Wednesday, 5 February 2025

बात निकली चॉकलेट की -

सोशल मीडिया में अपने छोटे मोटे सुख-दुख को बांटते हुए हम आम भारतीयों में से लगभग हर किसी को इस फ्रिज के बारे में पता होगा। यह डिब्बेनुमा फ्रिज जो लगभग हर छोटे बड़े परचून/किराने की दुकान में देखने मिल जाता है, इसमें बहुत से अलग-अलग ब्रांड के चॉकलेट रखे जाते हैं, अमूमन 5 रुपए से लेकर 100 रुपए तक के चॉकलेट रहते हैं, इन सारे चॉकलेट्स के विज्ञापन बड़े-बड़े सेलिब्रिटी दशकों से करते आ रहे हैं। इस कारण से इन चॉकलेट्स की बड़ी खेप भारत के आम लोगों तक पहुँचती है, हममें से लगभग हर किसी ने खाया ही होगा। दोस्त यार को तोहफ़े में भी हम दशकों से यही सब देते आ रहे हैं। “ कुछ मीठा हो जाए “ की तर्ज़ पर अमिताभ बच्चन जैसे सेलिब्रिटियों ने एक तरह से चॉकलेट को मीठे का पर्याय बना दिया जबकि चॉकलेट उस तरह से मीठे और सुगर वाली श्रेणी में नहीं आता है।

अब मुद्दे की बात यह है कि ये सारे चॉकलेट निहायती कूड़ा हैं, जिससे शरीर को कुछ भी नहीं मिलता है। निःसंदेह इनके बनने में एकदम घटिया स्तर के कोको और नाना प्रकार के आर्टिफीसियल फ्लेवर का इस्तेमाल किया जाता है, तभी इनमें चॉकलेट के नाम पर केवल एक ख़ास तरह का स्वाद होता है। यही फार्मूला सेलिब्रिटी द्वारा प्रचारित किए जा रहे बहुत से दैनिक जीवन के उत्पादों पर लगाया जा सकता है।

चॉकलेट की असली पहचान क्या है, उसका एहसास क्या होता है, इसे समझने के लिए सन् 2000 में बनी चॉकलेट फ़िल्म को देखना चाहिए। फ़िल्म में एक महिला और उसकी बेटी फ्रांस में एक रूढ़िवादी गाँव में चॉकलेट की दुकान खोलती हैं, जिसे वहाँ के ग्रामीण स्वीकार नहीं करते हैं। लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ वे लोगों का दिल जीतती हैं और उनकी परेशानियों में उनकी आर्थिक मदद भी करती हैं। यह सिर्फ़ और सिर्फ़ वे अपने घर में हाथ से बनाए चॉकलेट के दम पर करती हैं। जो कोई भी विरोध करते वे सबको मुफ्त में चॉकलेट खिलाया करती हैं, चॉकलेट खाकर ही वे उनके प्रशंसक बन जाते हैं। किसी की तबीयत ठीक नहीं है उसे भी एक ख़ास तरह का चॉकलेट दे देती है जो तुरंत उनकी तबीयत ठीक कर देता है। यह सब कुछ उनके बनाये चॉकलेट के दम पर होता है।

कुछ समय पहले विदेशी ब्रांड की चॉकलेट लगातार खाने के बाद समझ आया की असल मायनों में चॉकलेट होता क्या है। चॉकलेट कम अधिक इनो की तरह होता है, वही 6 सेकंड में काम करने वाला इनो जिसे भारत का समाज एसिडिटी भगाने के लिए कम और इडली बनाने के लिए अधिक इस्तेमाल करता है। असल में चॉकलेट खाते ही आपका मूड बहुत बढ़िया हो जाता है, मिनट भर के अंदर ही एक हल्कापन महसूस होता है क्यूंकि अच्छा चॉकलेट तुरंत अच्छी मात्रा में सेरोटोनिन और एंडोर्फिन स्रावित करता है। लेकिन ख़राब और घटिया क्वालिटी के कोको से बने चॉकलेट में सिर्फ़ आर्टिफीसियल फ्लेवर ही मिलता है जिससे आपको केवल घंटा मिलता है।

Sunday, 2 February 2025

सरकारी कर्मचारी अधिकारी दिखने में अच्छे क्यों नहीं होते हैं ?

एक अधिकारी दोस्त ने कुछ समय पहले घोर निराशा जताते हुए मुझसे पूछा कि ये सरकारी अधिकारी लोग अच्छे क्यों नहीं दिखते हैं? कुछ एक अपवाद छोड़ दें तो एक भी इंसान ढंग का नहीं। ना कोई पर्सनैलिटी, ना ही पहनावे का ढंग, सब एक जैसे ही निष्प्राण से लगते हैं।

इसके बहुत से कारण हैं -

1. आप किसी पद पर हैं, आपको हमेशा इस बात का ध्यान रखना होगा कि दिखने में आप अपने सीनियर अधिकारी से बड़े और बेहतर ना लगें, वरना उसका अहम हावी होने लगेगा। इसलिए एक तहसीलदार स्तर का व्यक्ति कभी एसडीएम और कलेक्टर के स्तर के कपड़े जानबूझकर नहीं पहनता है जबकि पहन सकता है। अगर पहन भी ले तो उसे असहज महसूस कराया जाएगा, व्यवस्था ऐसी है कि वह ख़ुद भी असहज महसूस करेगा। आप यहीं से ख़ुद को छोटा करते हैं, आप क्या करते हैं, व्यवस्था ही कर देती है।

2. भोजन के तौर तरीकों की भी बड़ी भूमिका होती है। लगभग हर सरकारी विभाग और उसके कर्मचारी अधिकारी मीटिंग और छुटपुट पार्टी के नाम पर समोसे और चाय से ऊपर सोच नहीं पाते हैं। चाय समोसे पर ही दोस्ती यारी होती है, चर्चाएं होती है। इस वजह से भी कोई क्लास डेवलप नहीं हो पाता है। दूसरा एक पहलू इसमें यह भी है कि आपके चारों ओर नाना प्रकार के बागड़बिल्ले होते हैं तो आप चाहकर भी ऊँचा नहीं सोच सकते, आपको सामूहिकता का ध्यान रखना होता है। तो आप जैसा खाते हैं, आपकी सोच भी वैसी होने लगती है, आपका ढाँचा भी वैसे ही ढल जाता है, आप अलग नहीं दिखते हैं।

3. चर्चा विमर्श के नाम पर किसने कहाँ जमीन ख़रीदी, कौन सी गाड़ी ख़रीदी, कौन सा लोन लिया, यही चलता है। फ़िल्म मनोरंजन के नाम पर भी वही बॉलीवुड और साउथ की बात चलती है। कभी आप नहीं सुनेंगे कि कोई किताबों पर बात करे या किसी थिएटर या आर्ट फ़िल्म को लेकर कोई चर्चा हो। तो इंसान जैसा देखता है, वैसा होने लगता है।

4. सरकारी विभाग में आदमी समाज के हर तबके से मुखातिब होता है। अमीर ग़रीब हर कोई टकराता है। ऐसी स्तिथि में समाज के हर पहलू, उससे जुड़े लोक व्यवहार के तरीक़ों और विद्रूपताओं से आए दिन दो-चार होने की वजह से आपके भीतर भी थोड़ा सा प्रभाव आ ही जाता है। वैसे भी हर कोई कहीं ना कहीं लूट रहा है, ऐसे में व्यवस्था के साथ रहने की इतनी क़ीमत तो चुकानी ही पड़ती है।

5. सरकारी दफ़्तर में नाम से अधिक सरनेम की पूजा होती है, आपको आपके सरनेम से ही पुकारा जाता है, आपके जॉइनिंग के दिन से आपका जाति गोत्र खंगाला जाता है, आपको ऐसे ही लोगों के बीच खपना होता है। आप भी जुगाड़ के नाम पर अपना जात भाई खोजने लगते हैं। कुल मिलाकर भारतीय समाज के कटु यथार्थ को एकदम निचले स्तर तक सरकारी दफ्तर में आप आए दिन महसूस कर सकते हैं। ये सब संगत में आप रहते हैं तो आपका भी दिमाग भ्रष्ट होता है, आप बहुत दिन तक अप्रभावित नहीं रह सकते हैं, वैसे भी व्यवस्था की एक ताक़त है कि वह बिना पता चले ही लोगों को अपने भीतर अवशोषित कर लेती है, इसलिए थोड़ी बहुत कीचड़ की छींटें आप तक भी आती है।

6. सरकारी तंत्र में आपकी योग्यता और आपके काम की गुणवत्ता से कहीं अधिक बड़ा गुण जी हुजूरी करने को माना जाता है। इस कारण से आपसे बेहतर काम की अपेक्षा ना होकर हमेशा औसत काम की अपेक्षा रहती है। अहम संतुष्ट करना काम को बेहतर ढंग से करने से बड़ा ध्येय माना जाता है। इसलिए ठेके में लिए गए काम की तरह आपको एक काम को पकड़ के धीरे-धीरे अलादीन के चिराग की तरह घिसते रहना होता है। आप जल्दी करके देंगे तो आपका भयानक शोषण होगा, इसलिए जानबूझकर आपको अपनी गति धीमी करनी होती है, इससे आपकी मेधा, क्षमता और उत्पादकता कम होती है। इस कारण से भी लोग निष्क्रिय उबाऊ होने लगते हैं।

7. सरकारी विभाग यानी पॉवर। आपके पास जब पॉवर होता है, खासकर एक इंसान होने के नाते जब आप एक किसी दूसरे इंसान के जीवन के छोटे से पहलू को भी प्रभावित करने की ताक़त रखते हैं, ऐसी स्तिथि में आपके भीतर एक अजीब किस्म का अक्खड़पना हावी होने लगता है। इंच मात्र ही सही मैं ही सर्वे सर्वा हूँ, मैं ही इष्ट हूँ, भगवान हूँ, यह वाला भाव जब आपके भीतर आता है तो आपको ना तो अच्छा दिखने की ज़रूरत महसूस होती है, ना ही आपको अपनी पर्सनैलिटी का ध्यान रखना बहुत बड़ी चीज़ लगती है। क्यूंकि इसके बिना भी आपका खूब डंका बजता है, आपको पूजा जाता है। इसलिए भी अधिकतर लोगों का स्किलसेट सरकारी व्यवस्था में जाते ही खत्म होने लगता है।

ऊपर लिखित बातों में ही इंसान इतने बुरे तरीके से फँसा रहता है कि उसके लिए ख़ासकर अच्छे कपड़े पहना, अच्छा स्मेल करना, अच्छा दिखना यह सब चीज़ें गौण हो जाती है। और पितृसत्तात्मक समाज होने की वजह से यह दरिद्रता पुरुषों में अधिक दिखाई देती है।

कुंभ की भगदड़ के लिए दोषी कौन ?

हर चीज़ को इवेंट और ट्रेंडसेटर के रूप में तब्दील करने के परिणाम भयावह ही होते हैं। और यह सिर्फ़ कुंभ जैसे मेगा इवेंट पर लागू नहीं है।

पिछले 4-5 सालों में मुझे अधिकतर लोगों ने घूमने फिरने वाले मामलों का ज्ञाता समझकर सबसे ज़्यादा एक ही सवाल पूछा कि क्या मैं केदारनाथ गया हूँ? उससे पहले लद्दाख शिमला मनाली का पूछा करते थे। इन सब के पीछे का अपना मनोविज्ञान है। असल में इंसान जो पहली नजर में देखता है, उसका पूर्वग्रह उतने तक ही उसको सीमित कर देता है। उसके आगे भी जहां है यह वो सोच नहीं पाता है।

उदाहरण के लिए 3 इडियट्स जैसी फिल्मों ने लद्दाख का भूसा बनाया, हर किसी को मोटरसाइकिल से लद्दाख जाने का भूत सवार हो गया। ये जवानी है दीवानी फ़िल्म ने हर नए नवेले शादी शुदा जोड़े को मनाली तक पहुँचाकर ही दम लिया। इसी तरह केदारनाथ फ़िल्म ने एक अलग ही विचित्र किस्म के भक्त पैदा किए जिन्हें ख़ुद भी नहीं पता कि वे क्यों ही केदारनाथ जाना चाहते हैं। मैं इनमें से मनाली के अलावा कहीं नहीं गया हूँ, मनाली भी बस गलती से बर्फबारी के नाम से चला गया था, वरना वहाँ भी ना जाता। इन जगहों की आत्मा को मार दिया गया है।

कुम्भ में भी यह हुआ, पागलपन की हद तक जाकर प्रचार किया गया और उसमें भी संख्या बल और सुविधाओं का भोंडा शक्ति प्रदर्शन किया गया। बस लोग बड़ी संख्या में पहुँच गए और हज़ारों की संख्या में भगदड़ में मारे गए। इसमें आप कहीं से भी लोगों को दोष नहीं दे सकते हैं, आप जैसा माहौल बनायेंगे, जो चीज़ें आप परोसेंगे, लोग उसी का उपभोग करेंगे। अगर इसमें कोई दोषी है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रशासन है।

आजकल ये अतिरेक हर जगह हो रहा है। इस कारण से भी बहुत से सुलझे हुए लोग अब घूमना बंद करने लगे हैं। इस वजह से मैं भी भारत घूमकर आने के बाद 1-2 साल कहीं भी नहीं गया, शांत बैठा रहा, इच्छा ही नहीं हुई। अभी पूर्वोतर से आने के बाद भी पिछले 1 साल से कहीं भी नहीं गया हूँ। दोस्त लोग भी अब पूछ-पूछकर थक चुके हैं, अब उन्होंने भी घूमने जाने के लिए पूछना छोड़ दिया है। अभी जैसा समय चल रहा है उसमे तो कहीं ना घूमने में ही सच्चा सुख है। ज़्यादा बैचैनी हो तो दोस्तों से मिलिए, फ़िल्म देख आइए, घर पास के नदी तालाब जंगल झील झरनों आदि में ही सुख ढूँढने की कोशिश कर लीजिए, वरना बाजार आपको ऐसे ही इधर से उधर उठा-उठा के पटकता ही रहेगा।