Tuesday, 23 July 2024

पिल वेब सीरीज और हमारा सुप्रीमकोर्ट - आश्चर्यजनक किन्तु सत्य

आजकल वेब सीरीज की बाढ़ आई हुई है। लिखो-फेंको की तर्ज‌ पर आपको अपने पसंद की ढेरों वेब सीरीज मिल जानी है। इसी तर्ज पर एक दोस्त की सलाह पर हाल फिलहाल में फार्मा इंडस्ट्री के काले सच को बेनकाब करती रितेश देशमुख की वेब सीरीज पिल देखी। वेब सीरीज का कथानक अच्छा है, रितेश देशमुख ने अच्छी एक्टिंग की है, विलेन के रूप में पवन मल्होत्रा का अभिनय भी शानदार है। 

मोटा-मोटा वेब सीरीज की कहानी यह है कि बड़े व्यापारियों द्वारा डाइबिटिज की दवा  का फेक ट्राइल लोगों की जान जोखिम‌ में डालकर किया जाता है और सरकारी महकमे में जुगाड़ लगाकर दवा लांच कर दी जाती है। फिर रितेश देशमुख नामक ड्रग अधिकारी फरिश्ता बन कर आता है, फाइलें खंगालता है, व्यवस्था से लड़ता है और अंत में सुप्रीम कोर्ट से केस जीत जाता है और व्यापारी का लाइसेंस रद्द हो जाता है और वह सलाखों के पीछे होता है। 

जाॅली एलएलबी और इस तरह की कहानियों पर बनने वाली बहुत सी फिल्में वेब सीरीज देख चुका हूं। हर फिल्म में अंत में सुप्रीम कोर्ट को महान बना दिया जाता है जो कि समझ से परे है जबकि सब कुछ सामने ही दिख रहा होता है कि आम आदमी का जीवन कैसे कोर्ट कचहरी के चक्कर में नर्क हुआ पड़ा है। पिल वेब सीरीज को ही ले लीजिए। हकीकत में क्या ऐसा कहीं से भी संभव है? उल्टे अगर रितेश देशमुख को उस व्यापारी द्वारा कार से कुचल दिया जाता और सुप्रीमकोर्ट के जज को बिकाऊ घोषित किया जाता तो कहानी और वास्तविक होती। फिर अंत में सुप्रीमकोर्ट और तमाम हाईकोर्ट में लाखों लंबित मामलों और अन्यायपूर्ण फैसलों का बस अनुमानित डेटा प्रस्तुत कर दिया जाता। लेकिन कहानी को इतनी वास्तविकता के साथ अगर बना दिया जाता तो वेब सीरीज पर ही बैन लग जाता।

हमारी फिल्मों में जिस सुप्रीम कोर्ट के हाथों बारंबार न्याय दिलवाया जाता है, वहां न्याय पाना कितना कठिन उबाऊ और तनावभरा काम है, इसकी शायद कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जो कोर्ट कचहरी के चक्कर काटते हैं उन्हें बेहतर मालूम‌ है, आप कितने भी पैसे वाले हों आपको परेशान होना ही पड़ेगा। पैसे के साथ-साथ आपके पास रसूख नहीं है तो आपके यहां पूरी पीढ़ी बर्बाद हो जाती है। बहुत अलग-अलग तरह के काम करने वालों के चेहरे की भाव-भंगिमा देखी है, पता नहीं क्यों ये वाले मुझे सबसे अधिक शुष्क मालूम हुए। 

इस बात में कोई शक नहीं कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई ईकाई अगर सबसे अधिक भ्रष्ट है तो वह न्यायपालिका है, एक बार कोढ़ का इलाज है, लेकिन कोर्ट का नहीं है‌। यह इंस्टिट्यूट ही अपने आप में एक लाइलाज समस्या है। आदमी अस्पताल हवालात का एक बार तोड़ निकाल लेता है, आर्थिक रूप से अगर सक्षम है तो वहां उसे कुछ राहत मिल भी जाती है लेकिन एक बार कोई कोर्ट के हाथ लगता है तो उसकी ऐसी पिसाई होती है कि आजीवन उसे हिसाब चुकता करना पड़ता है। कहने का अर्थ यह है कि फलां चीज ठीक है या गलत है, जो कि हमें पता होता है, उसी बात को अगर सुप्रीमकोर्ट सिध्द कर दे तो हम उसे महान घोषित क्यों कर देते हैं? हमें इस पर गहराई से सोचने की आवश्यकता है। 

Wednesday, 17 July 2024

भारतीय और उनकी भारीभरकम नैतिकताएं

एक मानसिकता है, एक सैध्दांतिकी है, जिसे इंसान धुरी बनाकर उस पर घूमता रहता है। इसमें अपनी जरूरतें केन्द्र में होती हैं। जैसे पुराने समय में किसी को युध्द में या शिकार में जाना होता था, या पुत्र प्राप्ति या किसी असाध्य रोग से मुक्ति चाहिए होती थी तो वे किसी जानवर या नरबलि तक की प्रथा वाली सैध्दांतिकी को मजबूती से जीते थे। 

आज भी इस सैध्दांतिकी को अपने आसपास अलग-अलग रूपों में पल्लवित होते हुए देखा जा सकता है। समय बदला है, इंसान को न‌ पहले जैसे युध्द करना है न ही जंगल में जाना है। आज उसकी भूख, उसकी जरूरतें, उसका लालच अलग है। लेकिन वह किसी एक प्रचलित नियम‌ को, आस्था के पैटर्न को मानने का कष्ट उठाता रहता है, क्योंकि बदले में वह तरह-तरह के‌ अपराध/हिंसा करता है, अनैतिकता को जीता है।

हम सबने अपने आसपास किसी न किसी यौन कुण्ठित व्यक्ति को देखा ही होता है। सबकी बात नहीं कही जा रही लेकिन मैंने यह पाया है कि अधिकतर जो यौन कुण्ठित युवा या फिर अंकल सरीखे लोग होते हैं, ये नवरात्र उपवास, सावन की कांवड़ यात्रा या ऐसे तमाम धार्मिक आयोजनों में जमकर अपना समर्पण दिखाते हैं। वे इस आस्था को बहुत गहराई से जीते हैं कि यह समर्पण इनको इस बात का परमिट देता है कि वे जीवन में जिस भी आपराधिक प्रवृति को जी रहे होते हैं उसमें प्रभु की कृपा सन्निहित है और प्रभु उन्हें इसके लिए क्षमा कर देंगे।

अपने अपराधों, अपने कुकर्मों, अनैतिक कृत्यों की पैरवी के लिए हम सबसे पहले स्वयं एक प्रतीक चिन्ह/एक ईश्वर/एक मानसिकता को चुनते हैं क्योंकि उसे हम‌ अपने हिसाब से नचा सकते हैं और अंतिम फैसला बड़ी आसानी से अपने पक्ष में ले सकते हैं। इससे आजीवन अपनी सारी गलतियों को सही मानने के भ्रम में जीने की सुविधा मिल जाती है।