Friday, 19 January 2018

रफ कॅापी Part - 5

अनिरुद्ध - कैसी हो तुम?
शालिनी - ठीक हूं आप कैसे हो?

अनिरुद्ध - मैं भी बढ़िया।
शालिनी - एक बात बोलनी थी, बोल लूं?
अनिरुद्ध - हां।
शालिनी - आप थोड़ी कुछ दुआ कर दो प्लीज! मेरे लिए।
अनिरुद्ध - ठीक है लेकिन किसलिए।
शालिनी - बस कर दो मेरे अच्छे के लिए, ऐसा सोचकर।
अनिरुद्ध - अच्छा जी। कर दूंगा। पर मैं ही क्यों?
शालिनी - देखो दुनिया में दो ही चीजें होती हैं एक सही और दूसरा गलत। मैं सही हूं, सही की जरूरत महसूस हुई है और मुझे आप सही लगते हैं इसलिए कह रही हूं। आप कर दोगे ना?
अनिरुद्ध - हां जी पक्का। अच्छा मिंजो एक बात बतानी थी।
शालिनी - बताओ।
अनिरुद्ध - मुझे तुम्हारे गाँव का सपना आया था, मम्मी और बड़का जी साथ थे, चौमास लगा हुआ था, मौसम काफी बिगड़ रखा था, हम शायद पूजा के लिए तुम्हारे गाँव जा रहे थे। मैंने जाने को मना किया तो बड़का जी ने जिद करके मुझे अपने साथ ले लिया।
शालिनी - चल झूठ्ठे। आपको जरूर किसी ने बताया होगा हमारे गाँव के पूजा के बारे में, अभी सप्ताह भर पहले हुई थी पूजा।
अनिरुद्ध - सच कहता हूं, सपने में आया गाँव। मुझे क्या मस्ती चढ़ी है कि तुम्हारी मम्मी के साथ पहाड़ चढूं। हद है।
शालिनी - हां तो अच्छी बात है। अगली बार यहां आओ तो मम्मी जी के साथ चले ही जाना गाँव। रास्ते भर भूत और देवी-देवताओं की पूजा की कहानियां सुनाएंगी। हेहे।
अनिरुद्ध - अच्छा ये बताओ इस बार रोहड़ू के मेले में जाना हो रहा कि नहीं?
शालिनी - मैं नहीं जाऊंगी इस बार। पिछली बार बहुत भीड़ हो रखी थी। मुझे ठीक नहीं लगता अब जाना।
अनिरुद्ध - मैं जाने की सोच रहा था। कुछ यहां दिल्ली के दोस्त भी जाने का मन बना रहे थे उन्होंने कभी देखा नहीं है वहां का मेला, शायद उन्हीं के साथ आऊंगा।
शालिनी - तो घर नहीं आओगे?
अनिरुद्ध - पता नहीं।
शालिनी - मुझे मिलना था।
अनिरुद्ध - क्यों?
शालिनी - बस एक बार मिलना है। बहुत कुछ बातें बतानी है। जो इतने लंबे समय से छुपी हुई हैं।
अनिरुद्ध - जो शालिनी पिछले छ: महीनों से मेरा फोन तक नहीं उठाती थी उसे अब मुझसे क्यों मिलना है।
शालिनी - उस समय चीजें अलग थी। अभी हालात बदल गये हैं। मिलकर ही सब बता पाउंगी। अभी ऐसे फोन पर कहूंगी तो आप संभाल नहीं पाएंगे। इसलिए खुद को रोकती हूं।
अनिरुद्ध - पर ऐसा क्या है बोल भी दो। कुछ तो बताओ।
शालिनी - अभी नहीं। आप रोहड़ू के मेले से रिकांग पियो लौट आना न। फिर बताऊंगी।
अनिरुद्ध - ठीक है मैं देखता हूं, कोशिश करूंगा कि इस बार ज्यादा छुट्टियां मिल जाए।
शालिनी - तो, आप आ रहे हैं।
अनिरुद्ध - हां, मैं आ रहा हूं।
शालिनी - मिलेंगे, मिलेंगे।
अनिरुद्ध - मिलेंगे, मिलेंगे।
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To be continued..

Monday, 8 January 2018

~ भारतीय समाज में आरक्षण ~

                          आरक्षण के बारे में बहुत बातचीत चलती रहती है, कोई आरक्षण का विरोध करता है, कोई आरक्षण का समर्थन करता है। आरक्षण की बात को सामाजिक न्याय से बिना जोड़े प्रस्तुत करना आज एक फैशन हो गया है। भारतीय समाज में आरक्षण क्यों अत्यधिक आवश्यक है इस बारे में जनमानस को कोई समझ नहीं रही न ही जागरूकता फैलाई गई और संविधान में झटके भर में आरक्षण प्रस्तुत कर दिया गया और वो जरूरी भी था। यदि ऐसा नहीं किया गया होता तो आजतक आरक्षण होता ही नहीं, स्थितियां और अधिक भयावह होती, बहुत ज्यादा दर्दनाक होती, बहुत नारकीय स्थिति में करोड़ों लोग जी रहे होते।

भारतीय समाज में आरक्षण दो प्रकार का है- पहला सामाजिक आरक्षण और दूसरा संवैधानिक आरक्षण।
संवैधानिक आरक्षण का संबंध सरकारी नौकरियों से हैं। क्योंकि सरकारी नौकरियों का संबंध पैसे से होता है, बाजार से चीजें खरीदकर उपयोग करने से होता है, उपभोग करने से होता है, शक्ति का होता है। सरकारी नौकरियों में वैसे भी बहुत ताकत होती है, समाज में परिवर्तन लायक शक्ति होती है तो इस वजह से संवैधानिक आरक्षण का विरोध बहुत ज्यादा होता है। क्योंकि जिन वर्गों के हाथ में लगातार भारतीय समाज का सारा कुछ नियंत्रित रहा है उनको अजीब लगता है या हजम नहीं होता है कि जो उनसे दबे कुचले लोग रहे हैं या जो उनके आगे हाथ जोड़ के खड़े रहे हैं। वे उनसे तालमेल नहीं बिठा पाते हैं क्योंकि सामाजिक न्याय के प्रति समझ नहीं होती। सामाजिक समता नाम की कोई वस्तु होती है या मूल्य होता है इसका पता नहीं होता।
संवैधानिक आरक्षण का संबंध आर्थिक विकास से नहीं है, सामाजिक समता व सामाजिक न्याय से है और बिना आर्थिक विकास के सामाजिक समता और सामाजिक न्याय संभव नहीं है ये भी उसका एक प्रमुख कारक है।
अब जब भी सामाजिक आरक्षण का विरोध किया जाता है तो कैसे किया जाता है, अयोग्यता,कुशलता इन सब चीजों पर किया जाता है।
हमारे भारत के विश्वविद्यालयों में बीए, बीटेक, मास्टर्स या पीएचडी आदि में वर्ष या सेमेस्टर की परीक्षा होती है। उसमें माडल/गेस पेपर मिल जाता है और पास हो जाते हैं और फिर कुछ किताबें तटकर सरकारी नौकरी हासिल कर लेते हैं। अधिकांश जगह तो पेपर लीक हो जाता है या किसी प्रोफेसर से सेटिंग हो तो सवाल मिल जाते हैं ये व्यवहारिक बात है इसमें बुरा मानने लायक कुछ भी नहीं। ये मैं कह रहा हूं, बहुत लोग नहीं कह पाते क्योंकि इससे उन्हीं की योग्यता पर सवाल खड़ा हो सकता है, आखिर कैसे स्वीकारेंगे, भले ही अच्छे परसेंट से पास हुए होंगे, प्रोफेसर बने होंगे या किसी सरकारी नौकरी में होंगे, बढ़िया गाड़ी, नौकर होंगे, लेकिन विषय के बारे में जानकारी नहीं है। अब चूंकि पद पर हैं तो ये मान लिया जाता है कि आपको सब आता है, नहीं भी पता होगा तो कौन कहेगा कि आपको नहीं आता। आप कैसे साबित करेंगे कि इनको नहीं आता है। नहीं आता होता तो भला नौकरी कैसे कर रहे होते।
तो हमें आज नहीं तो कल इन सब से बाहर आना ही होगा। हमें सवाल करना होगा कि वास्तव में हमारे जो ढांचे कसौटियाँ हैं वे योग्यता का मापन करती हैं या नहीं करती हैं। हमें इसे समझना पड़ेगा, देखना पड़ेगा वो भी पूरी कठोरता के साथ, अगर हम समाज को तोड़ना नहीं चाहते और यदि हम वास्तव में संवेदनशील हैं।
आज की परीक्षा का हाल यह है कि 10, 20% पढ़कर ही सौ प्रतिशत अंक प्राप्त किया जा सकता है।
हमारे इंजीनियरिंग को ही लीजिए, पेपर के दो दिन पहले किताब रटिए और अच्छे नंबर से पास हो जाइए। रटना बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि परंपरा में हो विद्वान वर्ग माना गया वो ब्राम्हण माना गया। अब ब्राह्मण की योग्यता क्या रही? अब ध्यान से देखें, ऐसा भी नहीं है कि भारत के सारे ब्राह्मणों, उनके बच्चों को विज्ञान की बातें, यांत्रिकी या शोध सिखाया जाता था, ऐसा कुछ भी नहीं था। यानि जो सामान्य ब्राम्हण है जो अधिकतर ब्राह्मण है वो क्या करता है पोथी रटता है, कोई किसी माता या देवी-देवता की पोथी रट लेगा। पोथी यानि कहानियां या मंत्र। और अधिकतर पुरोहितों को तो मंत्र उच्चारण भी नहीं आता। इनको मंत्र पता ही नहीं रहता, बस कह जाते हैं और अगर सामने वाला कोई अन्य दूसरी जाति का अधिक विद्वान है और ब्राह्मण नहीं है तो उसे विद्वान नहीं माना जाता। ये कैसे योग्यता रही है, ये कैसी कुशलता रही है। एक छोटा बच्चा ब्राह्मण का है, दो महीने का है और एक ओर एक योग्य विद्वान दलित प्रोफेसर है वो उसके पैर छुएगा, आशीर्वाद लेगा, क्योंकि ये मान लिया जाता है कि बच्चा योग्य है। अब जब योग्यता की बात हो रही है तो योग्यता के मानदंडों की भी बात करनी पड़ेगी। रटने को हम योग्यता की कसौटी कैसे मान सकते हैं।

दूसरी बात ये कि दलित हजारों वर्षों से दास की तरह गुलाम की तरह रखा गया। किसी भी गाँव में जो सबसे सढ़ी, बदबूदार जगह होगी जहाँ आप और हम चल नहीं सकते हैं, उल्टी हो जाएगी। वैसे जगहों पर वे रहते आए हैं, हजारों सालों तक लगातार दबाए गए हैं।
सोचिए, मैं तो सोचता हूं उनके जीन्स में कितना परिवर्तन आ गया होगा। आज अचानक आप उनसे कहते हैं कि आइए हमसे भिड़िए, आज आप हमसे ज्यादा याद कर ले रहे हैं क्या? ज्यादा रट ले रहे हैं क्या?
कल्पना करिए इस चीज की। हम उपहास उड़ाते हैं उनका। स्थिति तो ये है कि जो आरक्षित वर्ग का व्यक्ति है वो अपने आप को योग्य साबित करने के लिए आरक्षण का विरोध करता है। वो किसी तरह से यह सिद्ध करना चाहता है कि मैं योग्य हूं, उसका अपना आत्मसम्मान कुचलता हुआ महसूस होता है क्योंकि न आरक्षित वर्ग समझता है कि आरक्षण का मतलब क्या है और न ही आरक्षण का विरोध करने वाला समझता है कि सामाजिक न्याय क्या है।
समता की बात कोई नहीं करता है, कोई शोषण की बात नहीं करता है, मन को कोई समझता ही नहीं है और मनोविज्ञान पर पीएचडी कर बैठे हैं। भई मनोविज्ञान पर ये भी तो समझें आप कि हजारों वर्षों से परंपरागत तरीके से लगातार जिनको दबाया गया हो, जिनको सुनने तक का अधिकार न हो।
कोई श्लोक सुन रहा है तो कानों में पिघला सीसा डाल दिया, किसी बच्चे ने श्लोक बोला तो जीभ काट ली। इतना बुरी तरह से दबाया गया हो शिक्षा को, अगर इसे भी शिक्षा कहा जाए तो, अगर पोथी रटना भी योग्यता कहा जाए, क्योंकि यही योग्यता रही है। शास्त्रार्थ होते रहे हैं दो लोगों में तो कैसे कि किसने कितना पोथी रट लिया है।
अभी जो तकनीकी संस्थान हैं, उनकी पढ़ाई का स्तर ऐसा ही है, किसने कितनी किताबें रट ली और परीक्षा में नंबर हासिल कर लिया। यही कारण है कि भारत में इतने तकनीकी संस्थान होने के बावजूद अगर हम विकसित देशों की नकल ना करें, चोरी या खरीद करके ना लाएं तो हम कहीं नहीं ठहरते। इसका अर्थ यह नहीं है कि हममें आप में बुध्दि, क्षमता नहीं है। नहीं ऐसा नहीं है। बचपन से हमारी जो ट्रेनिंग है शिक्षा के नाम पर वो याद करना, रटना और परीक्षा में उत्तर लिखकर अंक लाना इसी पर निर्भर करता है, जो ये कर लेता है वो एम्स, आईआईटी पहुंच गया।
अब इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई अयोग्य अंदर और योग्य बाहर रह गया। वो तो छंटनी के तौर तरीके हैं। बहुत ऐसे बच्चे हैं जिनको अगर आईआईटी में चार साल पढ़ने का मौका मिल जाए तो वो जो पढ़ रहे हैं आईआईटी के अंदर उनसे कई गुना बेहतर परफार्मेंस दे सकते हैं, ये योग्यता है, अरे ये तो चांस की बात है। प्रवेश परीक्षाओं का आधार केवल रटने पर है, रटना योग्यता नहीं होती है, क्षमता हो सकती है, आपके मस्तिष्क के ऊपर है। और दूसरा ये भी है कि आप सुविधापूर्ण तनावमुक्त माहौल में रहे हैं तो आप चीजें जल्दी याद कर लेते हैं। अब दलित का बच्चा छोटे से ही अपमान झेलता है, संस्थानों में पढ़ते हुए अपमान खेलता है,नौकरी करते हुए अपमान खेलता है, सेवा में रहते हुए भी अपमान खेलता है, सेवानिवृत्ति तक अपमान खेलता है। तो इन सब चीजों को हमें मिला जुला के देखना पड़ेगा तब हमें समझ में आएगा सामाजिक आरक्षण बनाम संवैधानिक आरक्षण।
सामाजिक आरक्षण वो है कि ब्राह्मण के बेटे को आपने योग्य, विद्वान मान लिया, क्षत्रिय के बेटे को आपने बहादुर मान लिया भले डरपोक हो, ब्राह्मण का बच्चा भले मानसिक विकलांग हो लेकिन फिर भी उसे योग्य माना जाता है क्योंकि ब्राह्मण की संतान है। ऐसे ही क्षत्रिय का बच्चा, वैश्य का बच्चा, व्यापारी का बच्चा। व्यापारी का बच्चा व्यापार में कुशल मान लिया जाता है, कोई नहीं होता एक्सपर्ट। बहुत लोग कहते हैं न कि व्यापारी का बच्चा व्यापार जानता है, कुछ नहीं जानता। वो बच्चा जो पैदा होने से घर में सब देखता है, वो अपने से सीखता जाता है। अब व्यापार के नाम पर होता क्या है, झूठ बोलता है, धोखा देता है, तीन का पांच करता है आदि। इसी प्रकार का ही व्यापार ही तो बहुत से बच्चे सीखते हैं ना, वो कौन से मैनजमेंट के एकदम एक्सपर्ट हो जाते हैं। और उन्हें तो पिता का बना बनाया ढांचा मिल जाता है और अगर पिता से ज्यादा कमाए तो ज्यादा योग्य मान लिया जाता है। ऐसा ही परंपरा में चलता रहता है, तरीका वही सोच वही होती है, रटना वही होता है। अब फर्क ये है कि व्यापारी के यहाँ पैदा हुआ तो कम परिश्रम में अधिक कमाई हुई तो ये कहा जाता है कि योग्य है क्योंकि ढांचा ऐसा है। अब बढ़ई, लुहार इनको ले लिया जाए, वे ज्यादा योग्य, कुशल, परिश्रमी और तकनीकी विशेषज्ञ होते हैं लेकिन चूंकि उनके ऊपर ढांचे के कारण बहुत ज्यादा लाभ कमाने का नुक्ता मौजूद नहीं होता है।
भारतीय समाज में परिश्रम करने वालों को यदि उनके परिश्रम के मुताबिक मुनाफा कमाने का ढांचा दे दिया जाए तो जाति व्यवस्था ढह जाएगी, शोषण ढह जाएगा, सारी चीजें उथल-पुथल हो जाएगी, उथल-पुथल का मतलब चीजें व्यवस्था की ओर बढ़ेगी। लेकिन ऐसा कौन चाहता है, बनी-बनाई संपत्तियां हैं, परंपरा में आदमी भोग कर रहा है, वो क्यों चाहेगा कि कोई बदलाव हो, नहीं चाहेगा, बिल्कुल नहीं चाहेगा।
तो आरक्षण के विरोध के पीछे ये भोग करने की, विरोध करने की मानसिकता है, और ये योग्यता वगैरह मुद्दे छेड़ दिए जाते हैं ताकि ये लगे कि हम वाजिब बात कर रहे हैं, अच्छी तार्किक, सार्थक, तर्कसंगत बात कर रहे हैं जबकि ऐसा कुछ नहीं होता है।

आरक्षण का विरोध का मतलब आप सामाजिक न्याय का विरोध करते हैं, सामाजिक समता का विरोध करते हैं, योग्यता का विरोध करते हैं, कुशलता का विरोध करते हैं। आरक्षण जो प्राप्त करते हैं वे अयोग्य होते हैं, कम बुद्धि के होते हैं ऐसा बिल्कुल नहीं है। किसी समाज का विकास उसके लोगों की सोच, ये देखने समझने के लिए आपको हजारों सालों से कैसा जीवन यापन कर रहे हैं, उनकी सोच व कंडिशनिंग कैसी है, ये समझना होता है।

- विवेक उमराव सामाजिक यायावर

Sunday, 7 January 2018

Wall Decoration with Posters, 2018







~ हिमनगरी मुनस्यारी में मेरा छोटा सा आशियाना ~

                       मुनस्यारी में मेरा ये छोटा सा एक कमरा है। हजार रूपया किराया है इस कमरे का। मैं जब यहाँ आया तो मैंने बाल्टी, साबुन की डिबिया आदि दैनिक जरूरत के कुछ कुछ सामान खरीदे, लेकिन एक चीज खरीदने की मुझे कभी जरूरत महसूस नहीं हुई और वो है ताला चाबी। मेरा कमरा ऐसे ही रहता, कभी-कभी तो सिटकनी भी नहीं लगाता और दिनभर बाहर रहता जबकि मेरे कमरे में मेरा लैपटाप कैमरा कुछ पैसे आदि सामान रहता लेकिन सब कुछ जस का तस। कुछ बच्चों का मेरे कमरे में आना-जाना लगा रहता, मेरी अनुपस्थिति में वे मेरा कैमरा लैपटाप इस्तेमाल भी करते लेकिन सारी चीजें अपनी जगह पर। मैं वापस लौटता तो कई बार पाता कि मेरे कैमरे में जो कुछ नयी तस्वीरें हैं ये आखिर किसने ली। ये कोई आश्चर्य की बात नहीं है, ये यहाँ सामान्य है। यहाँ लोगों में विश्वास है, आगे कब तक रहेगा नहीं मालूम।
अब ठीक ऐसा ही आपको भारत के अधिकांश पहाड़ी क्षेत्रों और मैदानी इलाकों में भी सुदूर गांवों में देखने को मिल जाएगा, खैर ये सब संस्कृति तो अब धीरे-धीरे लुप्त हो रही है। निश्चय ही आने वाले सालों में ये चीजें अब शायद ही देखने को मिले।
अब दूसरी ओर हमारे शहरों में देखिए, हम सुविधाओं से लैस हैं फिर भी कितना अविश्वास है, यहां तक कि सालों तक पड़ोस में कौन रहता है हम ये भी नहीं जान पाते। हम सुरक्षा के नाम पर कुत्ते पालते हैं, कंटीले तार लगाते हैं, मोटी-मोटी चैन और बड़े-बड़े ताले लगाते हैं और खुद को बड़ा विचारवान और जागरूक समझते हैं। हम विकास की बात करते हैं, जागरूकता की बात करते हैं, जीवन मूल्यों की बात करते हैं, क्वालिटी आफ लाइफ पर चर्चा करते हैं, सभ्य और सुसंस्कृत होने का दंभ भरते हैं। लेकिन इन सब चीजों के सही मायने क्या हैं ये जीवनपर्यन्त समझ नहीं पाते।