गाँधी का जिस तरह का जीवन रहा, उसे बहुत निर्मम होकर देखने की जरूरत है, उस पर शोध करने की जरूरत है। बतौर पत्रकार, राजनीतिक नेता, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता, आध्यात्मिक संत और न जाने ऐसे कितने इनके रूपक हैं। अभी उन सब बातों पर नहीं जाते हैं कि देश समाज के लिए क्या, क्या निर्णय लिए। इन सब चीजों से कभी किसी का आंकलन करना ही नहीं चाहिए। कुछ दशकों का जीवन हममें से हर किसी को मिलता है, उसमें इंसान की जितनी क्षमता, जैसी महत्वाकांक्षा और जैसा उसे माहौल मिलता है, उसमें वह अपने व्यस्त रहने और अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए जीवन जीता है और यहाँ से चला जाता है। गाँधी ने भी वही किया है, अपना जीवन जिया है।
गाँधी या किसी भी ऐसे व्यक्ति का जिसके होने का प्रभाव देश समाज पर बहुत अधिक पड़ता हो। ऐसे लोगों के व्यक्तिगत जीवन के बारे में बात होनी चाहिए। गाँधी जिस समयकाल में रहे, उस दौर में अपने बारे में लिखना एक तरह से तुच्छ माना जाता था। इस देश की परंपरा ऐसी कभी नहीं रही कि इंसान अपनी तारीफ करे, या आत्मकथा या अपनी जीवनी लिखे। भारतीय उपमहाद्वीप का व्यक्ति एक तरह से "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" की तर्ज पर अपने कुछ दशकों का जीवन शांति से काटता था, जो सीखता था, अगली पीढ़ियों को दे जाता था। या व्यक्ति ने कुछ बेहतर किया तो लोग खुद उसे लिपिबध्द किया करते थे। समाज बड़े लंबे समय से ऐसे ही चल रहा था। फिर अचानक से गांधी आए और अपना इतना गुणगान करने लगे कि खुद की ही आत्मकथा लिख दी। उस आत्मकथा में वही लिखा जो लोगों को महान लगे। गांधी का अपनी आत्मकथा में यह लिखना कि पिताजी मृत्युशैय्या पर थे और मैं पत्नी के साथ संसर्ग कर रहा था। गांधी का इसमें अपने आप को अपराधी की तरह पेश करना और ईमानदारी दिखाना बहुत ही मूर्खतापूर्ण था। गांधी जिनकी नई शादी हुई थी, वे अपनी पत्नी के साथ ही सोए थे, इसमें कुछ अपराध नहीं कर रहे थे। इस चीज में उनका अपराधबोध दिखाना उनके भीतर के पक्के गुजराती को दिखाता है जिसे हर चीज की मार्केटिंग करना आता है। और अपराध की बात करें तो अपराध वह था जिसमें वे अपनी भतीजियों के साथ सोकर ब्रम्हचर्य के अजीबोगरीब प्रयोग करते रहे, जिसका सबने विरोध किया। अपराध तो वह था जिसमें वह जबरन अपनी पत्नी से टायलेट साफ कराकर उसका व्यक्तित्व बदलने की कोशिश करते रहे। अपराध वह था जिसमें वे और उनकी पत्नी ब्रम्हचर्य के नाम पर अलग-अलग बिस्तर पर सोते रहे और इसे महानता की तरह पेश किया, भारत की एक बड़ी आबादी आज भी डबल बेड में साथ सोकर ब्रम्हचर्य धर्म का पालन दशकों तक करती है, इस लिहाज से तो ऐसे सभी लोग गाँधी से भी अधिक महान हुए। लेकिन गांधी को मैं नामक बीमारी लगी थी। गांधी महात्मा बाद में पहले पक्के गुजराती रहे, जो हमेशा अपना हिसाब-किताब नफा-नुकसान लेकर चलते थे। गाँधी मार्केटिंग किंग थे, पीआर एक्सपर्ट थे। उन्हें अपनी चीजों को बेचना बड़े अच्छे से आता था। और ऐसे लोगों के भीतर कुछ चीजें कूट-कूट कर भरी होती है और वह है धैर्य और अहिंसा। गाँधी के व्यक्तिगत जीवन को कठोरता से देखा जाए तो साध्य-साधन वाली थियरी वहीं ध्वस्त हो जाती है।
और जहाँ तक बात ब्रम्हचर्य की है, योग आध्यात्म की है। देश की अपनी तासीर को देखते हुए मुझे यह सब हमेशा से प्रिविलेज क्लास की चीज लगती है, फर्ज करें कि एक व्यक्ति जिसके पास जीवन में खोने को कुछ नहीं है, वह क्या योग आध्यात्म की दिशा पकड़ेगा, जिसकी जीवनचर्या का ही ठिकाना नहीं, उससे आप क्या ब्रम्हचर्य या योग की उम्मीद करेंगे। एक दिशाहीन और खोए हुए आत्मविश्वास के साथ जी रहा व्यक्ति सामान्य तरीके से बिना समाज की किसी ईकाई को तंग किए अपना गुजर बसर कर ले, परिवार का भरण पोषण कर उन्हें तनावमुक्त जीवन दे जाए, यही उसके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। और इतना करने के बाद भी अगर अमुक व्यक्ति को इन सब चीजों को लिखना पड़े, उस रुला देने वाली संघर्ष यात्रा को घाव खरोचने की भांति याद कर आत्मकथा लिखनी पड़े तो ऐसे जीवन पर लानत है, मुझे नहीं लगता है कि वास्तव में संघर्ष किया हुआ व्यक्ति यह सब कर पाएगा, उसकी इतनी औकात बचती भी नहीं है। यह सब काम करना भी असल में एक प्रिविलेज क्लास के व्यक्ति को ही शोभा देता है। जो जीवन की सामान्य चीजें जिनमें भोजन, रोजगार, प्रेम संबंध, रिश्ते, लोक व्यवहार आदि है, इसको भी किताबी शक्ल दे देता है। आम संघर्षशील व्यक्ति के लिए यह सब चीजें फालतू थी और आगे भी फालतू ही रहेगी। भारत का आम व्यक्ति बिना गाँधी को जाने और उसको पढ़े पूरा जीवन अच्छे से बिता लेता है और यहाँ से चला जाता है। क्योंकि भारत में व्यक्तिपूजा को हमेशा से हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है।
गाँधी की दक्षिण अफ्रीका यात्रा को लेकर बात चलती है कि उन्होंने वहाँ लोगों के लिए फुटबाल ग्राउण्ड बनवाया, ये काम किया, वो काम किया फलां फलां। इसमें मेरा बस इतना ही पूछना है कि क्या गाँधी ने यह सब अपने पैसे से बनवाया। और जब अपने पैसे से नहीं बनवाया तो इसे सीधे यही मान लेते हैं कि बतौर एक एनजीओ मास्टर या इंत्रोप्योनोर की तरह अफ्रीका में वे चंदा लेकर या उनका श्रम लेकर उनसे काम करवाया। जिस किसी को भी इस एनजीओ टाइप के काम का अनुभव हो इसे यह भलीभांति मालूम होगा कि ऐसे कार्यों में कितनी महानता होती है।
कभी-कभी सोचता हूं कि गाँधी नेहरू या उस समय के जितने भी नेता रहे, उनके समय अगर इंटरनेट और सोशल मीडिया होता तो। लोग उनके खिलाफ भी स्टैंड अप कॉमेडी करते हुए उनकी जीवन की परतें खोलकर उनकी धज्जियाँ उड़ा रहे होते, और वे इस स्तर पर महानता का स्वांग नहीं भर पाते।
भारतीय उपमहाद्वीप में या दुनिया में कहीं भी जब आपको महान लोगों के बारे में जानने का मन करे या प्रेरणा लेने का मन करे तो इसमें बस एक ही पैमाना होना चाहिए कि अमुक व्यक्ति के भीतर " मैं " नामक भूख कितनी थी।
गाँधी की पुण्यतिधि पर सादर श्रध्दांजलि।।