Sunday, 7 January 2018

~ हिमनगरी मुनस्यारी में मेरा छोटा सा आशियाना ~

                       मुनस्यारी में मेरा ये छोटा सा एक कमरा है। हजार रूपया किराया है इस कमरे का। मैं जब यहाँ आया तो मैंने बाल्टी, साबुन की डिबिया आदि दैनिक जरूरत के कुछ कुछ सामान खरीदे, लेकिन एक चीज खरीदने की मुझे कभी जरूरत महसूस नहीं हुई और वो है ताला चाबी। मेरा कमरा ऐसे ही रहता, कभी-कभी तो सिटकनी भी नहीं लगाता और दिनभर बाहर रहता जबकि मेरे कमरे में मेरा लैपटाप कैमरा कुछ पैसे आदि सामान रहता लेकिन सब कुछ जस का तस। कुछ बच्चों का मेरे कमरे में आना-जाना लगा रहता, मेरी अनुपस्थिति में वे मेरा कैमरा लैपटाप इस्तेमाल भी करते लेकिन सारी चीजें अपनी जगह पर। मैं वापस लौटता तो कई बार पाता कि मेरे कैमरे में जो कुछ नयी तस्वीरें हैं ये आखिर किसने ली। ये कोई आश्चर्य की बात नहीं है, ये यहाँ सामान्य है। यहाँ लोगों में विश्वास है, आगे कब तक रहेगा नहीं मालूम।
अब ठीक ऐसा ही आपको भारत के अधिकांश पहाड़ी क्षेत्रों और मैदानी इलाकों में भी सुदूर गांवों में देखने को मिल जाएगा, खैर ये सब संस्कृति तो अब धीरे-धीरे लुप्त हो रही है। निश्चय ही आने वाले सालों में ये चीजें अब शायद ही देखने को मिले।
अब दूसरी ओर हमारे शहरों में देखिए, हम सुविधाओं से लैस हैं फिर भी कितना अविश्वास है, यहां तक कि सालों तक पड़ोस में कौन रहता है हम ये भी नहीं जान पाते। हम सुरक्षा के नाम पर कुत्ते पालते हैं, कंटीले तार लगाते हैं, मोटी-मोटी चैन और बड़े-बड़े ताले लगाते हैं और खुद को बड़ा विचारवान और जागरूक समझते हैं। हम विकास की बात करते हैं, जागरूकता की बात करते हैं, जीवन मूल्यों की बात करते हैं, क्वालिटी आफ लाइफ पर चर्चा करते हैं, सभ्य और सुसंस्कृत होने का दंभ भरते हैं। लेकिन इन सब चीजों के सही मायने क्या हैं ये जीवनपर्यन्त समझ नहीं पाते।



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