी कितने जो पैसे लगे होंगे, इसकी मुझे उतनी जानकारी नहीं है। बाकी इस बीच उन्हें और साथ बच्चों को परेशानी हुई होगी, ये शायद आप और हम ना समझ पाएं‌। अब लखनऊ से घर कोलकाता जाने के लिए उन्होंने फ्लाइट किया। अब 9 लोगों का फ्लाइट का खर्च मान लीजिए कम नहीं ज्यादा 45 हजार पार। कुछ इस तरह वे मुनस्यारी में सुकून‌ से दो दिन गुजारने के बाद बेमन से कोलकाता पहुंचे और फिर अगले दिन उन्होंने मुझे ये सब बताया। उन्होंने कहा कि यार अखिलेश चलो मैं तो ठीकठाक नौकरी में हूं तो ये सब मैनेज कर लिया, एक आम आदमी जिसके पास पैसे कम हों वो तो बुरे तरीके से पिस जाएगा।
मुझे भी समझ नहीं आया कि इस स्थिति के लिए आखिर किस को कोसा जाए, कहां किसको जिम्मेदारी थोपी जाए।

                            आप सोच रहे होंगे कि आज इतने दिनों बाद मैं ये सब क्यों लिख रहा हूं। असल में आज मेरी भी स्थिति कोलकाता के उस भाई साहब की तरह हो गई है, बस फर्क ये है कि वे 9 लोग थे, बच्चों के साथ पूरा परिवार था, और मैं अकेला हूं। उनको कैसे भी करके कोलकाता पहुंच के अगले दिन आॅफिस जाना था, मुझे कैसे भी करके अर्जेंट घर पहुंचना है, उनकी परेशानी का कारण टैक्सी हड़ताल था, इसलिए वे चाहें तो टैक्सी यूनियन और व्यवस्था को कोस सकते हैं, लेकिन यहाँ मेरी परेशानी का कारण जमकर हो रही बारिश और उसकी वजह से रोड ब्लाॅक का होना है, अब मैं न तो किसी को कोस सकता हूं, न ही नाराज हो सकता हूं‌, मैं सिर्फ और सिर्फ मौसम ठीक होने का इंतजार कर सकता हूं‌।