मुझे बार बार ये महसूस होता है कि पहाड़ों की हिन्दी मध्य भारत के हिन्दी बेल्ट से कहीं ज्यादा परिष्कृत है। जैसे अगर मैदानी क्षेत्रों में आर्थिक समस्या आए तो ऐसा कहेंगे कि यार पैसा नहीं है, मेरे पैसे डूब गये आदि। लेकिन पहाड़ में आपको पैसा शब्द सुनने को भी नहीं मिलेगा यहाँ आपको प्राइमरी में पढ़ने वाला बच्चा भी यह कहते मिल जाएगा कि दद्दा रूपए नहीं हैं, वो पैसा बोलेगा ही नहीं, वह रुपया ही बोलेगा, वैसे भी अब पैसा प्रचलन में ही नहीं है, रूपये में ही सारा हिसाब होता है, जबकि मैदान में भाषा की अति हो जाती है, जैसे ऐसा कह जाते हैं कि "यार उसके पास तो कितना पैसा है लाखों करोड़ों का पैसा है, जबकि वास्तव में पैसा कहना गलत हुआ, रूपये कहना चाहिए।
दूसरा उदाहरण -
आज भी मैदानी इलाकों में लोगों को टाॅफी और चाॅकलेट में फर्क करना नहीं आता जबकि पहाड़ में ऐसा नहीं है। मुझे याद है जब मैं 2015 में पहली बार मुनस्यारी, उत्तराखण्ड आया था तब मैं एक परचून(किराने) की दुकान पर एक डिब्बे की ओर इशारा करते हुए चॉकलेट मांगा, दुकानदार भी परेशान कि आखिर मैं उनसे किस चीज की मांग कर रहा, फिर जब मैंने छूकर उस डिब्बे को उठाया तो उन्होंने कहा कि, सर टाॅफी कहो न फिर, मुझे लगा आप चाॅकलेट कह रहे, यानि चाॅकलेट माने डेयरी मिल्क जैसे बड़े पैकेट, और टाॅफी माने पचास पैसे,एक रूपए वाले छोटे पैकेट।
तीसरा उदाहरण -
जब भी पहाड़ में आप आएं और किसी दुकान या होटल में पांच सौ या दो हजार का नोट थमाकर बाकी बचे हुए पैसे मांगेंगे तो एक अनपढ़ भी आपको ये नहीं कहेगा कि चैंज दे दो, वो यह कहेगा कि भाई जी खुल्ले दो। कहीं भी आपको चैंज शब्द सुनने को ही नहीं मिलेगा।
चौथा उदाहरण -
जैसे बेड हुआ, ये तो पलंग का अंग्रेजी शब्द है। मैदानों में खाट, पलंग दोनों के लिए सामान्यतया लोग बेड कहते हैं। लेकिन पहाड़ में बच्चे से लेकर बूढ़ा, पढ़ा लिखा हो या अनपढ़ हर कोई चारपाई ही कहता है।
पांचवां उदाहरण -
मैं एक साथी के घर से विदा ले रहा हूं और मुझे अपने घर वापस जाना है तो मैदानों में इस स्थिति में एक अपनापन निभाने के वास्ते मेरा साथी मुझसे कहेगा कि यार एक दिन और रूक जाओ। रूकना, रोकना, रूक जाना, कितने बोझिल से भाव देते हैं ये शब्द, ऐसा भाव प्रस्फुटित होता है मानो हम कहीं जबरन किसी को तो नहीं रोक रहे, औपचारिकता तो नहीं निभा रहे। लेकिन पहाड़ में इस मामले में भी एक अलग ही किस्म का अपनापन है, सरलता है, सहजता है, पहाड़ में ऐसी स्थिति में आपको कहेंगे कि यहीं बैठो फिर, यहीं बैठ जाते फिर। सुनते ही मन में ये आता है कि फलां व्यक्ति वाकई सच्चे मन से हमें कह रहा है कि यहीं हमारे साथ ठहरो और इस पूरे वाक्य विन्यास में औपचारिकता का पुट ना के बराबर। वाकई थोड़े से शब्दों के फेर से कितना फर्क आ जाता है।
मुझे लगता है कि ऐसे और भी कितने उदाहरण होंगे, बाकी अभी तक तो मैंने पहाड़ को इतना ही समझा है।