Wednesday, 25 September 2019

An article on Greta thunberg, Global warming and our Reaction

Greta Thenberg के ग्लोबल‌ वार्मिंग वाले वाइरल प्रवचन से लहालोट हो रहे लोग जो सचमुच उस ममतामयी देवी स्वरूप बालिका से प्रेरणा ले रहे हैं उनसे कुछ चंद सवाल हैं -

- हममें से वे जागरूक लोग जिन्हें सचमुच ग्लोबल वार्मिंग से भारी आघात पहुंचा हैं, उनमें से कितने ऐसे हैं जो दिन में एक किलोमीटर भी पैदल चलते हैं, या फिर हममें से कितने ऐसे हैं जो प्रतिदिन पेट्रोल डीजल या ऐसे किसी ईंधन की खपत का हिस्सा नहीं बनते हैं या ना के बराबर खपत करते हैं?

- हममें से कितने लोग हैं जो सचमुच अपने स्तर पर पर्यावरण को बचाने का प्रयास करते हैं, या फिर अपना ईगो कुंठा सब त्यागकर ऐसे किसी काम का हिस्सा बनते हैं या फिर नारे, ढकोसले आदि के भंवर में फँस जाते हैं?

- जिन शहरों का खुद का भू-जल तक खत्म हो गया, उसी शहर की रोड में टी-शर्ट छपवा कर रैली, दौड़, मैराथन का दिखावा करना या फिर उस मृत होते शहर की धरती पर निर्मित किसी चमचमाते हाॅल में दुनिया बचाने का सेमिनार करते वक्त क्या हम अपने गिरेबान में झाँकते हैं, क्या ऐसे सेमिनार में इस बात पर चर्चा होती है कि उसी शहर में इतनी दयनीय स्थिति है कि टैंकर से पानी सप्लाई करना पड़ रहा है या फिर उस किसी शहर की हवा इतनी दूषित है कि साँस लेना धूम्रपान करने जैसा है, क्या इस दर्दनाक स्थिति पर सीधी सटीक बात होती है या फिर मलाई खाने के लिए भावुकता भरी भाषणबाजी होती है?

- वे लोग जिन्हें नदियों के सूख जाने प्रदूषित होने की चिंता है, ऐसे लोग क्या अपने घरों के लिए टाइल्स खरीदना छोड़ देते हैं, पेंट केमिकल आदि खरीदना छोड़ देते हैं, क्योंकि उसी टाइल्स के लिए की जाने वाली खुदाई ने राजस्थान के सारे जल स्त्रोत लील लिए हैं।

- जिन शहरों को हम आदर्श मान कर खुद को बड़ा सभ्य समझते हैं, क्या उन शहरों का वर्तमान चरित्र भयावह नहीं लगता है, जिन्होंने अपनी भूख और हवस के लिए तालाब के तालाब और छोटी छोटी झील झटके में पाट कर वहाँ ईमारतें खड़ी कर दी हैं। यह सब हमें क्यों नहीं दिखाई देता है?

- हम जोमेटो स्वीगी आदि से प्रतिदिन खाना मंगवाते हैं, प्लास्टिक की थाली कटोरी में खाना खाते हैं, सोशल मीडिया में तस्वीर बाँटकर उल्टी भी‌ कर लेते हैं। वही खाना जो हम‌ तक दो तीन प्लास्टिक की डिबिया और एक दो पालिथिन की थैली के साथ पहुँचता है। हम तो भरपेट खाना खाते हैं, डकार मार लेते हैं, फिर उसके बाद किसी रिटेल की दुकान से एक पालिथिन के बदले झोला लेकर चलने का स्यापा करते हुए समाज की नजर में हीरो बनने का अभिनय आखिर कैसे कर लेते हैं?


चलिए इन सारी बातों को नजर अंदाज कर यह मान लिया जाए कि इन‌ प्रवचनों से, फोटोग्राफी से, वीडियोग्राफी से, नारेबाजी से, पोस्टरबाजी से, टी-शर्टबाजी से, मीडियाबाजी से, अगर इन सब तरीकों से देश में, समाज में, सचमुच कुछ अच्छा हो रहा है, लोगों में जागरूकता आ रही है, लोग बेहतरी की ओर अग्रसर हो रहे हैं, बस‌ महाशक्ति, सोने की चिड़िया आदि आदि बनने ही वाले हैं, जब ब्रम्हाण्ड की सारी ताकतें हमारे साथ हैं, अब तो मंगल, चांद भी हमारे रडार में आ गया है, सारी ऊर्जा सकारात्मकता की दिशा में अग्रसर है, तो फिर देश में इतनी अधिक समस्याएं आखिर क्यों हैं या उन समस्याओं में कमी होने के बजाए उत्तरोत्तर बढ़ोत्तरी क्यों हो रही है?